जीएसटी से बेरोजगारी की कगार पर खड़े एक पत्रकार की डायरी : जीएसटी का सच (पार्ट 1 से 12 तक)

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जीएसटी का सच (छह) : पोर्टल महाघटिया और बिल्कुल गैर पेशेवर

संजय कुमार सिंह
sanjaya_singh@hotmail.com

जीएसटी का सारा खेल कंप्यूटर और इंटरनेट से पोर्टल या वेबसाइट पर होना है। एक अच्छे पोर्टल से यह काम बड़े आसानी से किया जा सकता था। पर पोर्टल की हालत तो जो है सो है ही, अखबारों में विज्ञापन देकर पैसे बर्बाद किए जा रहे हैं पोर्टल पर जो खर्च होना चाहिए वह नहीं किया जा रहा है। हालत यह है कि पोर्टल चलते नहीं इसलिए कारोबारी रिटर्न फाइल नहीं कर सकते और समय पर फाइल नहीं करने पर जुर्माना है। इसलिए अखबारों में विज्ञापन छपवाकर धमकाया जा रहा है कि रिटर्न समय पर फाइल करें। शून्य रिटर्न या बिक्री हो तो भी रिटर्न दाखिल किया जाना है। पता नहीं किसलिए, कौन देखेगा जबकि इससे जितनी परेशानी है उतना लाभ नहीं है।

जीएसटी कौंसिल की वेबसाइट http://gstcouncil.gov.in महाघटिया और बिल्कुल गैर पेशेवर और पूरी तरह सरकारी है। इसमें चीजें विषयवार या शीर्षक के अनुसार तो हैं पर सामग्री साइट पर नहीं खुलती है बल्कि पीडीएफ (या वर्ड फॉर्मैट में) डाउनलोड होती है। इस कारण यह सामग्री साइट सर्च में नहीं आती है गूगल सर्च की तो बात ही छोड़िए। सूचनाओं को कायदे से टैग किया गया होता तो हर कोई अपने काम की चीज कुछ मिनट में ढूंढ़ कर निर्णय कर सकता था। इसके साथ कोई फोन नंबर या ई-मेल दिया जा सकता था जहां जो चीज स्पष्ट नहीं होती स्पष्ट कर ली जाती। पर अभी तो सारा मामला ही अस्पष्ट है। फोन पर क्या पूछूं? यह 2017 के डिजिटल इंडिया का हाल है।

फाइल साइट पर न खुलकर डाउनलोड होना नालायकी है, और कुछ नहीं। हालांकि, अक्सर पूछे जाने वाले सवाल का जो हिस्सा मैंने डाउनलोड किया है उसमें लिखा है कि उसका वैधानिक महत्व नहीं है। यही हाल अखबारों में छपने वाले पूरे पन्ने के विज्ञापनों का है। अक्सर पूछे जाने वाले सवालों के जवाब अखबारों में विज्ञापन के रूप में छपवाए जा रहे हैं पर उसमें लिखा है कि जवाब का वैधानिक महत्व नहीं है। एक पेज में छपे सवालों में अपने जवाब कौन ढूंढ़े और पूरा कोई कैसे पढ़े। कहानी पढ़ने और काम की चीज ढूंढ़ने के लिए कोई बड़ा पाठ करने में अंतर है। नेट पर यह सारी जानकारी होती तो सर्च से काम की चीज कुछ ही मिनट में ढूंढ़ी जा सकती थी।

मुझे याद है, कंप्यूटर आने से पहले जमशेदपुर स्थित टाटा मोटर्स के प्लांट में सामान सप्लाई करने के लिए जो चालान भरना पड़ता था वह 11 कॉपी या उससे भी ज्यादा में था। कार्बन लगाकर हाथ से पूरा सेट बहुत पतले (राइस पेपर) पर छपे होने के बावजूद एक बार में नहीं भरा जा सकता था। कंपनी के नियम के अनुसार उसकी प्रतियां भिन्न जगहों पर भेजी जाती थीं तभी भुगतान होता था। उस समय लोग भरते थे तो अब क्या दिक्कत हो सकती है। पर काम शुरू करने से पहले आप उस चालान को देख सकते थे। समझ-बूझ सकते थे। कंप्यूटर आने के बाद यह झंझट खत्म हो गया। जीएसटी में कंप्यूटर रखने का झंझट तो है लाभ नहीं। कुल मिलाकर, पंजीकरण कराना ओखली में सिर देने की तरह है।

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