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जीएसटी से बेरोजगारी की कगार पर खड़े एक पत्रकार की डायरी : जीएसटी का सच (पार्ट 1 से 12 तक)

जीएसटी का सच (पार्ट 1) : जीएसटी यानि छोटे और नए कारोबारों का दुश्मन

संजय कुमार सिंह
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जीएसटी के बारे में बातें तो बड़ी-बड़ी की गईं पर यह छोटे और नए कारोबारों का दुश्मन है। मेरे कुछ ग्राहकों ने कहा कि अंतरराज्यीय “कारोबार” करने वालों के लिए जीएसटी पंजीकरण आवश्यक है और कायदे से वे काम कराना तो दूर जो काम करा चुके उसका भुगतान भी नहीं कर सकते। शुरू में तो मुझे यकीन ही नहीं हुआ पर अब लगता है कि वे सही ही कर रहे हैं। वैसे भी नौकरी करने वाले क्यों जोखिम उठाएं। वे काम नहीं कराएंगे, गलत हो तो क्यों करें। तनख्वाह तो मिलनी ही है। पर यह सब कितने दिन कैसे चलेगा भविष्य बताएगा।

जीएसटी का सच (दस) : छुटपुट काम करके कमाना अब संभव नहीं

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संजय कुमार सिंह
[email protected]

जमशेदपुर से जनसत्ता की नौकरी करने मैं 1987 में दिल्ली आया था। यहां एक साल की ट्रेनिंग के बाद मुझे जो पैसे मिलते थे वह अकेले मेरी जरूरतों के लिहाज से अपर्याप्त तो थे ही ड्यूटी सिर्फ छह घंटे की होती थी वह भी अक्सर शाम छह से रात 12 बजे तक। ऐसे में समय काटना भी भारी मुसीबत था। मैं खुद को अर्ध बेरोजगार कहता था। खासकर तब घर पर रेडियो, टीवी जैसे यंत्र नहीं थे। लैंड लाइन फोन उन दिनों बिरले हुआ करते थे और मोबाइल तो खैर था ही नहीं। इसी तरह, कंप्यूटर भी आम नहीं हुए थे। ई-मेल इंटरनेट का जमाना नहीं था। और तो और फैक्स भी बहुत बाद में आया। 

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ऐसे में कम पैसे में समय काटना भारी मुसीबत थी। दफ्तर से दिल्ली से छपने वाले सारे अखबार भिजवा दिए जाते ते इसलिए उन्हें पढ़ने में अच्छा खासा समय निकल जाता था। हालांकि यह जरूरी नहीं था। चूंकि पैसे भी कम मिलते थे इसलिए कुछ पैसे अतिरिक्त कमाना मजबूरी थी। मैंने तमाम विकल्प आजमाए। ट्यूशन पढ़ाने से लेकर, रेडियो के लिए टॉक लिखने, अपने और दूसरे अखबारों के लिए आलेख लिखने से लेकर रिपोर्टिंग करने तक। सब आजमाने के बाद मुझे अनुवाद सबसे आसान और सबसे ज्यादा पैसे वाला काम लगा।
भारतीय बाजार में फैक्स आने के बाद मैंने सबसे पहले, सबसे महंगी चीज फैक्स खरीदी थी और अनुवाद करने के लिए अंग्रेजी की सामग्री फैक्स से आ जाती थी और मैं वापस मैनुअल टाइपराइटर पर टाइप करवाकर भेज देता था। इसके लिए कई उपाय करने पड़ते थे और पापड़ भी बेलने पड़ते थे। इसके बाद पैसे लेने जाना या कहना कि भेज दीजिए भारी मुसीबत थी। मैंने तय किया था कि कोई पैसे नकद नहीं लूंगा और चेक कूरियर से आ जाता था।

इस तरह, एक समानांतर रोजगार अच्छी तरह स्थापित हो गया। जब पैन कार्ड बनवाने का समय आया तो पैन कार्ड बना और रिटर्न फाइल करने का समय आया तो रिटर्न भी फाइल किया। जब नियमानुसार चला और मेरे लिए अतिरिक्त आय का बंदोबस्त हो गया।

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बाद में कंप्यूटर और इंटरनेट आने से नौकरी के अलावा अतिरिक्त पैसे कमाना अपेक्षाकृत आसान भी हो गया। ऐसा कि 2002 में मैंने नौकरी छोड़ दी और पूरे समय अनुवाद करने लगा। तब अनुवाद पर ना बिक्री कर लगता था और ना सेवा कर। कोई झंझट नहीं था इसलिए मैं अनुवाद कर पाया और दिल्ली में टिक ही नहीं सका, 2002 में जब नौकरी छोड़ी तो पीएफ, वीआरएस और बचत के साथ पिताजी के रिटायर होने के बाद उनसे कुछ पैसे लेकर फ्लैट भी खरीद सका। अब जीएसटी लागू होने के बाद नौकरी करते हुए यह सब असंभव नहीं हो तो भी आसान नहीं होगा।

खाली समय में आप कोई काम करके पैसे कमाएं ये तो संभव है पर सरकार के लिए टैक्स बटोरें और शून्य रिटर्न दाखिल करें तथा यह सब करने के आरोप में नौकरी से निकाल दिए जाने का जोखिम उठाना आसान नहीं है। इसलिए, जीएसटी ना सिर्फ मेरे लिए बल्कि मेरी तरह काम करके कुछ अतिरिक्त पैसे कमाना चाहने वालों के साथ-साथ स्वरोजगार करना चाहने वाले तमाम लोगों की राह में रोड़ा है। सरकारी अड़चन है और टैक्स बटोर कर सरकारी खाते में जमा करने की सरकारी अपेक्षा नाजायज है। पर पैसे कमाने को गलत और नाजायज बना दिया गया है। नौकरी के साथ तो अतिरिक्त पैसे कमाना बिल्कुल गलत या बेजरूरत है। इसलिए कोई इसका विरोध नहीं करेगा। कोई गलत नहीं बता रहा है। इसके अलावा पैसे कमाने के लिए बाजार में रहने वाला मगर से बैर क्यों पाले। जीएसटी का कुछ नहीं किया जा सकता। कोई नहीं बोलेगा।

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