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सियासत

गाज़ा पट्टी के मज़लूमों पर इस्राइल का कहर

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एडोल्फ हिटलर 1933 में र्जमनी की सत्ता में आया था। उसने यहूदियों को इंसानी नस्ल का हिस्सा नहीं माना। 1939 में र्जमनी द्वारा दूसरा विश्व युद्ध भड़काने के बाद हिटलर ने यहूदियों को जड़ से मिटाने के लिए अंतिम हल यानी ‘फाइनल सोल्यूशन’ के तहत एक-एक यहूदी को मारने का बीड़ा उठाया था। यहूदियों का कत्लेआम करने के लिए उन्हें विशेष कैंपों में लाया जाता और बंद कमरों में जहरीली गैस छोड़कर उन्हें मार डाला जाता। दूसरे विश्व युद्ध की समाप्ति के बाद जो दस्तावेज सामने आए हैं, उनसे पता चलता है कि हिटलर दुनिया में एक भी यहूदी को जिंदा नहीं देखना चाहता था। दस्तावेज कहते हैं कि छह साल में नाजियों ने लगभग 60 लाख यहूदियों को मार डाला, जिनमें 15 लाख बच्चे भी थे। हालांकि इसका कोई सटीक जवाब आज तक नहीं मिल पाया है कि हिटलर को यहूदियों से इतनी नफरत क्यों थी? लेकिन माना जाता है कि र्जमनी यह मानते थे कि यहूदियों की हर हाल में र्जमनों की मुखालफत करने की नीति रही है, इसलिए यहूदियों को खत्म कर दिया जाए, तो सभी समस्याओं का हल हो जाएगा। हिटलर ने यहूदियों के साथ जो किया, उसके लिए हिटलर को कभी माफ नहीं किया गया। हिटलर को जालिम और यहूदियों को मजलूम माना जाता है।

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एडोल्फ हिटलर 1933 में र्जमनी की सत्ता में आया था। उसने यहूदियों को इंसानी नस्ल का हिस्सा नहीं माना। 1939 में र्जमनी द्वारा दूसरा विश्व युद्ध भड़काने के बाद हिटलर ने यहूदियों को जड़ से मिटाने के लिए अंतिम हल यानी ‘फाइनल सोल्यूशन’ के तहत एक-एक यहूदी को मारने का बीड़ा उठाया था। यहूदियों का कत्लेआम करने के लिए उन्हें विशेष कैंपों में लाया जाता और बंद कमरों में जहरीली गैस छोड़कर उन्हें मार डाला जाता। दूसरे विश्व युद्ध की समाप्ति के बाद जो दस्तावेज सामने आए हैं, उनसे पता चलता है कि हिटलर दुनिया में एक भी यहूदी को जिंदा नहीं देखना चाहता था। दस्तावेज कहते हैं कि छह साल में नाजियों ने लगभग 60 लाख यहूदियों को मार डाला, जिनमें 15 लाख बच्चे भी थे। हालांकि इसका कोई सटीक जवाब आज तक नहीं मिल पाया है कि हिटलर को यहूदियों से इतनी नफरत क्यों थी? लेकिन माना जाता है कि र्जमनी यह मानते थे कि यहूदियों की हर हाल में र्जमनों की मुखालफत करने की नीति रही है, इसलिए यहूदियों को खत्म कर दिया जाए, तो सभी समस्याओं का हल हो जाएगा। हिटलर ने यहूदियों के साथ जो किया, उसके लिए हिटलर को कभी माफ नहीं किया गया। हिटलर को जालिम और यहूदियों को मजलूम माना जाता है।

दुनिया में यहूदियों का अपना कोई मुल्क नहीं था। 1914 तक फलस्तीन में पांच लाख अरब और यूरोप से आए करीब 65,000 यहूदी रहते थे। फलस्तीन उस दौरान टर्की के आॅटोमन साम्राज्य का हिस्सा था। दुनिया में भटक रहे यहूदियों से 1917 में ब्रिटेन के तत्कालीन विदेश मंत्री लॉर्ड बलफोर ने यहूदियों से वादा किया था कि फलस्तीन उन्हें दे दिया जाएगा। 1922-39 के बीच यूरोप से तीन लाख से ज्यादा यहूदी फलस्तीन पहुंचे, जिससे यहूदियों का अरबों से टकराव हुआ, लेकिन ब्रिटेन ने अरबों के विरोध को सख्ती से कुचल दिया। 15 मई, 1948 को इस्राइल को देश का दर्जा दे दिया गया। इस्राइली सेना ने अरबों के विरोध को बेरहमी से कुचल डाला। नतीजा यह हुआ कि लाखों फलस्तीनी शरणार्थी कैंपों में पहुंच गए। इसका मतलब यह हुआ कि हिटलर के सताए ‘मजलूम’ यहूदी फलस्तीन में ‘जालिम’ की भूमिका में आ गए। आहिस्ता-आहिस्ता इस्राइल ने फलस्तीन के दूसरे इलाकों पर कब्जा करना शुरू किया। अरब आबादियों में यहूदियों को बसाने का काम शुरू किया। एक वक्त ऐसा भी आया कि इस्राइल ने फलस्तीनियों को एक तरह से कैद कर लिया।

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गाजा पट्टी फलस्तीनियों से लिए एक जेल की तरह है। गाजा में प्रवेश करने और बाहर जाने का एक ही रास्ता है। गाजा पर इस्राइल की 15 दिन से जारी बमबारी में 500 से ज्यादा लोगों, जिनमें ज्यादातर बच्चे हैं, के मारे जाने के बाद भी दुनिया चुप है। सोशल मीडिया में आई तस्वीरें कहती हैं कि यहूदी अवाम ऊंची पहाड़ियों से गाजा पर की जा रही बमबारी का नजारा देख रही है। उनके लिए यह एक पिकनिक की तरह है। शायद कभी इसी तरह र्जमन भी यहूदियों को मरता देखकर खुश होते होंगे। कैसी विडंबना है कि जिन यहूदियों को हिटलर जड़ से मिटाना चाहता था, वही यहूदी एक-एक फलस्तीनी को मार डालना चाहते हैं। हिटलर यहूदियों को सभी समस्याओं की जड़ मानता था, तो अब यहूदी फलस्तीनियों को ऐसा मानते हैं। नाजियों ने यहूदियों को गैस चैंबरों में भरकर मार डाला था, तो यहूदी इस्राइली सरकार फलस्तीनियों को मारने के लिए उस सफेद फॉस्फोरस और रासायनिक हथियारों का प्रयोग करती है, जिन पर अंतर्राष्ट्रीय कानून के तहत पाबंदी लगी हुई है। संभवत: इस्राइल एकमात्र ऐसा देश है, जिसे 10 साल से कम उम्र का बच्चा भी आतंकवादी नजर आता है, जिन्हें वह न केवल जेल में डाल देता है, बल्कि यंत्रणा भी देता है। ऐसे ही, जैसे हिटलर यहूदियों को सजा देता था। इस तरह देखें तो हिटलर और इस्राइली सरकार में क्या अंतर रह गया है? इस्राइल के प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतन्याहू में भी जैसे हिटलर की आत्मा आ गई है। उन्हें अंतरराष्ट्रीय कानूनों की कोई परवाह नहीं रही है। अमेरिका इस्राइल की पुश्तपनाही करता है और इस्राइल सरकार की हर ज्यादती का संयुक्त राष्ट्र संघ में बचाव करने के लिए वीटो का प्रयोग करता है। पिछले 66 सालों में कईमौके ऐसे आए हैं, जब संयुक्त राष्ट्र संघ ने इस्राइल के विरोध में प्रस्ताव पारित किए, लेकिन अमेरिका ने हर बार वीटो का प्रयोग करके उन्हें गिरा दिया।

भारत ने हमेशा ही फलस्तीन की आजादी की बात की है, लेकिन इस मामले में नई सरकार की नीति बहुत अलग है। यह छिपा नहीं है कि भारतीय जनता पार्टी इस्राइल में पक्ष में रही है। इसकी क्या वजह है, यह समझना भी मुश्किल नहीं है। हालिया गाजा संकट पर भारतीय जनता पार्टी सरकार इस्राल के पक्ष में है। विदेश मंत्री सुषमा स्वराज कहती हैं कि भारत किसी का पक्ष नहीं लेगा। क्या भारत सरकर ‘तटस्थता’ की आड़ लेकर इस्राइल के सर्मथन में खड़ी नजर नहीं आ रही है? संसदीय कार्य मंत्री वेंकैया नायडू ने तो इस्राइल-फलस्तीन संघर्ष को विपक्ष के लिए ‘अल्पसंख्यकों का मुद्दा’ ही बता डाला। विद्रूप यह है कि भाजपा इस्राइल और फलस्तीन को एक ही तराजू में तौल रही है। हैरतअंगेज तौर पर भाजपा जालिम और मजलूम को समान बता रही है। वह यह क्यों भूल रही है कि इस्राइल एक ताकतवर देश है। उसके पास आधुनिक हथियार हैं, इसके विपरीत फलस्तीन बिना फौज के है। यह ठीक है कि नरेंद्र मोदी सरकार इस्राइल का खुलकर विरोध नहीं कर सकती, लेकिन इतना तो कर ही सकती है कि वह इस्राइली बमबारी में मारे जा रहे निर्दोष लोगों की इत्या पर संवेदना प्रकट करे, खासतौर से बच्चों की हत्या पर। हालांकि अब भारत सरकार ने यूएनओ में इस्राइल के खिलाफ वोटिंग की है, लेकिन एक राजनीतिक दल के तौर पर भाजपा इस्राइल के साथ ही है।

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गाजा में इस्राइली दमन पर उन देशों को सामने आना चाहिए, जो शांति के पक्षधर हैं। शांति की दिशा में कोई प्रयास किए जा रहे हैं, ऐसा नजर नहीं आता। 66 साल से चल रहे इस्राइल-फलस्तीन संघर्ष का अंत होना बहुत जरूरी है। फलस्तीन को यह समझना होगा कि इस्राइल अब एक हकीकत है, जो बड़ी ताकत बन चुका है। फलस्तीन जैसा कमजोर देश शक्तिशाली इस्राइल को परास्त नहीं कर सकता। इन हालात में तो और भी ज्यादा जब दुनिया का कोई भी देश उसके साथ खड़े होने का जोखिम नहीं दिखा रहा है। सोवियत संघ के पतन के बाद जब से अमेरिका दुनिया की धुरी बना है, तब से तो शायद किसी देश में इतनी हिम्मत नहीं बची है कि वह फलस्तीन में जारी कहर की साफतौर पर निंदा भी कर सके।

 

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सलीम अख़तर सिद्दीकी 
Sub Editor: Dainik JANWNI
Meerut
[email protected]
09045582472

(फोटोः अस्पताल में एक घायल बच्ची को पकड़े फलस्तीनी व्यक्ति। ये बच्ची दक्षिण गाज़ा पट्टी में स्थित एक यूएन द्वारा संचालित स्कूल पर 24 जुलाई, 2014 को हुई बमबारी में घायल हो गई थी।)

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