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क्या दिल्ली में पाए जाने वाला सरोकारी संपादक नाम का जीव विलुप्त हो गया है?

सुना है कि देश की राजधानी दिल्ली में सरोकारी संपादक नाम का कोई जीव पाया जाता था. आजकल यह जीव विलुप्त हो गया है क्या? वैसे सरोकारी संपादक नाम की प्रजाति के जीव मीडिया हाउसों को खोलने का ठेका खूब लेते हैं. मीडिया कर्मियों के हितों का ठेका लेने की डींगें भी इस प्रजाति के जीव हांकते पाये जाते हैं. लगता है सोशल मीडिया पर शेर की तरह दहाड़ने वाले बड़का सरोकारी संपादक लोग बेरोजगार मीडिया कर्मियों की दिहाडी में लगी आग से हाथ गरम कर रहे हैं. एक के बाद एक न्यूज टीवी चैनल बंद हो रहे हैं. जर्नलिस्ट और नॉन जर्नलिस्ट्स के साथ-साथ चैनलों में काम करने वाले सैकड़ो कर्मचारी बेरोजगार हो रहे हैं.

सुना है कि देश की राजधानी दिल्ली में सरोकारी संपादक नाम का कोई जीव पाया जाता था. आजकल यह जीव विलुप्त हो गया है क्या? वैसे सरोकारी संपादक नाम की प्रजाति के जीव मीडिया हाउसों को खोलने का ठेका खूब लेते हैं. मीडिया कर्मियों के हितों का ठेका लेने की डींगें भी इस प्रजाति के जीव हांकते पाये जाते हैं. लगता है सोशल मीडिया पर शेर की तरह दहाड़ने वाले बड़का सरोकारी संपादक लोग बेरोजगार मीडिया कर्मियों की दिहाडी में लगी आग से हाथ गरम कर रहे हैं. एक के बाद एक न्यूज टीवी चैनल बंद हो रहे हैं. जर्नलिस्ट और नॉन जर्नलिस्ट्स के साथ-साथ चैनलों में काम करने वाले सैकड़ो कर्मचारी बेरोजगार हो रहे हैं.

पीएफ, ईएसआई का पैसा हड़पा जा रहा. दिन-रात बंधुआ मजदूरों की तरह काम करने के बाद महीने के आखिर में तनख्वाह के भी लाले पड़ रहे हैं. मगर, सरोकारी संपादक प्रजाति नाम के जीवों पर कोई असर नहीं है. अभी अभी किसी ने बताया कि सरोकारी संपादक नाम की प्रजाति ‘मालिक और मालिक नुमा’ चिटफण्डियों-माफियाओं-बिल्डरों, भ्रष्ट अधिकारी-ठेकेदारों की चाटुकारिता में लगे हुए हैं. कागजी शेर सरोकारी संपादक नाम के ये जीव, रहनुमायी मीडिया कर्मियों की और दलाली मालिकों की करते हैं. ये लोग तर्क भी खूब देते हैं. दलाली से ही तो चैनलकी तनख्वाह का जुगाड़ होता है.

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बात शुरु हुई है पी-7 न्यूज चैनल में कर्मचारियों के धरना-प्रदर्शन से. एक बार समझौता होने के बाद चैनल दुबारा शुरु हुआ और फिर अचानक बंद कर दिया गयाकर्मचारियों का बकाया दिये बगैर ही. पहली बार जब समझौता हुआ तो उसमें पुलिस-प्रशासन, लेबर कोर्ट सब शामिल हुए लेकिन सरोकारी संपादक नाम की प्रजाति का कोई जीव नहीं था. एक महाशय थे भी तो वो ऐसे गायब हुए हैं जैसे गधे के सिर से सींग गायब हो गये. अपनी मेहनत का वाजिब पैसा और हक मांगने वाले मीडिया कर्मियों के साथ खड़े होने की हिम्मत सरोकारी संपादक प्रजाति का कोई भी जीव अभी तक नहीं जुटा पाया है.

आईबीएन 7 से एक झटके में सैकड़ों मीडिया कर्मियों को बाहर का रास्ता दिखा दिया गया था. सरोकारी संपादक नाम की प्रजाति उस वक्त भी मजे लेती रही. जब महुआ चैनल को अचानक बंद किया गया उस वक्त भी सरोकारी संपादक नाम की प्रजाति की मोटी चमड़ी पर कोई असर नहीं हुआ. कुछ पहले के सालों पर निगाह डालें तो वीओआई ने सैकड़ों लोगों के भविष्य से खिलबाड़ किया, सरोकारी संपादक नाम की प्रजाति की नींद नहीं टूटी. एस वन, आजाद, जनसंदेश और अभी हाल में भास्कर चैनल में कर्मचारियों के भविष्य की ऐसी-तैसी कर दी, मगर सरोकारी संपादक नाम की प्रजाति कभी भी टस से मस नहीं हुई. इस प्रजाति के किसी जीव ने मीडिया कर्मियों के भविष्य को सुरक्षित करने का जोखिम उठाना मुनासिब नहीं समझा है. लायजनिंग, दलाली और कमीशन का टांका खत्म हो जाने का डर सताता है क्या?

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पी-7 के कर्मचारी पूस की रातों में हाड़ कपां देने वाली सर्दी के बीच धरने पर बैठे हैं. हमारे कागजी शेर-सरोकारी संपादक प्रजाति के जीव रजाइयों और ब्लोअर से बदन गरम कर रहे हैं. सरोकारी संपादक नाम की प्रजाति के जीव चिटफण्डियों-माफियाओं-बिल्डरों, भ्रष्ट अधिकारी-ठेकेदारों को सिलवर स्क्रीन के गोल्डन ड्रीम्स खूब दिखाते हैं. इनमें से कुछ  न्यूज चैनल शुरु करवाने के नाम पर तो कुछ चलचित्र, वृत्त चित्र के नाम पर अपने शो रूम लॉंच कर देते हैं. कुछ को तो कमीशन ही इतना मोटा आ जाता है कि तनख्वाह की जरूरत ही नहीं रहती तो कुछ सरोकारी संपादक शेयर होल्डर बन जाते हैं. कथित घाटे और मंदी की बेदी पर बलि मीडिया कर्मियों की ही दीजाती है.

दूरदर्शन को छोड़ दें तो भी हिंदुस्तान का इलैक्ट्रॉनिक मीडिया लगभग 20 साल पुराना हो चुका है. दो दशक बीत जाने के बाद भी इलैक्ट्रॉनिक मीडिया के कर्मचारियों के लिए कोई नियम-कानून नहीं बना है. भारतीय इलैक्ट्रॉनिक मीडिया के जर्नलिस्ट्स, भारत के वर्किंग जर्नलिस्ट एक्ट का कोई लाभ हासिल नहीं कर सकते. सरोकारी संपादक नाम की प्रजाति के बहुत सारे जीव प्रिंट और इलैक्ट्रॉनिक मीडिया में खूब दिखते-छपते हैं. गांव गली से लेकर दुनिया जहान के हित पर चीखते-चिल्लाते भी दिखेंगे. कम्युनल और नॉन कम्युनल पर व्याख्यानों का तो कोई जबाब नहीं. अल्पसंख्यक और बहुसंख्यक का मुद्दा हो तो गला फाड़ कर बोलेंगे और कलम तोड़ कर लिखेंगे. आदिवासी और नक्सली के विषय पर पूरी रिसर्च, अपनी पुरानी एक रिपोर्ट के सहारे, घर के कमरे में ही कर डालेंगे. आंखों के सामने- नाक के नीचे सैकड़ों मीडिया कर्मियों के भविष्य से हो रहे खिलबाड़ पर न तो दो कदम निकलते है, न दो शब्द जुबान से फूटते हैं और न दो शब्द कलम से निकलते हैं! क्या हो गया है, कहां गये हमारे सरोकारी संपादक !!! 

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लेखक राजीव शर्मा कई न्यूज चैनलों और अखबारों में वरिष्ठ पदों पर काम कर चुके हैं. उनसे संपर्क [email protected] के जरिए कर सकते हैं.

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0 Comments

  1. arun srivadtsva

    December 30, 2014 at 11:43 am

    Raajeev jee aapne sahara me varson navkree kee hai aur maalikaano Ke kaafee kareebee rahe hain . kaafee juniyar hone Ke bavjood aapko allahabad ka buvro cheef banana diyagayaa.sahara ne bhee think me karmcharee nikaale unkee aapne charchasnahee kee lagtaa hai namak ka hak adaaKar the hai …

  2. विचार

    December 29, 2014 at 8:18 pm

    आपने सरोकारी संपादक को जीव की संज्ञा दी है परन्तु यह जीव के लायक भी नही है …

  3. shrikantsharma

    December 30, 2014 at 12:34 pm

    अरुण जी, मैं राजीव जी की तारीफ करूंगा कम से कम सच्चाई को सार्वजनिक रूप से स्वीकार करने की हिम्मत तो दिखाई उन्होंने। कुछ लोग तो अपनी झूठी शान के चक्कर में पिसते चले आ रहे हैं। लेकिन हम लोगों की ये ही कमी हैं कि हम इनका साथ देने की जगह बुराई कर इनका मुंह बंद करने की सोचते हैंं। कहते हैं जब जागो तभी सवेरा लेकिन कुछ लोग तो कहते हैं भईया आप जागे ही क्यों। यार सारे मिलकर साथ आओं वरना कल बच्चों को अपने एतिहासिक किस्से ही सुनाकर खुश हो जाओंगे और कहोगे काश उस वक्त हमने कोई कदम उठाया होता तो आज तुम्हारा भविष्य भी उज्ज्वल होता।

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