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सुख-दुख

पत्रकारों का दमन कब तक?

चर्चा है कि जाने-माने पत्रकार और एक मीडिया हाउस के मालिक के घर पर इंकम टैक्स ने छापेमारी की है। इससे पहले एक और बड़े मीडिया हाउस के मालिक के घरों पर छापेमारी को सरकार द्वारा कथिततौर पर बदले और दमन की भावना से की गई कार्रवाई बताया है। इसके अलावा दो पत्रकारों को नौकरी से निकाले जाने की चर्चा गर्म रही थी।

किसी भी पत्रकार के साथ होने वाली दमनकारी कार्रवाई का हर स्तर पर विरोध होना चाहिए। हम निजी तौर पर हर पत्रकार के साथ हैं और अपने सभी पत्रकार साथियों से अपील करते हैं कि संघठित होकर अपने अधिकारों और सम्मान की रक्षा करें। अगर किसी को किसी से कोई शिकायत है भी तो कृपया आपसी मतभेदों को भूलकर संघठित होंना बेहद ज़रूरी है।

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लेकिन सवाल ये है कि क्या इस तरह की कार्रवाई पहली बार हुई है। साथ ही सवाल ये भी है कि क्या कुछ चुनिंदा लोगों के खिलाफ होने वाली कार्रवाई पर ही विरोध या प्रतिक्रिया सामने आती है। छोटे, गरीब या दूर दराज़ के पत्रकार, पत्रकार नहीं होते।अगर किसी पत्रकार को राजनीतिक या किसी कॉर्पोरेट का संरक्षण नहीं मिला है तो उसको पत्रकार नहीं माना जाएगा।

लेकिन आज कई पत्रकारों की हत्या या संदिग्ध मौत या दमनकारी कार्रवाई पर खामोश रहने वाले इस वर्ग से आज हम भी ये पूछना चाहते हैं कि 3 मई 2011 को मेरे और मेरे परिवार को लगभग बर्बाद करने के लिए मेरे समाचार पत्र, प्रिंटिग प्रेस को सील कर दिया गया। अवैध रूप से और मेरे खिलाफ कई थानों में कई कई एफआईआर दर्ज कर दीं गईं।

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मेरे घर की बिजली और पानी बंद कर दिया गया। मुझको मजबूर करने के लिए मेरे भाई को पुलिस ने उठा लिया। 85 साल के बुजुर्ग और केंंद्रीय मंत्रालय सें रिटायर्ड कर्मचारी मेरे पिता पर फर्जी एफआईआर दर्ज करा दी गईं। मेरा जीवन खत्म करने और मेरे परिवार को रात दिन टार्चर करने वाली पुलिस और गुंडों का तंत्र बेखौफ था। मैं इन बेईमानों के सामने झुकने के बजाय लड़ने का मन न बनाता, अपनी जान को दांव पर न लगाता। मैं अगर हाइकोर्ट न जाता, प्रेस काउंसिल ऑफ इंडिया के रि. जस्टिस काटजू सख्त फैसला न लेते और मेरा साथ अगर मेरे पत्रकार साथी और मेरे दोस्त और लगभग हर राजनीतिक दल के लोग (जिन्होने बाकायाद सर्वदलीय प्रदर्शन किया था) न देते तो शायद मैं आज आपके सामने न होता।

बेहद अफसोस के साथ आपको बता दूं कि मैंने इन कथित बड़े पत्रकारों से निजी तौर पर संपर्क किया था और मीडिया के भिड़तु, बेखौफ और बेबाक पत्रकार यशवंत के भड़ास ने सभी से मेरी मदद के लिए कोशिशें कीं थी। लेकिन इनमें से किसी ने भी मेरी मदद तो दूर ख़बर तक चलाने की हिम्मत नहीं दिखाई थी। नाम बताऊंगा तो आपको समझ आ जाएगा कि ये लोग कितने खोखले और सरकारी पिठ्ठू हैं।

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आज इनके खिलाफ कार्रवाई होती है तो ये पत्रकार बन कर समाज की सहानुभूति लेने की बात करते हैं। इन्होंने कितना कमाया या पत्रकारिता के नाम पर क्या किया ये सबको पता है।  लेकिन सवाल ये है कि क्या दूर दराज में पत्रकारिता कर रहे या बिना किसी संरक्षण के गरीब पत्रकारों के लिए कोई आवाज़ देशभर में है भी या नहीं। इन कथित बड़े पत्रकारों के पास अपना लीगल सिस्टम है, लेकिन हम जैसे कमजोर लोग निजी तौर पर लड़ने को मजबूर हैं। शायद अब समय आ गया है कि हम जैसे कमजोर और आम से पत्रकारों को भी संघठित होकर अपने सम्मान और अपने अधिकारों के लिए खड़ा होना होगा। ताकि समाज और देशहित की हमारी लड़ाई में कोई ताकत हमको दबा न सके।

(लेखक आज़ाद खालिद टीवी पत्रकरा है। डीडी आंखो देखीं सहारा समय, इंडिया टीवी, इंडिया न्यूज़, वॉयस ऑफ इंडिया सहित कई नेश्नल चैनलों में महत्वपूर्ण पदों पर कार्य कर चुके हैं। वर्तमान में जे.के 24×7 में बतौर सीनियर एडिटर कार्ररत हैं।)

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