प्रदीप कुमार-
वीरेंद्र यादव: मेरे पढ़ाकू दोस्त… 1967 की जुलाई का दूसरा हफ्ता। लखनऊ विवि के पीजी ब्लाक में अंग्रेजी विभाग के सामने कारिडोर में चीवरधारी युवक और युवती से एक छात्र बातें कर रहा था। विवि में पहले दिन,अंग्रेज़ियत के माहौल में थोड़ा सहमा-सहमा, चीवरधारियों से सहज रूप से आकर्षित होकर, अपना नाम बताते हुए मैं भी शामिल हो गया । चीवरधारी श्रीलंका के भाई-बहन थे और तीसरे थे वीरेंद्र यादव। बीए प्रथम वर्ष में हम दोनों की तरह, भाई-बहन का भी एक विषय अंग्रेजी साहित्य था। वीरेंद्र और मेरे अन्य दो विषय थे- अर्थशास्त्र व राजनीतिविज्ञान। भिक्षु-भिक्षुणी कुछ मिनट बाद अपने रास्ते चले गए और एक पीरियड खाली होने के कारण हमारा बातों का सिलसिला शुरू हो गया। गांव से लेकर लखनऊ तक,पढ़ाई-लिखाई और न जाने क्या-क्या! विवि के साइकिल स्टैंड पर अलग-अलग दिशाओं से हम अकसर एक साथ पहुंच कर साढ़े तीन बजे आखिरी पीरियड के बाद निकलते थे। मौलवीगंज मोड़ पर हमारी बातें रुक जातीं; वह अपने आवास, 19, लश्करी रकाबगंज चले जाते और मैं नौबस्ता की ओर, जहां मैं बड़ी बहन के साथ रहता था। तीनों कक्षाओं में हम अगल-बगल बैठते।
एक दिन सार्वजनिक पुस्तकालय की बात करते-करते वीरेंद्र ने मुझे गोमती बंधे के किनारे स्थित आचार्य नरेंद्र देव पुस्तकालय पहुंचा दिया। विराट पुस्तक भंडार और रीडिंग रूम को देखकर मैं विस्मित हो गया।
सहपाठ की सीमाएं जल्दी टूटीं और हम हमसाया-सा बन गए। कुछ ही हफ्तों में हालत यह हो गई कि अगर किसी दिन वह या मैं विवि न आते तो परिचित और सहपाठी मूक भाषा में हाथ उठाकर पूछते, वह कहां रह गए ? अर्थशास्त्र विभाग में प्रवक्ता डा॰ प्यारेलाल रावत और डा॰ एनएन श्रीवास्तव का भी यही अंदाज़ होता। अर्थशास्त्र और अंग्रेजी के क्लास में हम प्रायःअगली बेंचों पर बैठते।राजनीति विज्ञान विभाग में मसलहतन सबसे पीछे । वजह यह थी कि राजनीतिक विचारकों-दार्शनिकों का पेपर पढ़ाने वाले डा॰ राजेंद्र अवस्थी को छोड़ अन्य किसी के क्लास में सुखानुभूति नहीं होती थी।वे बिना किसी परिप्रेक्ष्य के यांत्रिक ढंग से पढ़ाते थे । हम बैकबेंचर लिख-लिखकर गपशप करते, नवीनतम राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय घटनाओं पर नियमित टिप्पणी होती और उबाऊ टीचरों का छिद्रान्वेषण।तकरीबन रोज़ हम नरेंद्र देव पुस्तकालय जाते।
पुस्तकालय का रीडिंग रूम शानदार था;लखनऊ और दिल्ली के हिंदी-अंग्रेजी के सभी अखबारों के साथ ही, टाइम, न्यूजवीक और प्रमुख भारतीय पत्रिकाएं उपलब्ध रहतीं। बड़े-से रीडिंग रूम में दो-चार को छोड़कर अकसर सन्नाटा रहता। सर्वाधिक लाभार्थी यही दो पाठक होते।उन दिनों हजरतगंज में हनुमान मंदिर के पास जमीन पर अखबारों-पत्रिकाओं की दुकान सजी रहती थी। जिस दिन पुस्तकालय जाना न होता, इस दुकान पर हम अंग्रेजी के अखबार पलटते और संपादकीय पेज की गुणवत्ता के मद्देनजर एक अखबार खरीदते।
महीने में बीस-पच्चीस दिन ‘इंडियन एक्सप्रेस ‘ या कोलकाता का ‘ द स्टेट्समैन ‘ होता। अंग्रेजी बेहतर बनाने के लिहाज से ‘द स्टेट्समैन ‘ बढ़िया अखबार था। जब-तब हम क़ैसरबाग स्थित अमीरुद्दौला लाइब्रेरी जाते। मासिक’ मदर इंडिया’ ,चक्रवर्ती राजगोपालाचारी का साप्ताहिक ‘स्वराज्य’, कार्टून पत्रिका ‘शंकर्स वीकली ‘ सिर्फ यहीं मिलते थे। ‘मदर इंडिया ‘ में, संपादक डा॰ बाबूराव पटेल का छह पेज का ‘ क्वेश्चन-आंसर ’ कालम हम एकसाथ पढ़ते। साफ्ट अश्लीलता के रस में डूबे इस कालम की राजनीतिक शब्दावली का अपना मज़ा था। मुंबई के कुछ वरिष्ठों ने बताया था कि ‘ मदर इंडिया ‘ बिकती ही इसी कालम की वजह से थी। अमीरुद्दौला लाइब्रेरी के ‘ रेयर बुक्स ‘ सेक्शन में पुरानी, दुर्लभ और कुछ अत्यधिक मांग वाली नई किताबें रहती थीं, जिन्हें वाचनालय में ही पढ़ा जा सकता था। पाकिस्तान के फौजी तानाशाह, जनरल अयूब खान की हालिया प्रकाशित, आत्मकथा ‘फ्रेंड्स नाट मास्टर्स ‘ लाइब्रेरी की बालकनी में बैठकर हमने एक साथ पढ़ी थी।
इन्हीं गतिविधियों में बीए प्रथम वर्ष बीत गया। अंग्रेजी के माध्यम से अर्थशास्त्र और राजनीति विज्ञान की पढ़ाई का साहसपूर्ण निश्चय भी हमने किया था। परीक्षा के बाद हम गांव के पतों पर हफ्ते में औसतन दो बार चिट्ठियां लिखा करते।न तो उससे पहले और न उसके बाद- अंग्रेजी में हमने इतने पत्र लिखे होंगे। वीरेंद्र के पास अब भी कुछ पत्र हैं। इन पत्रों में व्यक्तिगत या पारिवारिक मुद्दों को छोड़ दुनिया-जहान की बातें हुआ करतीं। खतों की आमदरफ्त देखकर गांव के पोस्टमास्टर ने जिज्ञासा दिखाई थी,’ लड़के के नाम से कोई लड़की लिखती है क्या ? ‘
दूसरे साल बढ़ती नजदीकी ने औपचारिकताएं काफी हद तक दूर कर दीं और मैं वीरेंद्र के घर जाने लगा। बैठके में बाबू जी की स्थायी मुस्कान स्वागत करती। दो-चार बार जाने के बाद मैं पूरे परिवार में घुल-मिल गया। अम्मा, चंद्रकला दीदी, छोटी बहन शशिकला, हाफ पैंट में घूमते, सबसे छोटे नागेंद्र और शेष दो भाई- सभी बड़ी बेतकल्लुफी से मिलते। सबके चेहरों पर मुस्कान होती। सचमुच एक दुर्लभ पारिवारिक गुण। मैंने महसूस किया था, इस परिवार में अन्य किसी आगंतुक को इतना स्नेह और अनौपचारिक व्यवहार कदाचित नहीं मिलता होगा। वर्षों बाद दिल्ली में चंद्रकला दीदी के असामयिक निधन का समाचार मिलने पर स्मित हास से समृद्ध उनकी छवि मेरी आंखों के सामने छा गई थी।
खट्टी-मीठी, ठंडी-गरम और कभी-कभी झगड़े जैसी आवाज़ में बातें करने की बेताबी हमें घर से बाहर खींच लाती। लश्करी रकाबगंज और मौलवीगंज के मध्य, करीब आधा किलोमीटर के दायरे में कई बिंदुओं पर हम खड़े-खड़े बतियाते रहते। इस क्रम में दो बार पिटने से भी बचे।एक बार उनके घर से पहले, तिराहे पर रात 11 बजे बहस चल रही थी कि फुटपाथ पर सो रहे एक आदमी की नींद टूट गई।उसने निखालिस अवधी में कहा,’ भागि जाव… ।‘ दूसरा वाकया मौलवीगंज के एक रेस्तरां का है। रात दस बजे हम अंग्रेजी में भिड़े हुए थे। बगल की मेज़ पर हमसे बड़े, दो युवा थे। अचानक एक आवाज़ गूंजी,’ साले अंग्रेज के चो… ।‘ मौलवीगंज के माहौल से बाखबर, हमने फौरन फूट लेने में ही भलाई समझी। वक्त-बेवक्त, उपयुक्त-अनुपयुक्त स्थानों पर बौद्धिक कुश्ती से हम फिर भी बाज नहीं आए।
इन्हीं वार्ताओं के दौरान वीरेंद्र ने एक बार अपने उपन्यास-प्रेम की चर्चा की थी। इसका भावार्थ मैंने यह निकाला था कि आगे चलकर यह अपनी जगह बनाएंगे। तब तक वह यशपाल, मोहन राकेश, धर्मवीर भारती, कमलेश्वर, राजेंद्र यादव और कृशन चंदर आदि से अच्छी तरह वाकिफ हो चुके थे। साथ में अंग्रेजी के भी कई उपन्यास।आश्चर्य नहीं होना चाहिए, क्योंकि कक्षा पांच में ही गहन अध्ययन में उनकी अभिरुचि विकसित होने लगी थी। आठवीं कक्षा पास करने से पहले प्रेमचंद और यशपाल के कहानी संग्रह भी पढ़ डाले थे। नुक्कड़ बातचीत में अपने कुछ बनने के प्रति आत्मविश्वास व्यक्त करने के समय लगभग अठारह साल के वीरेंद्र की निर्मिति का प्रारंभिक चरण था,हालांकि उनका मन पत्रकार बनने का था। कुछ लोग भरपूर आत्मविश्वास को बड़बोलापन कह सकते हैं। मेरा मानना है, अल्लामा इक़बाल के शब्दों में ‘ ख़ुदी को बुलंद ‘ करने का रास्ता सबके सामने होता है और अपनी शख्सियत बनाने, उसमें भरोसा रखने व उसे जताने का तरीका एक नहीं हो सकता।
विद्यार्थी जीवन में ही टामस हार्डी ,चार्ल्स डिकेंस, जवाहर लाल नेहरू की ‘डिस्कवरी आफ इंडिया’ और ‘ ऑटोबायोग्राफी’ कम लोग पढ़ पाते हैं।टैगोर लाइब्रेरी के लान में जाड़े की गुनगुनी धूप में एक दर्जन से अधिक गंभीर पुस्तकें हम लोगों ने बीए के वर्षों में साथ-साथ पढ़ी हैं। ख्वाजा अहमद अब्बास की कहानियों के अलावा ‘रिटर्न आफ द रेड रोज़‘ और ‘लाल हवेली ‘( शिवानी ) मुझे अब भी याद हैं। रचनाकारों की दुनिया में पच्चीस की अवस्था से पहले ग्रामशी की ‘ प्रिज़न डायरी’ पढ़ चुके या ‘ सोशलिस्ट रजिस्टर ‘के नियमित पाठकों की संख्या बेशक अति सीमित होगी।
विश्व विद्यालय के प्रारंभिक दिनों में ही , हजरतगंज स्थित भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी की किताबों की दुकान, चेतना बुक डिपो में जाना तीर्थ-यात्रा जैसे भाव के साथ होने लगा था। वीरेंद्र के बौद्धिक व्यक्तित्व को ढालने और वैचारिक यात्रा सुनिश्चित करने में मेफेयर बिल्डिंग की ग्राउंड फ्लोर पर राम आडवाणी की कुलीनतंत्री बुकशाप ( वीरेंद्र अगर कवि होते तो इसके बंद होने पर शोकगीत अवश्य लिख डालते ) से अधिक इस दुकान का बड़ा योगदान रहा है। क्रिस्टोफर काडवेल से परिचय यहीं हुआ था। अपने आपमें खासे बौद्धिक, दुकान के प्रबंधक दिलीप बिस्वास के मुख से स्पेन के फासिस्ट विरोधी गृहयुद्ध में काडवेल की शहादत की वीरगाथा सुनते हुए हमारे नेत्र श्रद्धा के आंसुओं से डबडबा उठे थे। सबालटर्न और साहित्य में सबालटर्न को समझने की प्रक्रिया भी इन्हीं दिनों शुरू हो चुकी थी। भारत में जाति व्यवस्था के विश्लेषण का मार्क्सवादी नज़रिया भी यहीं से विकसित हुआ। मार्क्सवादी साहित्य के अध्ययन और मार्क्सवादी अप्रोच का लाभ वीरेंद्र को यह हुआ कि एक हुनरमंद लोहार की तरह वह भारत के संदर्भ में वैज्ञानिक समझ और साहित्य की मजबूत वेल्डिंग करते रहे हैं। यह दुस्तर कार्य है,क्योंकि मार्क्सवादी साहित्य की गहरी पढ़ाई कर चुके कुछ नामी-गिरामी रचनाकार भी समाज में खड़ी संकीर्णता की प्राचीरों को नहीं तोड़ पाए हैं या तोड़ने के उत्सुक ही नहीं रहे हैं। वीरेंद्र के वैचारिक नैरंतर्य का राज़ प्रारंभिक अवस्था में सही दिशा पकड़ लेने में है। कम्युनिस्ट पार्टी से औपचारिक रिश्ते न रहने पर भी वह सैद्धांतिक भटकाव से इसीलिए बचे रहे हैं।
वीरेंद्र की पुस्तकों में प्रकाशित सामग्री से पाठक परिचित हैं; कम ज्ञात तथ्य यह है कि साहित्य एवं साहित्येतर किताबों के अपार विश्व में उनकी अनंत यात्रा 74 की उम्र में भी जारी है। रचनात्मक कार्य के दबाव या शारीरिक क्षमताओं में कमी की वजह से वह उतना नहीं पढ़ पाते, जितनी उनकी लालसा रहती है।फिर भी श्रेष्ठ पुस्तक खरीदने से वह अपने को रोक नहीं पाते। हर साल पुस्तक मेले में आने का सबब बौद्धिक सक्रियता और लेखकीय-मिलन से आगे जाता है। राम आडवाणी की दुकान बंद होने की मुश्किल भरपाई में,दिल्ली में रह रहे उनके बेटे नवेंगित या कुछ मित्र योगदान करते हैं।
पढ़ाई-लिखाई से अलग,वीरेंद्र के बौद्धिक जगत का दूसरा क्षेत्र है फेसबुक,जिसे बहुत सारे लोग आभासी दुनिया कहते हैं। अगर हजारों ‘ फ्रेंड और फ़ालोअर ‘ हों, तो आभासी दुनिया में खुदी-बेखुदी की नशीली अनुभूति अनिवार्य हो जाती है मगर वह रहती है आभासी दुनिया ही। करीब बारह साल से फेसबुक पर सक्रिय अपने कामरेड ने बेशक महत्वपूर्ण और प्रासंगिक साहित्यिक-सामाजिक-राजनीतिक हस्तक्षेप किए हैं। जब भिन्न नज़रिये के लिए गुंजाइश न रहे तब इस माध्यम की जरूरत और बढ़ जाती है। इनके ‘ फ्रेंड्स और फालोअर्स ‘ में अनेक काबिल,पढ़े -लिखे और श्रेष्ठ रचनाकार हैं एवं उनकी प्रतिक्रियाओं का भी खासा योगदान है।परंतु वीरेंद्र के लिए ज़ाती तौर पर दूसरा पहलू यह है कि उनके लेखकीय व्यक्तित्व का क्षरण होता रहा है। एक गंभीर अध्येता अगर घंटों आभासी ग्रह में विचरण करता रहे, तो भिन्न परिणाम नहीं हो सकता।मेरा मत है कि उनका लिखित कार्य उनके अध्ययन,बौद्धिक स्पष्टता,क्षमता और दुर्लभ पुस्तक भंडार में मौजूद ज्ञान के अनुरूप नहीं है। उनके 75 वें जन्मदिन पर कामना की जाए कि वह अपने मैगनम ओपस,एक कालजयी ग्रंथ पर एकाग्रचित्त हो जाएं। देर आयद, दुरुस्त आयद ।