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उत्तर प्रदेश

यूपी के प्रमुख सचिव संजय प्रसाद का यह पत्र शासन-प्रशासन की नाकामी और भ्रष्टाचार छुपाने के लिए है!

राधेश्याम दीक्षित-

लोकतंत्र के चौथे स्तंभ पत्रकारिता संस्थानों की स्वतंत्रता पर कुठाराघात… प्रमुख सचिव संजय प्रसाद का यह पत्र स्पष्ट तौर पर दुर्भावना दिखाने और शासन प्रशासन की कारस्तानियों, नाकामियों, भ्रष्टाचार और कदाचार को छुपाने, दबाने के लिए आगे किया जा रहा है। पत्रकार और पत्रकारिता की आड़ में चोरी, धोखाधड़ी करने वालों की कारगुजारियों के लिए कोई वास्तविक पत्रकार या पत्रकारिता संस्थान जिम्मेवार नहीं हो सकता।

यह प्रकरण पूरी तरह कानून व्यवस्था का है। ठीक उसी तरह, जैसे
फर्जी IAS फर्जी PCS फर्जी नेता/विधायक/सांसद/मंत्री फर्जी ATS/STF फर्जी CBI/कोई भी अधिकारी बनकर धोखाधड़ी करे तो उसके लिए जिसके नाम से फर्जी काम किया गया वह जिम्मेदार नहीं होता, ठीक वैसा ही यहां भी है।

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मैं इस फरमान की आड़ में अपने असली मकसद यानि मीडिया हंटिंग को अंजाम देने की कुत्सित कोशिश का विरोध करता हूँ।

कारण यह है कि यदि कोई सुधारात्मक प्रयास का इरादा होता तो प्रमुख समाचार पत्रों, मीडिया संस्थानों और स्वतंत्र पत्रकारों के साथ समाधान के प्रयास होते। विचार होता, उदाहरण स्वरूप कुछ प्रकरण रखे जाते, जिन पर स्पस्ट रूप से चर्चा होती कि आखिर किन समाचारों में कौन से तथ्य अनुचित या बे सिर पैर के हैं।
और उन खबरों के सामने आने के बाद संबंधित व्यक्ति/अधिकारी/ विभागाध्यक्ष ने लिखित रूप में कोई स्पस्टीकरण जारी किया है। यदि नहीं तो सिर्फ गाल बजाने से क्या होगा।

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उदाहरण के लिए—
-जब लेखपाल अपराधी है तो क्या लिखा जाएगा।
-जब जिलाधिकारी किसी मामले का कोई संज्ञान नहीं ले रहा तो क्या लिखा जाएगा।
-जब तहसील दिवस और थाना दिवस में अनेकों मामले बार बार आने के बाद भी समाधान की दहलीज पर नहीं पहुंचते तो क्या लिखा जाएगा।

  • जब हर थाना भ्रष्टाचार में आकंठ डूबा है तो क्या लिखा जाएगा। क्या व्यवस्था किसी ही योजना, विभाग, इकाई के बारे भ्रस्टाचार मुक्त होने का श्वेत पत्र जारी करने का माद्दा रखती है, यदि हाँ तो जारी करें।
  • क्या सूचना एवं जनसंपर्क विभाग दूध का धुला है।
  • क्या बड़े अखबारों और चैनलों को भारी विज्ञापन उनके सिर्फ सकारात्मक खबरें चलवाने के लिए ही नहीं दिए जाते।
  • क्या सर्वोच्च न्यायालय और उच्चतम न्यायालयों के सभी आदेशों और निर्देशों पर अमल शुरू हो गया है।
  • क्या 2012 में लागू हुई नागरिक संहिता पूरी तरह लागू हो गयी।
  • क्या गृह विभाग की नागरिक संहिता के मुताबिक फरियादी के आवेदन पर पहले FIR दर्ज किए जाने के कानून का सभी थानों में अमल शुरू हो गया है।
  • अगर यह नहीं हुआ है तो कोई भी पत्रकार इन विषयों को सकारात्मक कैसे लिखे, और भला क्यों लिखे ?
  • आखिर क्या कारण है कि सभी जनपदों में बेहिसाब कुकुरमुत्तों की तरह उगे अप्रमाणित, बिना किसी मानकों के वसूली कर्म वाले कथित पत्रकारों को जिलाधिकारी और CDO ज्यादा तरजीह देते हैं। जब चापलूसों को संरक्षण स्वयं IAS और IPS सिर्फ महिमामंडन और गुड वर्क छपवाने दिखाने वाले ही चाहिए तो भला स्थिति में सुधार कैसे होगा ?

और हाँ यदि आपको ऐसे प्रकरण जो तथ्यहीन केवल नकारात्मक अवधारणा से किए गए हों तो आपने ऐसी कितनी शिकायतें प्रेस काउंसिल ऑफ इंडिया यानी भारतीय प्रेस परिषद से की हैं, यदि नहीं तो क्यों ?

मेरी मांग है कि इस आदेश को तत्काल वापस लेकर माफी मांगे और भविष्य में लोकतंत्र के चौथे स्तंभ को कमजोर करने की जगह मजबूत करने की दिशा में काम करें।

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