मध्यप्रदेश में पत्रकारिता की मूर्धन्य हस्तियों के नाम पर स्थापित मध्य प्रदेश आंचलिक पत्रकारिता पुरस्कार प्रदेश के सभी अंचलों में से चुनकर निष्पक्ष पत्रकारिता कार्य की उत्कृष्ठता, पत्रकार द्वारा किये गये कार्य से समाज के मानस पटल पर पड़े प्रभाव और समय-समय पर जनहित में निर्णय लेने के लिए सरकार को मजबूर करने वाली प्रतिभावान हस्तियों को सम्मानित करने के लिए दिया जाने वाला एक प्रतीकात्मक सम्मान है। ऐसे पत्रकार, जिन्होंने धन, बल, सत्तासुख के इतर समाज के बीच में अपनी प्रतिभा के दम पर अपना मान सम्मान हासिल किया हो। लीक से अलग हटकर ऊंचाइयों को छुआ हो, ऐसे पुरस्कार पत्रकारिता की बुनियाद को सुदृढ़ ही नहीं करते अपितु देश की आने वाली पीढ़ी को एक प्रभावशाली सकारात्मक संदेश भी देते हैं।
परन्तु विगत 8 अप्रैल 2015 को राज्य सरकार के अधीन एक वित्तीय संस्थान की भव्य इमारत में वेतन भोगी श्रोताओं से भरे हॉल में मुख्यमंत्री के हाथो सम्मानित होने वाले महानुभावों की सूची देखकर तो नहीं लगता कि कभी किसी की हिम्मत भी हुई होगी कि जनहित के दृष्टिगत सरकार के किसी निर्णय पर उन्होंने कोई टिप्पणी की होगी। लगता है कि पुरस्कार चयन समिति ने पत्रकारिता प्रतिभा के तय मापदण्डों के विपरीत औद्योगिक और अन्तराष्ट्रीय स्तर की कंपनियों द्वारा संचालित समाचार पत्रों, टी.वी.चैनलों के वेतन भोगी पत्रकार नाम के कर्मचारी रहे एवं सरकार के अशासकीय सूचना वाहकों को उपकृत करने का कार्यक्रम था। पुरस्कार प्राप्त करने वालों में से कोई ऐसा नहीं, जिसके आलेख अथवा रिपोर्ट पर समाज या जनता जनार्दन का कोई भला हुआ हो।
आंचलिक पत्रकारिता पुरस्कार के नाम पर महानगरीय चकाचौंध में रचे बसे और सरकार के मुंह लगे लोगों को ही उपकृत किया गया है। मुख्यमंत्री सचिवालय, वरिष्ठ नौकरशाहों की चाटुकारिता करने वाले लोगों को पुरस्कार सूची में डालकर भरी महफिल में नजराना पेश किया गया है। महफिल के सरताज मुख्यमंत्री और उनकी योजनाओं के प्रचार मंत्री के साथ-साथ वो पूरा सरकारी दल बल भी था, जो सशुल्क वैतनिक आधार पर सरकारी तंन्त्रानुसार पत्रकारों को डराने धमकाने और पुचकारने का काम दिन रात करता है। इस भव्य माहौल में स्क्रीन पर्दे पर प्रदेश सरकार के मुखिया ही बार-बार दिखाये जा रहे थे।
वहीं आयोजन स्थल के बाहर एक दिन पूर्व केन्द्रीय मंत्री जनरल वी के सिंह की टिप्पणी की चर्चा सुर्खियों में थी। हालांकि ऐसा नहीं है कि अकेले केन्द्रीय मंत्री ने ही मीडिया को वेश्या कहा है। इसके पहले देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी मीडिया को बाजारू कह कर अपमानित कर चुके हैं। इसी प्रकार सत्तासीन सरकार के मंत्री हो या अन्य दर्जनों जनप्रतिनिधि ने अनेक बार अपने शब्दकोश के विश को मीडिया कर्मियों पर उड़ेला है। मगर मजाल है कि कोई भी वेतन भोगी पत्रकार कभी अपनी हिमाकत कर पाया हो कि मैं वेश्या अथवा बाजारू नहीं हूं। और न ही कोई रात दिन टी आर पी के लिए घुड़ दौड़ करने वाला समाचार चैनल और ना ही कोई अपने आपको देश का नं. एक बताने वाला किसी भी भाषा का समाचार पत्र। इससे और अधिक एक मीडिया कर्मी की शर्मिन्दगी क्या हो सकती है कि सरकार उसे वेश्या कह कर पुकारे। यह शब्द तो वेश्या भी सार्वजनिक स्थान पर सुनकर भड़क जायेगी। अर्थात आज भी कोई व्यक्ति वेश्या को मुंह पर वेश्या कहकर नहीं पुकार सकता है।
और अन्दर भव्यता के साथ अहसास कराया जा रहा था कि ये हमारे अपने बनाये हुए हैं। इतनी जिल्लत तो कोई स्वतंन्त्र आम नागरिक भी नहीं सहन कर सकता । तो यहां सब कुछ प्रायोजित तरीके से किया जा रहा है। स्पष्ट है, आखिर गुलामी कोई चीज है, चाहे अर्थ की हो या सरकार के टुकड़ों पर अय्याशी करने की अथवा और किसी तरह की।
स्वतंन्त्र भय मुक्त विचारक पत्रकार की कलम के तर्क से,
जहां बड़े-बड़े सत्ताधीशों के सिंहासन हिल जाते हैं।
मगर यहां तो लाखों पत्रकारों की भीड़ में बुत मौन स्तम्भ है।
जिनकी कलम कभी स्वाभिमान में न चली,
मगर चलेगी भी, चाटुकारिता, चारणभाटों जैसे गुणगान में,
यहां कोई गर्व की बात नहीं, और भान भी किसी को है नहीं,
यहॉ जिंदगी भी शर्मसार है गुलामी के जंजाल में।
पं. एस के भारद्वाज