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अंत में संपादक के सामने हाथ खड़ा कर दिया- मुझसे अखबार नहीं निकलेगा!

Bipendra Kumar

सुनील दुबे जी के निधन की खबर कल मिली। कई मित्रों का पोस्ट भी देखा।

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दुबे जी हिंदुस्तान (पटना) में लंबे समय तक मेरे संपादक भी रहे थे। दो या तीन पारी रही थी। मैं उन्हें एक व्यक्ति के तौर पर याद करता हूँ। उन्हें दिल का साफ व्यक्ति कह सकते हैं। अपनी पसंद, नापसंद को स्पष्ट रूप में बता देना वाला। मृदुभाषी भीतरघुन्नों से बेहतर होते हैं ऐसे लोग।

ऐसे उनसे टकराव की याद भी हैं। पहले कार्यकाल के शुरुआती वर्षों का मामला पदोन्नति से जुड़ा था। उनकी अनुशंसा पर एक सहकर्मी वरीय उपसंपादक के पद पर प्रोन्नत हुआ था।उनके निर्णय का हम कुछ साथियों ने खुलकर विरोध किया। वैसा विरोध अखबारी दुनिया मे पहले भी यदाकदा ही होता होगा।अब तो सवाल ही नहीं।

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हमलोगों की नजर में इस प्रोन्नति में योग्यता को नजरअंदाज किया गया था। कमसे कम 7-8 साथियों ने इसके खिलाफ कार्यकारी अध्यक्ष नरेश मोहन के पास लिखित शिकायत की। उंस वक्त नरेश मोहन अस्वस्थ चल रहे थे। उन्होंने मामले की जांच या जानकारी के लिए प्रकाशक-मुद्रक राजेन्द्र प्रसाद को पटना भेजा। हमलोगों ने दुबे जी के चैंबर में उनके सामने राजेन्द्र प्रसाद से अपनी शिकायत दर्ज की। लेकिन प्रबंधन तो प्रबंधन होता है। बाद में हमलोगों को तर्क दिया गया कि पदोन्नति योग्यता के साथ-साथ प्रबंधन का विशेषाधिकार भी है। खैर, इस विशेषाधिकार की हवा हमलोगों ने दूसरे तरीके से निकाल दी।

एक दो महीने बाद ही शायद ( ठीक ठीक समय याद नहीं) केंद्रीय बजट का दिन था। उसदिन हमारे चीफसब सुकीर्ति जी का वीकली ऑफ था। आमतौर पर बजट के दिन कोई वीकली ऑफ नहीं लेता। लेकिन संपादक के निर्णय की हवा निकालने के लिए सुकीर्ति जी ने ऑफ लिया। उनकी अनुपस्थिति में उसी पदोन्नत वरीय उपसंपादक ने शिफ्ट संभाला। टेलीप्रिंटर से टुकड़ों में आ रही खबरों (वित्त मंत्री के भाषण का टुकड़ा) को 30-40मिनट तक उलटता-पलटता रहा। और अंत में संपादक के सामने हाथ खड़ा कर दिया, “मुझसे अखबार नहीं निकलेगा।” उसके बाद दूबे जी ने मुझे शिफ्ट संभालने को कहा और बजट के दिन का अखबार निकलने के साथ- साथ पदोन्नति के निर्णय की असलियत भी दफ्तर में लोगों ने देखा। विरोध करने वालों में से कई का प्रमोशन कुछ समय बाद हुआ जिनमें मैं भी शामिल था।

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बाद के दिनों में वैसा टकराव नहीं हुआ कभी। उनके स्वभाव का प्रशंशक रहा । कुछ माह पहले तक फेसबुक पर मुलाकात हो जाती थी। वे लिखते नहीं थे लेकिन लाइक एवं कमेंट में नजर आ जाते थे।

उनकी स्मृति को नमन।

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वरिष्ठ पत्रकार बिपेंद्र कुमार की एफबी वॉल से.

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