-सुनीत निगम-
सुनील दुबे जी के निधन का समाचार अपने ही एक पुराने साथी से मिला। उनके सानिध्य में मुझे भी काम करने का मौका मिला। काम करने की पूरी आजादी देने के साथ ही ख़बरों पर बारीक नजर रहती थी।
उनके स्वभाव में गुस्सा नहीं था लेकिन बातचीत की शुरुआत जितने गुस्सैल अंदाज में करते थे, उतने ही सहज भाव से अंत। लखनऊ से जब 1996 में हिन्दुस्तान का संस्करण निकलना था तो उन्होंने अपनी टीम में अमर उजाला में कार्यरत लोगों को प्राथमिकता दी। इसी का नतीजा रहा कि उन्होंने अपनी टीम में जगह देकर बाराबंकी भेजा और जमकर काम करने का मौका दिया।
एक बार बहराइच की एक खबर पर बाराबंकी की अदालत में मुकदमा हो गया।आदरणीय संपादक जी की पेशी हो गई। नियत तारीख पर पहुंचे और बोले-जज जेल तो नहीं भेजेगा। तारीख हुई तो जज ने पांच मिनट तक अदालत के कठघरे में खड़े रहने की सजा सुनाई और मेरी स्कूटर के कागज पर मुहर लगाकर जमानत दे दी।
उनके साथ काम करने वाला ही टिक सकता था। मुझे नहीं लगता कि लखनऊ हिन्दुस्तान से उनके जाने के बाद वहां आज तक सुनील दुबे जैसा जिंदादिल इंसान सम्पादक आया हो। रिटायरमेंट के आखिरी दिनों में उन्हें दिल्ली भेज दिया गया तो एक दिन कार्यालय में मुलाक़ात करने गया। वही पुरानी मुस्कान के साथ काफी देर तक बात की, काफी पिलवाई और बोले मुझे याद है कि तुम्हारी ख़बरें सनसनीखेज होती थीं।
रिटायरमेंट के बाद भी उनसे फोन पर कई बार बात हुई, फेसबुक पर भी संपर्क बना रहा। अब तमाम यादें छोड़कर चले गए। पूरे कैरियर में कई संपादकों के साथ काम किया और उनसे कुछ न कुछ सीखा, उन्हीं में से एक थे आदरणीय सुनील दुबे… विनम्र श्रद्धांजलि…नमन…ईश्वर उन्हें अपने श्रीचरणों में स्थान दे…
Aanand kushawaha, ex Buero Chief Hindustan Auraiya
October 25, 2020 at 12:05 am
दुबेजी जितने श्रेष्ठ संपादक थे उतने ही अच्छे इंसान भी थे.उन्हें भुलाया नहीं जा सकता. ईश्वर उन्हें अपने चरणों में स्थान दें. विनम्र श्रद्धांजलि के साथ उन्हें शत शत नमन.