भाषा (ज़ुबान) की हैसियत मात्र एक माध्यम की होती है इससे अधिक कुछ नहीं। ये जो आप लोग उर्दू उर्दू और हिंदी हिंदी लगा रखे हैं ना, मुझे तनिक सा नहीं सुहाता है। आइए इस बात को दुसरे तरीके से समझते हैं। आप को तो मालूम ही होगा कि तौरात, ज़बूर, इंजील और क़ुरआन मजीद विभिन्न भाषाओँ में उतरी हैं, और वो वेद भी एक अलग भाषा में है जिन्हें हिन्दू भाई ईश्वर की वाणी मानते हैं आखिर अल्लाह/ईश्वर ने किसी एक भाषा को आसमानी भाषा घोषित करके ये सभी किताबें उसी एक भाषा में नाज़िल क्यों नहीं की? हमेशा, हर दौर की सब से बड़ी और दूरगामी भाषा को ही अपना माध्यम क्यों बनाया ? इसलिए ना कि अल्लाह का उद्देश्य ज़्यादा से ज़्यादा लोगों तक अपना संदेश पहुँचाना होता है न कि हमारी और आप की तरह किसी एक भाषा को मुक़द्दस (पवित्र) क़रार दे कर उसे अपनी मजबूरी बना लेना ! ध्यान रखिए, अधिक महत्त्व आप की बात और आप के सन्देश का होता है न कि उस माध्यम का जिससे आप अपना सन्देश पहुंचा रहे हैं। इसलिए कृपा करके “तहफ़्फ़ुज़े उर्दू” की राग अलापना बंद कीजिए, आप को किस ने रोका है अपनी तहज़ीब व सक़ाफ़त (संस्कृति) के साथ अपने दौर बड़े माध्यमों में शिफ्ट होने से?
याद रखिए कि अगर किसी देश की हुकूमत किसी भाषा को ठंडा करने की ठान ले तो हम और आप, आम लोग उसे नहीं बचा सकते। सत्ता पक्ष की भाषा ही हर युग की भाषा रही है। मगर क्या करेंगे, राजनीति आप को पसंद नहीं है, आप की नज़र में राजनीति करना गैरों का मौलिक अधिकार है, सत्ता से आप को एलर्जी हुए ज़माना बीत गया है, फिर भी आप चाहते हैं कि उर्दू का बोल बाला हो, उर्दू का इक़बाल बुलंद रहे ! आप के इस भोलेपन पर हज़ारों जानें क़ुर्बान ! आप की इन नेक इच्छाओं से तो ऐसा मालूम पड़ता है कि जब तक उर्दू ज़िंदा है तब तक आप भी ज़िंदा हैं, अगर उर्दू को कुछ हुआ तो उसी के साथ साथ आप भी अपनी जान क़ुर्बान कर देंगे ! हुज़ूर, आप के इस जज़्बे को मेरा सलाम।
अच्छा ये बताइए, आप मात्र उर्दू को ही मुसलमान बना कर उसी पर संतोष करके बैठ क्यों गए ? क्या अन्य भाषाएँ मुसलमान बनने की हक़दार नहीं हैं? आप बैठे रहिए एक भाषा को मुसलमान बना कर, मैं तो अब हिंदी को भी मुसलमान बनाने का संकल्प कर चूका हूँ। ऐसे क्या हैरत से आँखें फाड़ कर पढ़ रहे हैं? ऐसा क्या कह दिया मैं ने? क्यों, उर्दू मुसलमान हो सकती है तो हिंदी क्यों नहीं हो सकती मुसलमान? आप क्यों हिंदी के हिन्दू बने रहने पर अडिग हैं और खुश भी नज़र आ रहे हैं, क्यों ? इस्लाम के प्रचार का आप का दायित्व केवल उर्दू तक ही सीमित था क्या? आखिर आप क्यों नहीं चाहते की हिंदी भी मुसलमान हो जाए?
और हाँ, मुझ पर ये बेहूदा कटाक्ष मत कीजिएगा कि उर्दू का हो कर हिंदी को बढ़ावा दे रहा हूँ, बड़े आए है उर्दू के मुहाफ़िज़ बनने… आप कीजिए उर्दू का तहफ़्फ़ुज़ (रक्षा)…. उर्दू ने आप को इतना कुछ दिया है…. आप को प्रोफेसर, एडिटर, चैयरमैन….. क्या क्या न बनाया, आप नहीं करेंगे उर्दू की रक्षा तो फिर और कौन करेगा… लेकिन ढंग से कीजिए जो आप नहीं कर रहे हैं। मुझे मालूम है यह जो “तहफ़्फ़ुज़े उर्दू” का स्लोगन आप लगा रहे हैं ना, ये स्लोगन भी आप की जेब का एक साधन मात्र है, इसके लिए भी मोटा फंड जारी होता है, फिर आप नहीं लगाएंगे “तहफ़्फ़ुज़े उर्दू” का नारा तो और कौन लगाएगा? आप कीजिये अपने साधन और माध्यम की साधना और पूजा अर्चना, हम से न होगा, हम जैसे आम लोगों से ऐसे किसी स्लोगन की उम्मीद न ही करें तो बेहतर होगा। हम जैसे आम लोगों को क्या दिया है उर्दू या हिंदी ने ? 8-10 हज़ार की नौकरी! यही ना? उस पर भी महीने भर जानवरों की तरह काम करने के बाद वो 8-10 हज़ार इस भाव से मिलते हैं मानो तनख्वाह नहीं क़र्ज़ या खैरात मिल रहे हों!
इस आठ दस हज़ार की खैरात में ज़िन्दगी की ज़रूरतों और इच्छाओं से समझौता करते करते अब तो अब हमारे पेट की अंतड़ियां भी सिकुड़ने लगी हैं। तहफ़्फ़ुज़े उर्दू का नारा अब हम से न बुलंद हो सकेगा। अब हम से और न ढोया जाएगा उर्दू से वफादारी का ये बोझ। ये बोझ ढोते ढोते अब हमारी कमर टूटने लगी है, हमारे आसाब (तंत्रिका) जवाब देने लगे हैं, अब अगर हम ने इस बोझ को न उतार फेंका तो हमारा अंतिम संस्कार होना तय है। मुझे अपने वजूद (अस्तित्व) की रक्षा करने दीजिए…… जी हाँ, अपने आर्थिक वजूद की, अपने वैचारिक और शैक्षिक वजूद की…. अपने धार्मिक वजूद की। मुझे अपना वजूद प्यारा है, मैं अपने वजूद की रक्षा के लिए किसी भी भाषा को अपना साधन बना सकता हु। मैं अपने वजूद को किसी माध्यम या किसी भाषा का अविभाज्य अंग (लाज़िम व मल्ज़ूम) नहीं बनने दूंगा कि अगर सत्ता पक्ष या कोई और शक्ति उस माध्यम को ख़त्म करने पर तुल जाए तो मेरा वजूद भी खतरे में पड़ जाए!
Imamuddin Alig
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