Ravish Kumar : 300 मामले में गवाह बना सोमेश आपके हर भरोसे पर सवाल है…. क्या ऐसा संभव है कि कोई एक बंदा 250-300 केस में चश्मदीद गवाह हो? उसके 300 केस में फर्ज़ी गवाह होने के क्या मायने हैं? क्या इतना आसान है कि किसी के ख़िलाफ़ फर्ज़ी मामले बनाकर, फ़र्ज़ी गवाब जुटा कर अदालतों के चक्कर लगवा देना और कई मामलों में सज़ा भी दिलवा देना? आसान नहीं होता तो छत्तीसगढ़ का सोमेश पाणिग्रही 250-300 मामलों में गवाह कैसे बन जाता?
हिन्दुस्तान टाइम्स के रीतेश मिश्र की यह रिपोर्ट दहला देने वाली है। बहुत लोग इसे पढ़कर हंस सकते हैं मगर उन्हें भी पता नहीं कि वे या उनका कोई भी रिश्तेदार फ़र्ज़ी केस में फंसा दिया जा सकता है। आपसे कहा जाएगा कि अदालत में भरोसा रखिए। इंसाफ़ मिलेगा। आख़िर भारत में किसी को फर्ज़ी मुकदमें में फंसा देना इतना आसान क्यों हैं? क्या हम एक निष्पक्ष और पेशेवर पुलिस तक नहीं पा सकते हैं? क्या यही हम सबकी औकात रह गई है?
सोमेश पाणिग्रही बस्तर का रहने वाला है। 2013 में पहली बार पुलिस ने जुआ खेलने के मामले में गिरफ्तार लोगों के केस में गवाब बनने को कहा। ना नुकर करने के बाद गवाब बन गया और उसके बाद पुलिस से संबंध रखने के नाम पर गवाब बनता चला गया। पुलिस भी कैसी कि किसी को जानबूझ कर फर्ज़ी मामलों में गवाह बनाती रही।
सोमेश के बारे में कहा गया है कि सब जानते हैं कि इसे कुछ भी रटा दो, गवाही दे आता है। बस्तर का रहने वाला है सोमेश। सोमेश ने इस रिपोर्ट में कहा है कि कोर्ट में उसे हर मजिस्ट्रेट, वकील और पुलिसवाला जानता है। जुआ खेलने के मामले से लेकर अफीम की ज़ब्ती और माओवादी हिंसा तक के मामले में सोमेश चश्मदीद गवाह है। इसने कितनों की ज़िंदगी बर्बाद की होगी? पुलिस ने सोमेश का सहारा लेकर कितनों से पैसे लिए होंगे? इस खेल के पीछे परिवारों पर क्या गुज़री होगी?
यह कहानी हम सभी की चिन्ता के केंद्र में होनी चाहिए। भारत में किसी को भी फ़र्ज़ी मुकदमे में फंसा देना आसान है। वर्षों तक जांच और अदालती हेर-फेर की प्रक्रिया में किसी का जीवन बर्बाद हो जाता है। एक फ़र्ज़ी केस से पीछा छुड़ाने में लोगों के दस दस साल लग जाते हैं और सारी पूंजी बर्बाद हो जाती है। न्याय की उस जीत के लिए जिसे हासिल करने के लिए कोई अपना जीवन हार जाता है। कई बार सोचता हूं कि दस साल बाद मिली जीत उस व्यक्ति की जीत है या उस संस्था की जीत है जो हर दिन न्याय पाने की आस में आ रहे लोगों को हराती रहती है। हम जिसे न्याय की जीत कहते हैं दरअसल वह न्याय की हार है।
इस कहानी से मिलती जुलती हज़ारों कहानियों आपके आस-पास बिखरी हैं। एक बार जब उनके करीब जाएंगे तो सरकारों को लेकर ज़िंदाबाद करने का सारा जोश हवा में उड़ जाएगा। इस जोश का कुछ तो फायदा हो। क्या हमें सिर्फ सरकार और नेता ही चाहिए, व्यवस्था नहीं चाहिए? सोचिएगा ज़रा ग़ौर से।
एनडीटीवी के वरिष्ठ पत्रकार रवीश कुमार की एफबी वॉल से.