अनिल भास्कर-
पॉलिटिकल कवरेज में पक्षपात या पॉलिटिकल एजेंडे को आगे बढ़ाने के गम्भीर धतकर्म से इतर बाकी विषयों को लेकर भी आज मीडिया का बड़ा हिस्सा कन्फ्यूज्ड दिखता है। अपने पाठकों को क्या पढ़ाए? दर्शकों को क्या दिखाए? वो जो पाठक/दर्शक पढ़ना/देखना चाहते हैं या वो जो वास्तव में पाठकों/दर्शकों को पढ़ाया/दिखाया जाना चाहिए। दरअसल यही वह यक्षप्रश्न है जिसका उत्तर मीडिया हाउस की दिशा तय करता है। जनजागृति के जरिए समाज-राष्ट्रनिर्माण का संकल्प जीने वाला कोई भी जिम्मेदार मीडिया पाठकों-दर्शकों की पसंद-नापसंद को किनारे रखते हुए सिर्फ वही परोसने को प्रतिबद्ध रहता है जो देश और समाज के हित में हो।
लेकिन विडम्बना देखिए। व्यावसायिक दवाब और नकारात्मक प्रतिद्वंद्विता उन्हें यह तय करने का अवसर ही नहीं देती कि समाज की सेहत के लिए कौन सी खबरें या कंटेंट जरूरी हैं। इसलिए आज ज्यादातर मीडिया संस्थान अपना कंटेंट इस आधार पर तय करते मिलेंगे कि पाठकों या दर्शकों की रुचि किसमें है। नतीजा यह कि ज्यादातर न्यूज चैनल अब सूचित या जागरूक करने से ज्यादा मनोरंजन करते दिखने लगे हैं। वे ऐसे हल्के कंटेंट को प्रमोट करने लगे हैं जो दर्शकों को गुदगुदाता हो, रोमांचित करता हो, उसकी अभिरुचि को सहलाता हो या फिर डराता हो।
कुछ हद तक यह बौद्धिक विकलांगता अखबारों से भी झलकने लगी है। किसी भी अखबार को उठाकर देख लीजिए, खबरों के नाम पर ऐसी सामग्री के भरपूर दर्शन होंगे, जिनकी न तो हमारे ज्ञानकोष में इजाफा करने में कोई भूमिका होगी, न ही मानस रचने में। ये खबरें किसी भी स्तर पर उपयोग लायक नहीं मिलेंगी। हां, थोड़ी देर के लिए आपका मनोरंजन भले हो जाए। दो-ढाई दशक पहले दिल्ली में ही खूब बिकने वाले एक हिंदी दैनिक ने पहले पन्ने पर बिंदास और कामुक तस्वीरें छापकर पाठकों की पहली पसंद बनने का सपना संजोया, लेकिन ऐसा पिटा कि सिमटता चला गया। बावजूद इसके कई अखबार खुद को पाठकों की पसंद के अनुरूप ढालने के चक्कर में लगे रहे। उनकी इस कोशिश को देखकर एक बार तो लगने लगा कि ये पत्रिकाओं को मार ही डालेंगे। कुछ हद तक हुआ भी। तमाम पत्रिकाएं बंद हुईं। उनके कंटेंट का एक हिस्सा इन अखबारों ने अपने पन्नों पर सजाना शुरू किया। खैर, अखबार सतरंगी तो हो गए, लेकिन खोजी खबरें या नेपथ्य में ढंके-छिपे तथ्यों को उजागर करने की प्रवृति जाती रही। सोशल मीडिया ने उसकी पोल खोलकर रख दी, भले ही खुद की विश्वसनीयता स्थापित न कर पाया हो।
हाल-फिलहाल की तमाम घटनाएं जो चर्चित हुईं, सोशल मीडिया की उपज थीं। मणिपुर की त्रासदी से लेकर सीमा हैदर की हैरतअंगेज दस्ताने-मोहब्बत तक सब सोशल मीडिया पर बहते हुए पत्रकारिता की मुख्यधारा में उफनाई। सरकारी तंत्र से जुड़े कई तथ्योद्घाटन या तो विदेशी मीडिया ने किए या फिर विपक्षी दलों ने। पेगासस से लेकर हिन्डनबर्ग की रिपोर्ट तक मुख्यधारा की मीडिया ने सिर्फ जूठन ही तो परोसे। और फिर फिर परोसे। सरकारी कामकाज की रिपोर्टिंग तो प्रेस कांफ्रेंस और विज्ञप्तियों तक सिमटी ही, बाकी क्षेत्रों की खबरों के लिए भी प्रेस नोट की सुगमता मुफीद बन बैठी।
एजेंसी की खबरों को झाड़-पोछकर क्रेडिट लेने का सिलसिला तो खैर दो दशक से भी पहले शुरू हो चुका था। अब सवाल-जवाब की परंपरा खत्म। व्हाट्सएप-ईमेल का जुगाड़ जिंदाबाद। टमाटर पर हर तरफ कोहराम मचा, लेकिन किसी अखबार या न्यूज चैनल ने मंडी तक जाने और आवक पर असर, उसके कारणों की तफ्तीश की जहमत उठाई हो, कम से कम मुझे तो ध्यान नहीं आता। कुल मिलाकर पत्रकारों की भूमिका डाकिए तक सिमट गई। यहां का सन्देशा वहां तक पहुंचाने तक। लिहाजा, तमाम अखबारों में आपको खबरों के प्रस्तुतिकरण का अंदाज भले अलग दिख जाए, अलग कंटेंट शायद ही मिले।
जारी…