मीडिया विमर्श 6 – बौद्धिक विकलांगता अखबारों से भी झलकने लगी है!

अनिल भास्कर- पॉलिटिकल कवरेज में पक्षपात या पॉलिटिकल एजेंडे को आगे बढ़ाने के गम्भीर धतकर्म से इतर बाकी विषयों को लेकर भी आज मीडिया का बड़ा हिस्सा कन्फ्यूज्ड दिखता है। अपने पाठकों को क्या पढ़ाए? दर्शकों को क्या दिखाए? वो जो पाठक/दर्शक पढ़ना/देखना चाहते हैं या वो जो वास्तव में पाठकों/दर्शकों को पढ़ाया/दिखाया जाना चाहिए। …

मीडिया विमर्श 5 – कोरोना के बाद प्रसार बढ़ाने की बजाय ऑडिट ब्यूरो ऑफ सर्कुलेशन को सेट करने पर जोर!

अनिल भास्कर- हिंदी पत्रकारिता के बाल्टी-मग युग की सबसे खास बात यह रही कि परोक्ष तौर पर ही सही, सर्कुलेशन टीम अखबारों के सम्पादकीय में घुसने लगी थी। पहले वह अखबारों की तुलनात्मक समीक्षा कर रिपोर्ट बनाने में जुटी और फिर उन रिपोर्टों के हवाले से सम्पादकीय निर्णयों को प्रभावित करने की कोशिश में लग …

मीडिया विमर्श 4 – पत्रकारिता का मग-बाल्टी युग… मार्केटिंग के इस नए भंवर ने अखबार में कंटेंट की भूमिका सीमित कर दी!

अनिल भास्कर- 1990 के दशक में आर्थिक उदारीकरण ने बाजार को विस्तार दिया तो इस विस्तार ने मीडिया हाउसों की ऊंची उड़ान के लिए आसमान खोल दिया। अपरिमित संभावनाओं से भरे इस नवयुग ने हिंदी और अन्य भाषाई (वर्नाकुलर) अखबारों के स्थानीय संस्करणों की जमीन तैयार की। धीरे-धीरे जिलों तक के विशेष संस्करण निकलने लगे। …

मीडिया विमर्श 3 – वह जानते थे मालिकानों को सम्पादकीय गुणवत्ता नहीं, सिर्फ मुनाफे से मतलब है!

अनिल भास्कर- सम्पादक नामक संस्था का पिछले तीन दशकों में जिस तेजी से क्षरण हुआ है, वह पत्रकारिता के लिए सबसे बड़ी चिंता का वायस रहा। आप यह मान सकते हैं कि मूलतः यह अवमूल्यन आर्थिक उदारीकरण और भौतिकवाद के नए दौर के आगाज़ के साथ ही शुरू हुआ।

मीडिया विमर्श 2 – मीडिया संस्थानों ने अपने सिद्धांत अपनी इच्छा से बेचे हैं, कभी कॉरपोरेट तो कभी सरकार के हाथों!

अनिल भास्कर- मीडिया का अगर राजनीतिक अनुकूलन और उसके तटस्थता-निष्पक्षता के मूलभूत सिद्धांत का अवमूल्यन हुआ तो इसकी वजह सिर्फ मीडिया संस्थानों की धनपिपासा रही, कॉरपोरेट या राजनीतिक शक्तियां नहीं। हां, कॉरपोरेट और राजनीतिक शक्तियों ने मीडिया संस्थानों की इस पिपासा को पहचाना और खूब भुनाया। अपने मतलब के लिए उनकी पिपासा का शमन करते …

मीडिया विमर्श 1 – माथुर साहब ने अखबार को मुकम्मल बनाया, लेकिन बाजार की अपेक्षाएं कुछ और ही थीं!

अनिल भास्कर- मुख्यधारा की मीडिया इन दिनों आलोचनाओं के गहरे घेरे में है। पक्षधरता से लेकर जनसरोकारों की उपेक्षा और सामाजिक विकृतियों के विस्तार तक के आरोपों से जूझती हुई। साख के अभूतपूर्व संकट से पस्त। ऐसे में यह सवाल आम है कि उसकी सही भूमिका क्या होनी चाहिए? जब हम मौजूदा दौर की पत्रकारिता …