Samarendra Singh : कुछ दिन पहले एक बड़े आदमी से बात हो रही थी. मैंने कहा कि लाखों की संख्या में सरकारी नौकरियां खाली पड़ी हैं तो सरकार उन्हें भर क्यों नहीं देती. उन्होंने कहा कि ये आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस का दौर है. सरकारी नौकरियां कम होंगी. सरकार और समाज दोनों को दूसरे विकल्पों पर ध्यान देना होगा. मैंने कहा कि किसी भी तकनीकी व्यवस्था को चलाने के लिए भी एक तय अनुपात में लोगों को बहाल करना ही होगा. उन्होंने कहा कि पहले से ही सरकारी महकमों में लोग ज्यादा हैं. अब और ज्यादा लोग नहीं रखे जाएंगे.
यही सोच धीरे-धीरे बहुत से “पढ़े-लिखे” लोगों की होती जा रही है. खासकर उन लोगों की जो अनिश्चितता के दौर से आगे निकल गए हैं और सेफ जोन में बैठे हैं. ऐसे लोगों को लगता है कि फांसी की सजा मुकर्रर कर देने से अपराध खत्म हो जाएंगे. ठीक उसी तरह इन लोगों को यह लग रहा है कि चालान की रकम बढ़ा देने से ट्रैफिक नियमों का पालन होने लगेगा और आम लोगों में ट्रैफिक सेंस विकसित हो जाएगी. फेसबुक पर बीते तीन-चार दिन से देख रहा हूं. कुछ प्रबुद्ध लोग भी इसके समर्थन में दलीलें गढ़ रहे हैं.
दरअसल, समाज की सोच इतनी विकृत होती जा रही है कि कई बार हैरानी होती है. लगता है कि ये तथाकथित बुद्धिजीवी और पढ़े लिखे लोग समाज को एक खतरनाक मोड़ की तरफ ढकेल रहे हैं.
खैर, उस बड़े आदमी से मिलने के बाद मैंने घर लौट कर कुछ आंकड़ों पर नजर डालने की कोशिश की तो तस्वीर साफ हो गई. उदाहरण के तौर पर पुलिस प्रशासन को ही लीजिए. यूरोप और अमेरिका की तुलना में भारत की स्थिति पर गौर कीजिए. अमेरिका में प्रति लाख आबादी पर 240 पुलिसकर्मी, ऑस्ट्रेलिया में 202, बेल्जियम में 333, फ्रांस में 340, जर्मनी में 372 और ब्रिटेन में 208 पुलिसकर्मी हैं. इन विकसित देशों की तुलना में भारत में 150 पुलिसकर्मी हैं.
डॉक्टरों की संख्या अमेरिका में प्रति लाख आबादी पर 245, ब्रिटेन में 281, फ्रांस में 319, जर्मनी में 389 और ऑस्ट्रेलिया में 370 हैं. जबकि भारत में यह संख्या 70 है. जजों की संख्या तो और दयनीय है. अमेरिका में 9.8, जर्मनी में 24.6, स्वीडन में 21.3 और फ्रांस में 9 है. जबकि प्रति एक लाख आबादी पर भारत में 1.9 जज हैं. शिक्षा का हाल भी खतरनाक है.
इन आंकड़ों को यहां रखने का अर्थ सिर्फ इतना है कि जिन देशों में आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस का इस्तेमाल बहुत ज्यादा हो रहा है, जहां पर तकनीक का इस्तेमाल बहुत ज्यादा हो रहा है उन देशों की तुलना में भी भारत में जरूरी सेवाओं में कर्मचारियों की संख्या बहुत कम है. जबकि यहां यह संख्या ज्यादा होनी चाहिए थी.
आज ही मैं किसी काम से दिल्ली गया था. देखा चार जगह पर ट्रैफिक लाइट काम नहीं कर रही थी. एक जगह पर बिना मतलब का जाम लगा हुआ था और वहां पर कोई भी तैनात नहीं था. नोएडा में तो स्थिति अराजक जैसी है. पब्लिक ट्रांसपोर्ट का हाल तो और बुरा है. मेट्रो में पैर रखने की जगह नहीं होती है. बसों की संख्या न के बराबर है. अब व्यवस्था होगी नहीं, व्यवस्था को लागू करने वाले होंगे नहीं, व्यवस्था के बारे में लोगों को जागरुक बनाया नहीं जाएगा और सिर्फ चालान की दर बढ़ा देने से व्यवस्था दुरुस्त हो जाएगी ऐसा कोई क्रांतिकारी ही सोच सकता है! इन सभी क्रांतिकारियों को सलाम! जय हिंद!
एनडीटीवी में कार्यरत रहे वरिष्ठ पत्रकार समरेंद्र सिंह की एफबी वॉल से.