सुशांत झा-
फेसबुक मुझे दो तरह के विज्ञापन अक्सर दिखाता है–“कोडिंग सीखें” या “गिटार सीखें”, जबकि मैं होशियारी सीखना चाहता हूँ। उधर लिंक्डइन पर हर दूसरे दिन कोई न कोई इनबॉक्स में एक कोर्स बेच जाता है। सप्ताहांत के दिन प्रॉपर्टी के एजेंट परेशान करते हैं। बीमा वाले अब फोन नहीं करते, उनके बारे में मैंने पिछले साल एक पोस्ट लिख दिया था।
इधर ऑनलाइन पेमेंट का क्रेज इतना बढ़ा है कि फूलवाला, नाई और गोलगप्पे वाले की बात ही छोड़िए, वरिष्ठ किस्म के भिखाड़ी तक तक पेटीएम से नीचे नहीं आते। किसी के पास खुल्ले नहीं है। स्क्रीन पर पेमेंट सक्सेसफुल का दृश्य इतना रोमांचकारी है, गोया अक्षय कुमार की कोई जासूसी फिल्म हो।
पुस्तक विमोचन, वेबिनार, यूट्यूब इतना ज्यादा हो गया है कि किसी से मिलने की वैसे भी ज़रूरत नहीं है। लोग वॉशरूम में बैठे-बैठे ऑफिस की मीटिंग अटेंड कर रहे हैं।
फेसबुकिया फ्रॉड की बढ़त का आँकड़ा भले ही न हो, लेकिन परिचितों के बीच फ्रॉड बढ़ गया है। लोग लैपटॉप खरीदने के लिए परिचितों से पैसे मांग कर दारू पी जा रहे हैं।
हर कोई करोड़पति और तंदुरुस्त बनना चाहता है और हर कोई योग-अध्यात्म पर पाँच मिनट प्रवचन दे देता है। हर किसी के पास ‘सफल कैसे बनें’ के चार नुस्खे हैं और हर कोई दो-तीन विदेशी राइटर का नाम ठेल देता है।
ये अद्भुत समय है जिसमें हर तीसरा आदमी पूछता है कि आपको कार चलानी नहीं आती?
गंभीर से गंभीर व्यक्ति लोकप्रिय होना चाहते हैं। सिक्स फिगर फॉलोअर्स वाले नए कामयाब हैं। कोई बुक सेल्फ की तस्वीरें लगा देता है तो कोई विंडो ग्लास से दिखती खूबसूरत हिमालय की वादियों की। कभी-कभार शेरो-शायरी की बात करना ठीकठाक प्रमोशन मान लिया गया है।
फिल्मों और जीवन से संगीत गायब होता जा रहा है, लेकिन यूट्यूब पर स्टैंड अप कॉमडियन बढ़ते जा रहे हैं। एक अरसा हुआ कि पड़ोस से ‘नगीना’ या ‘दिल तो पागल है’ का गीत कोई सुना दे, लेकिन मजाल है लोग कपिल शर्मा को छोड़कर वो लगाएँ! हाल ये है कि बुजुर्गवार भी कपिल में रस लेने लगे हैं।
मुझे क्रिकेट समझ नहीं आता, लेकिन कई लोग एक ही साथ क्रिकेट, मोदी, सदगुरु, नेटफ्लिक्स देख लेते हैं।
ये दुनिया अब ऐसी हुई है या पहले भी ऐसी थी?