आखिर चार साल बाद मुलायम सिंह को अचानक अमर सिंह की याद क्यों आयी? इसके पीछे मुझे लगता है कि मुलायम सिंह की बहुत सोची समझी रणनीति है। दरअसल अखिलेश यादव का मुख्यमंत्री बनना सपा के कई दिग्गजों को जिसमें सैफई परिवार के भी कुछ लोग शामिल हैं, शुरुआत से ही पच नहीं रहा है। लगातार अखिलेश को एक नाकामयाब मुख्यमंत्री साबित करने के लिए प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से सपा के अंदर से ही कुछ लोग प्रयासरत हैं। मुलायम सिंह को भी इन बातों की जानकारी है और वे इन सब बातों से परेशान भी हैं। तभी तो सपा सरकार के अनेकों कल्याणकारी योजनाओं को संचालित करने और अखिलेश यादव की कड़ी मेहनत के बावजूद भी लोकसभा चुनावों में सपा को मुंह की खानी पड़ी। यही कारण है कि मुलायम सिंह ने इस संक्रमण काल में अपने पुराने मित्र अमर सिंह को याद किया।
अमर सिंह समाजवादी पार्टी के अंदर और बाहर की सारी बारीकियों से परिचित हैं। हर राजनीतिक समस्या से निकलने और निकालने का हुनर अमर सिंह को बखूबी आता है और न्यूक्लियर डील जैसे मामले में केंद्र सरकार को बचाने तक में उनकी भूमिका जगजाहिर है। अमर सिंह को अखिलेश के सलाहकार के रूप में और राजनीत में अखिलेश को असफल करने में जुटे सपाइयों के विरुद्ध अखिलेश के पक्ष में कवर फायर करने की भूमिका के रूप में भी देखा जा रहा है। इसके साथ साथ केंद्र की राजनीति में सपा की खाली शून्य को भरने के लिए भी अमर सिंह से अच्छा विकल्प नहीं हो सकता। साथ ही साथ बड़े कार्पोरेट घरानों के साथ सपा का घालमेल करवाने में भी अमर सिंह सहायक होंगे।
अमर सिंह के सपा में आने से जहां अखिलेश को एक अनुभवी सलाहकार मिलेगा, मुलायम को अपना पुराना मुलायमवादी मित्र मिलेगा। वहीं वर्तमान में अखिलेश को असफल साबित करने में जुटे अधिकांश सपाइयों का ध्यान अपने आप ही अमर विरोध पर जाकर टिक जाएगा जिससे अखिलेश को फ्रीहैण्ड मिलेगा और उनकी राह में रोड़े अटकाने वाले सपाई अमर विरोध में मशगूल हो जायेंगे। इस प्रकार अखिलेश का काम आसान हो जाएगा। मुझे लगता है कि यदि अमर सिंह सपा से बाहर नहीं हुए होते तो उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री के रूप में अखिलेश यादव एक सफल और मजबूत मुख्यमंत्री साबित होते। शायद अब यह अहसास मुलायम सिंह को भी पूरी तरह से है। यही कारण है कि एक बार फिर अमर सिंह सपा में मुलायमवाद को मजबूत करने के लिए एक नए रोल में लाये जा रहे हैं। परन्तु अब समय बहुत कम बचा है। देखना है कि नेता जी की यह रणनीति कहां तक कामयाब होती है?
राकेश भदौरिया
पत्रकार
एटा
उत्तर प्रदेश