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‘इंडियन एक्सप्रेस’ के खोजी पत्रकारों ने बैंकों के जरिए लूटपाट का खुलासा किया

हमारे देश में गजब की लूट-पाट मची हुई है। आम जनता को डाक्टर, वकील और शिक्षा-संस्थाएं तो बेरहमी से लूट ही रही हैं, अब पता चला है कि हमारी सरकारी बैंके भी थोक में हाथ साफ कर रही हैं। आम जनता के खून-पसीने की कमाई के अरबों-खरबों रुपया ये बैंक उधार पर दे देती हैं और वह राशि डूब जाती है। ‘इंडियन एक्सप्रेस’ के खोजी पत्रकारों ने यह मामला उजागर किया है। उनके अनुसार सरकारी बैकों ने 2013 से 2015 के बीच 1.14 लाख करोड़ के कर्जों को डूबतखाते में डाल दिया है याने माफ कर दिया है।

<p>हमारे देश में गजब की लूट-पाट मची हुई है। आम जनता को डाक्टर, वकील और शिक्षा-संस्थाएं तो बेरहमी से लूट ही रही हैं, अब पता चला है कि हमारी सरकारी बैंके भी थोक में हाथ साफ कर रही हैं। आम जनता के खून-पसीने की कमाई के अरबों-खरबों रुपया ये बैंक उधार पर दे देती हैं और वह राशि डूब जाती है। ‘इंडियन एक्सप्रेस’ के खोजी पत्रकारों ने यह मामला उजागर किया है। उनके अनुसार सरकारी बैकों ने 2013 से 2015 के बीच 1.14 लाख करोड़ के कर्जों को डूबतखाते में डाल दिया है याने माफ कर दिया है।</p>

हमारे देश में गजब की लूट-पाट मची हुई है। आम जनता को डाक्टर, वकील और शिक्षा-संस्थाएं तो बेरहमी से लूट ही रही हैं, अब पता चला है कि हमारी सरकारी बैंके भी थोक में हाथ साफ कर रही हैं। आम जनता के खून-पसीने की कमाई के अरबों-खरबों रुपया ये बैंक उधार पर दे देती हैं और वह राशि डूब जाती है। ‘इंडियन एक्सप्रेस’ के खोजी पत्रकारों ने यह मामला उजागर किया है। उनके अनुसार सरकारी बैकों ने 2013 से 2015 के बीच 1.14 लाख करोड़ के कर्जों को डूबतखाते में डाल दिया है याने माफ कर दिया है।

आप जरा दिमाग दौड़ाइए कि सवा लाख करोड़ रू का मतलब क्या होता है? इतने बड़े आंकड़े में कितने शून्य लगेंगे? एक-एक करोड़ रुपया सवा लाख बार जमा किया जाए तब इतनी राशि बनती है। इसे यों भी कह सकते हैं कि जैसे एक ग्रामीण दवाखाना बनाने में एक करोड़ रुपया लगता है तो आप इस राशि से देश में सवा लाख दवाखाने बना सकते हैं। यह वह राशि है, जो उद्योगपतियों और व्यवसायियों को कर्ज पर दी जाती है। उनसे आशा की जाती है कि वे मूल राशि तो लौटाएंगे ही, ब्याज भी देते रहेंगे।

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मैं इसे लूट-पाट क्यों कहता हूं? क्योंकि बैंकों पर नेताओं और दलालों का इतना दबाव आ जाता है कि वे कर्ज देने के पहले अपनी शर्तों को ढीला कर देते हैं या उनकी अनदेखी कर देते हैं। बैंकों के ये अधिकारी पुरस्कारस्वरुप तगड़ी रिश्वत खाते हैं। वे उस पैसे को लौटाने के लिए सख्ती भी नहीं बरतते। हमारी सरकारी बैंकों ने दीवालिया कर्जदारों के नाम भी दबा कर रखे हुए हैं। वे उनके नाम भी उजागर नहीं करना चाहती। आखिर, ऐसा क्यों?

यह ठीक है कि कुछ उद्योग और व्यवसाय, लाख कोशिशों के बावजूद घाटे में चले जाते हैं। उनके लिए कर्ज तुरंत लौटाना असंभव हो जाता है लेकिन मैं ऐसे कुछ बड़े उद्योगपतियों को भी जानता हूं, जो अपने एशो-आराम पर करोड़ों रुपया खर्च करते रहते हैं, चाहे उन्हें बैकों का कितना ही पैसा लौटाना हो। मेरी राय में जो भी ऐसे उद्योगपति हों, उन्हें और उनके परिवार के सभी व्यस्कों को, एक अवधि के बाद जेल में डालकर सश्रम कारावास की सजा दी जानी चाहिए। उनकी सारी चल और अचल संपत्ति जब्त की जानी चाहिए। जिन बैंक अधिकारियों ने उनको कर्ज दिया था, उनकी बकायदा जांच की जानी चाहिए। यदि उन्होंने लापरवाही या चालाकी की हों तो उन्हें बर्खास्त किया जाना चाहिए और अगर वे सेवा-निवृत्त हो गए हो तो उनकी पेंशन बंद की जानी चाहिए। यदि बैंकों के डूबतखाते बंद हो जाएं तो ये बैंक बहुत सशक्त हो जाएंगे। ये अपने खातेदारों को अधिक ब्याज दे सकेंगे। ये छोटे-मोटे लाखों नए उद्यमी खड़े कर सकेंगे। जनता का पैसा जनता के काम आएगा।

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लेखक डा. वेद प्रताप वैदिक देश के जाने माने पत्रकार और स्तंभकार हैं.

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