मुझे संघ की थॉट प्रोसेस नापसन्द हैं। नापसन्द क्या मुझे वो सिस्टम वाहियात लगता है दरअसल। अब पूछेंगे क्यों? क्योंकि..मैं 10 साल संघ के सरस्वती शिशु मन्दिर से पासआउट हूँ। स्कूल से बाहर निकली और जब थोड़ी दुनिया देखी तो समझ आया कि वो तो पूरा एक गोरखधंधा है। कैसे? स्कूल छोटा था। अगर दोपहर की शिफ्ट के बच्चे जल्दी आ जाते थे तो उन्हें एक ही हॉल में बिठा देते थे। उस दिन हम कई क्लास के बच्चे साथ में बैठे थे। घण्टी बजी। मेरी शिफ्ट का समय हुआ। मैंने बैग लिया और अपनी एक सीनियर दोस्त को बाय कहकर अपनी जगह से उठी। जैसे ही मुड़ी। मुझे एक चांटा पड़ा। वो मेरी वाइस प्रिंसिपल थीं। वो बोलीं ‘अपनी सीनियर को बाय कहते हैं’।
उस वक़्त मैं क्लास 2 में थी। हम संस्कृत की प्राथनाएं और श्लोक रटने को मजबूर थे। हमें हर साल खण्ड खण्ड वाली एक कॉपी मिलती थी जिसमें हमें 1008 बार श्री राम राम लिख कर देना होता था। शहर के जितने भी मन्दिरों में गीता पाठ प्रतियोगिताएँ होती थीं वहां प्रेशराइज़ करके भेजा जाता था। नियम की तरह। जबकि मुझे नहीं याद कि हम स्कूल के बाहर कभी ड्राइंग, साइंस,कंप्यूटर, स्पोर्ट्स के लिए गए हों कहीं। प्रार्थना के बाद सारे टीचर्स के पैर पढ़ना नियम था। जो ऐसा नहीं करना था उसे या तो सजा मिलती थी या बॉयकॉट कर दिया जाता था।
12वीं तक क्लास में एक दूसरे को भैया बहन बोलना जरूरी था। दूसरी चीज़ स्कूल के बाहर भी अगर कोई लड़का लड़की साथ दिख गए तो उसका कुटना तय था। मुझे याद है एक 11वीं का सीनियर अधमरा टाइप तक पिटा था। क्लास में लड़के हमेशा एक तरफ लड़कियां दूसरी तरफ बैठती थीं। राखी में पूरी क्लास की लड़कियों को पूरे क्लास के लड़कों को राखी बंधवाई जाती थी। जो उस दिन स्कूल नहीं आता था या तो पिटता था या अगले दिन राखी बन्धवाता था। सारे त्यौहार मनाये जाते थे। लेकिन जबरन की तरह। गणेश चतुर्थी पर झांकी रखते थे। संक्रांति पर चावल दान करते थे। गुरु पूर्णिमा। ये वो सब। लेकिन और किसी और धर्म का नहीं बस हिन्दू रीती रिवाज़ वाले सब। फिर 5 दिन तक प्रतियोगिताएँ होतीं थीं।
जैसे
मेंहदी कॉम्पिटिशन
रंगोली कॉम्पिटिशन
गणेश जी बनाओ कॉम्पिटिशन
आलतू कॉम्पिटिशन
फ़ालतू कॉम्पिटिशन
ये तब नहीं समझ आता था। पर अब आता है। लिख रही हूँ तो आ रहा है। वो सब कोई पढ़ाई का हिस्सा नहीं था। न ही उसका कोई मतलब हमारी ग्रोथ से था। वो एक तरह से संघ की विचारधरा को बहोत कट्टर तरह से बनाये और बचाये रखने की तरकीब थी। कहीं ऐसा न हो कि बच्चे ज्यादा पढ़ लिख कर प्रोग्रेसिव हो जाएं और भूल जाएँ कि सुबह उठ कर कराग्रे वस्ते, खाने से पहले भोजन मंत्र, नहाने से पहले नहाना मन्त्र और सोने से पहले और कोई कूड़ा मन्त्र मार कर सोना है।
मेरे स्कूल में 7 कंप्यूटर थे। हमेशा से। जो मेरे लिए उस समय भी बड़ी और सरस्वती में होते हुए हैरत की बात थी। लेकिन 10 सालों में हमने ज्यादातर वक़्त थ्योरी पढ़ी। अरे और तो और c++ तक सिर्फ थ्योरी में पढ़ा। संघ दरअसल आपको प्रोग्रेसिव होने से रोकने के लिए सारे बन्दोबस्त करता है। कंप्यूटर। इंग्लिश। इंटरनेट। स्पोर्ट्स। को एजुकेशन। ( सरस्वती में कोई को एज्युकेशन नहीं होता भैया बहन एज्युकेशन होता है) । स्कूल में हम किसी भी तरह के संगीत का फ़िल्म के बारे में बात नहीं कर सकते थे। मैंने 10 साल सिंगिंग कॉम्पिटिशन में सिर्फ भजन सुने और लगभग 10 साल डांस कॉम्पिटिशन में वन्दे मातरम् पर पर डांस परफॉर्म किया।
मेरे स्कूल में लोअर मिडिल क्लास या उससे भी नीचे के तबके के बच्चे थे। जिनके माँ बाप घरों में सफाई का काम करते थे। लेकिन 10 सालों में मैंने किसी आर्थिक रूप से कमज़ोर, दलित या मुस्लिम बच्चे को स्कॉलरशिप पाते नहीं देखा। स्कूल में अगर शिफ्ट के बाद या पहले अगर किसी भी काम से आना हो तो कैजुअल ड्रेस में नहीं आ सकते। आ भी गए तो लडकियां जीन्स में कतई नहीं। सॉरी लेकिन सबसे बड़े फ़र्ज़ी मेरे प्रिंसिपल थे। पूरे स्कूल पर सबकुछ थोपते थे। उनका बेटा विदेश में था। और जो बेटी स्कूल में मेरी सीनियर थी वो किसी विदेशी से कम नहीं थी। बोले तो.. मस्त रहना। घूमना फिरना। जीन्स। स्कर्ट। बैकलेस(अब) पहनना। उसके लिए कोई नियम नहीं थे। न स्कूल में न व्यक्तिगत जीवन में। हाँ बाकी सब पर था।
ऐसी बहोत सारी चीज़ें हैं जिन्हें समझाना थोडा मुश्किल है लेकिन संघ का सिस्टम दरअसल एक कन्स्ट्रक्ट तैयार करता है। और उसके कोर्स में बहोत सारा हिंदुत्व है। राष्ट्रभक्ति है। सो कॉल्ड संस्कार हैं। झुकना है। विरोध न करना है। लॉजिकल न होना है। हाथ जोड़कर सिर झुकाए खड़े रहना है। पैर पड़ना है। 8 घण्टे के स्कूल में 2 घण्टे मन्तर मारना है। सोसायटी में जो सब चल रहा है उसे स्वीकार करवाना है। प्रोग्रेसिव न होना है। पुरानी चीज़ों को ढोना है। उन्हें हाँ हूँ करने वाला गधा बनाना है। और वो भी कट्टर गधा बनाना है। ये जो आप सोचते हैं न कि ये जो ‘भक्त’ हैं ये आते कहाँ से हैं? ऐसे ही मन्दिरों से आते हैं साब।
(हो सकता है कहीं कोई सरस्वती बड़ी मिसाल बना रहा हो। पर मेरी एज्युकेशन के दस साल में तो संघ का सच यही था।)
शोभा शमी के एफबी वाल से