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साहित्य

सबसे माफी मांगते अनंत की ओर चले गये नीलाभ जी

Hareprakash Upadhyay : सबसे माफी माँगते हुए अनंत की ओर चले गये नीलाभ जी। बेहद प्रतिभावान-बेचैन, सहृदय लेखक, कवि- अनुवादक! मुझसे तो बहुत नोक-झोक होती थी, मैं उन्हें अंकल कहता था और वे मुझे भतीजा! अंकल! अभी तो कुछ और दौर चलने थे। कुछ और बातें होनी थी। आप तो सबका दिल तोड़ चले गये। पर शिकायतें भी अब किससे और शिकायतों के अब मानी भी क्या! अंकल, हो सके तो हम सबको माफ कर देना। नमन अंकल! श्रद्धांजलि!

Hareprakash Upadhyay : सबसे माफी माँगते हुए अनंत की ओर चले गये नीलाभ जी। बेहद प्रतिभावान-बेचैन, सहृदय लेखक, कवि- अनुवादक! मुझसे तो बहुत नोक-झोक होती थी, मैं उन्हें अंकल कहता था और वे मुझे भतीजा! अंकल! अभी तो कुछ और दौर चलने थे। कुछ और बातें होनी थी। आप तो सबका दिल तोड़ चले गये। पर शिकायतें भी अब किससे और शिकायतों के अब मानी भी क्या! अंकल, हो सके तो हम सबको माफ कर देना। नमन अंकल! श्रद्धांजलि!

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Ajit Rai : नीलाभ नहीं रहे। नीलाभ से मेरी पहली मुलाकात तब हुई थी जब मैं 1989 में इलाहाबाद विश्वविद्यालय में मनोविज्ञान में एम ए का छात्र था। सिविल लाइंस मे नीलाभ प्रकाशन के दफ्तर में सार्त्र और कामू के अस्तित्ववाद पर चर्चा करने जाता था। तब वे बीबीसी लंदन से लौटे ही थे। इन 27 सालों में अनगिनत मुलाकातें हैं। अभी पिछले साल हम अशोक अग्रवाल के निमंत्रण पर कुछ दिन शिमला में थे। उनके साथ की तीखी धारदार बहसों से हमे बहुत कुछ मिलता था। वे हमारी यादों मे हमेशा अमर रहेंगे।

Vishnu Nagar : खबर है कि नीलाभ नहीं रहे। कुछ ही दिन पहले उन्हें भारतीय ज्ञानपीठ के समारोह में देखा था बल्कि पहले उन्होंने मुझे देखा था और जैसा कि वे करते थे अक्सर समकालीनों के साथ व्यंग्योक्ति के साथ मेरा स्वागत किया था। फिर जब कार्यक्रम के बाद लौटने लगा तो वह संसद भवन के सभागार से निकलकर कुछ दूर एक दरवाज़े से टिककर खड़े थे पत्नी के साथ। ध्यान दिया तो उनके दोनो पैर बुरी तरह सूजे हुए थे। मैंने पूछा कि क्या हुआ तो टाल गये। एक मित्र ने बताया कि उनकी दोनों किडनियाँ क्षतिग्रस्त हो गई थीं। मैंने प्रस्ताव किया कि मैं आपको सहारा देकर दरवाज़े तक ले चलूँ तो उन्होंने कहा, नहीं धीरे-धीरे चला जाऊँगा। क्या पता था कि इतनी जल्दी वे नहीं रहेंगे। उनके एक घनिष्ठ मित्र पंकज सिंह सात महीने पहले नहीं रहे थे, अब वे भी नहीं हैं। वे अच्छे कवि तो थे ही, अनुवाद करने में उनका सानी नहीं था। पिछले दिनों मैं उनके विदेशी कविताओं के कुछ अनुवाद पढ़ता रहा हूँ। उन्होंने वर्धा के हिंदी विश्वविद्यालय के लिए हिंदी साहित्य के मौखिक इतिहास पर बहुत अच्छा काम किया था, अपने ढँग का अनूठा मगर उसकी पूरी तरह अनदेखी हो गई, जिससे उनका तो क्या नुक्सान होना था हिंदीजगत का नुक्सान हुआ और होता रहेगा।

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हरेप्रकाश उपाध्याय, अजित राय और विष्णु नागर की एफबी वॉल से.

मूल खबर :

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