: शीशों की मीनाकारी से बनी तस्वीर : आज अगर राजकमल चौधरी जिन्दा होते, तो वे सत्तर-बहत्तर साल के होते। सहज ही ख़याल होता है कि ‘मछली मरी हुई’, और ‘मुक्ति प्रसंग’ का लेखक सत्तर साल के बुजुर्ग के रूप में कैसा दिख रहा होता और इर्द-गिर्द की दुनिया से किस तरह पेश आ रहा होता? जबकि न तो ‘शहर था शहर नहीं था’ का पटना वैसा रह गया है, न ‘एक अनार एक बीमार’ का कलकत्ता. अपनी अकाल मृत्यु के समय 36 वर्ष की आयु में ही एक किम्वदन्ती बन जाने वाला साहित्यकार ख़ुद को कितना बूढ़ा या जवान महसूस कर रहा होता? उसके अन्तस्तल में बैचैनी और आक्रोश में जो उबलते हुए सोते थे, वे क्या सूख गये होते या शान्त नीली नदियों में तब्दील हो गये होते। अपने समय, समाज और साहित्यिक समुदाय में उसका रिश्ता कैसा होता? सवालों का हुजूम है, जो राजकमल की याद आते ही मन में घुमड़ने लगता है। स्मृतियों की एक कतार है, जो फूल बाबू उर्फ़ मणीन्द्र चौधरी उर्फ़ राजकमल चौधरी से जुड़ी हुई है और सरसों के फूलों की कतार की तरह लहराती है। बहुत-से किस्से हैं, जिन्होंने राजकमल चौधरी को इस तरह ढँका हुआ है, जैसे मेकप और मैनिरिज़्म किसी अभिनेता को ढँके होते हैं।