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साहित्य

कॉफी हाउस, दूधनाथ सिंह, जिन, सुर्ती और एक मुलाकात… अनिल यादव की कलम से

Anil Kumar Yadav

कॉफी हाउस में दो ग्रामीण

नखलऊ कॉफी हाउस के यादगार दिन थे. गरमी की एक दोपहर दूधनाथ सिंह (जिन्हें मैं हिंदी का बड़ा लेखक मानता हूं) को अकेले बैठे देखा जो शहर के अन्य लेखकों के आने का इंतजार कर रहे थे. वे हर शुक्रवार को यहां मिला करते थे ताकि जटिल और बदतर होती दुनिया के प्रपंचों में उनके विशिष्ट होने की सजगता विस्मृत न हो जाए.

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कॉफी हाउस की कई लंगड़ी मेजों के नीचे गिट्टक लग गए थे, हॉल का फर्श कई जगह से टूटा था, किसी सीलन वाले चकत्ते पर कोई हांफता कुत्ता या जाले लगे कोनों में पान की ताजा पीक दिख जाना कोई अनहोनी नहीं थी. मक्खियों से ढके तारों से जुड़े बल्बों के पास, लबी रॉड से झूलते पंखों में पुरातन मंत्रों का घोष समा गया था.

काउंटर पर साठ के दशक का जंग लगा लोहे का जूसर और कॉफी वेन्डिंग मशीन रखे थे जिनके खोखे में महीनों से वेतन न पाने वाले एक बेयरे की सिगरेट, पान मसाले के पाउच और तमाखू की दुकान थी ताकि किसी को बाहर न जाना पड़े. कॉफी अब अंदर किचन में भगोने में बनती थी. पुराने दिनों की स्मृति के रूप में अकेला व्यंजन पेपर डोसा बचा था जो कई बार आर्डर देने या कारीगर के हजरतगंज में कहीं से बुलाये जाने पर मिलता था. ऐसे लाउडस्पीकर कार्यकर्ता जिन्हें अपनी पार्टियों के दफ्तरों में कुर्सी नहीं मिलती थी, अपना लइया-चना-भुट्टा साथ लाते थे. उनके अलावा कोई कस्टमर नहीं होता था तब सिर्फ शोर होता था, बेयरे पाउच पीते थे, आम चूसते थे, काउंटर के पीछे कुर्सियां जोड़ कर सो लिया करते थे.
बरामदे में पान की दुकान पर एक पुराना फोन था जहां बर्र जैसी तेज और दुबली एक ऑन्टी बैठती थी और अंदर एनीमिया ग्रस्त दुग्गियां (कालगर्लें) बेवजह खिलखिलाती रहती थीं. फोन पर दिन में दो-तीन लड़कियों की मांग आती थी. जिस लड़की की किस्मत अच्छी हो, आंटी सिर से हल्का सा इशारा करती और वह दूसरों को अंगूठा दिखाकर सड़क की भीड़ मे गायब हो जाती. ये यादगार दिन थे क्योंकि लोहिया, नक्सलबाड़ी, जेपी के जमाने की कोई हवाई बौद्धिक बहस नहीं होती थी. दीवारों पर लगी बदरंग तस्वीरों को देखकर मन में आता था कुछ था जो अबूझ हो चुका है. अब जो भी था यथार्थ था, कार्यकर्ता लड़कियों के स्वास्थ्य, शिक्षा, विवाह की चिंता के बीच बुदबुदाकर देह के दाम में कुछ ‘कन्सेशन’ भी मांग लेते थे. क्या सरकारी क्या विपक्ष, सभी राजनीतिक पार्टियों की महिला विंग में ऐसी औरतें भर गई थीं जो ये दोनों काम सहजता से कर लेती थीं. कोई अबोध प्रेमी जोड़ा चला आए तो सभी सकपका जाते थे.

मुझे अपने दौर का यह कॉफीहाउस इतना आत्मीय लगता था कि दोपहरी में और कहीं जाने के बारे में सोच ही नहीं पाता था. अपने आप बाइक उसके सामने आते ही बंद हो जाती थी. काउंटर के पीछे जाकर जिन का पौवा बेयरे रामआसरे को थमा देता था जो थोड़ी देर बाद एक मैले जग में बरफ के ऊपर उड़ेल कर, खीरे की फांकों और एक गिलास के साथ नीम अंधेरे कोने की एक मेज पर रख जाता था. नमक में थोड़ी नमकीन धूल भी मिली होती थी. रामआसरे अकेला बेयरा था जिसके पास एक घिसी हुई वर्दी और झब्बेदार टोपी बची थी. किसी पुराने, खास कस्टमर के भूलकर इधर आ जाने पर वह जब तेजी से चलता तो डर लगता था कि वर्दी घिसी हुई जगहों से फट कर गिर न पड़े.

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थोड़ी देर और… पसीना छलछला आता था. मैं मंद रोशनी में जग को देखते हुए एक अधूरे वाक्य ‘शीतल मेरिमे की चमक’ का रहस्य खोलने में लग जाता था. यह वाक्य एक रूसी लेखक का था जिसे मैने न जाने कब पढ़ा था. उसका कहना था न कम न ज्यादा, तुम्हारे लिखे में शीतल मेरिमे की चमक होनी चाहिए जो कभी धुंधली नहीं पड़ती. मुझे नहीं पता कि मेरिमे क्या होता है, मैं सहूलियत के लिए उसे कांसे का कोई बरतन मान लेता था. उस पर रोशनी डालने का अंदाज ज्यादा महत्वपूर्ण था.


दूधनाथ सिंह मेजों से अलग हटकर दरवाजे के बिल्कुल सामने एक टूटी कुर्सी पर बैठे थे.

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नीचे तांत के रेशे झूल रहे थे. उनकी गोद में कंधे पर लटकाने वाला एक सूती झोला था. पता नहीं यह नीले कुर्ते का प्रभाव था या दरवाजे के चिटके शीशों से झरती मद्धिम रोशनी का, उनके एक जैसे धवल सिर, दाढ़ी, पाजामे और दांतों से एक हल्की नीली चमक फूटती लग रही थी. बार बार चश्मा उतार कर गमछे से मुंह पोंछने और झोले के ऊपर लगातार फड़कते एक अंगूठे से उनकी आतुरता और कॉफी हाउस के भीतर के माहौल के प्रति अरुचि जाहिर थी. वे चाहते थे अखिलेश, वीरेंद्र यादव, रवीद्र वर्मा, मुद्राराक्षस में से कोई एक तो दिख जाए कि समय काटा जा सके. सामने पिघलती सड़क पर भड़भड़ाते टैम्पुओं के बीच में भीख मांगने वाले बच्चे पकड़मपकड़ाई खेल रहे थे.
मुझे लगा कि किसी ने उनके ऊपर का पंखा बंद कर दिया है जिसकी वजह से हवा लेने के लिए दरवाजे पर बैठे होंगे.

यह एक पुराना ग्रीष्मकालीन रिवाज था जब कोई अपरिचित बिना कुछ खाए-पिए देर तक बैठा रहता था तो उस मेज का पंखा बंद कर दिया जाता था. यह नखलउवा बदतमीजी थी जिसका आविष्कार जबान की लज्जत की हिफाजत के लिए किया गया था. मैने रामआसरे को बुलाकर धीमे से पूछा, उनका पंखा तुमने बंद कर दिया है क्या? उसने गरदन झटकी, अह! का बात करत हौ साहेब. कवनो हमरे बाप के बिजली खरच होत आय का, आजकल तौ कटिया लगी है. ऊ खुदै हमसे कहेन कि कुरसी दरवज्जे पर लगाय दो. कवन गुनाह किया?

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सोचा कि चलकर मिलना चाहिए…ठीक है कि मिलना चाहिए, हमारे बीच में बस बीस फीट की दूरी है और वे बिल्कुल अकेले हैं. उनका इंतजार कुछ हल्का हो जाएगा. बिल्कुल सही मौका है लेकिन मिल कर कहोगे क्या?…यही कि मैने आपकी कहानियां पढ़ी हैं और मैं आपका बहुत बड़ा प्रशंसक हूं…मान लो उन्होंने कह दिया कि मेरी कहानियां तो बहुतों ने पढ़ी हैं और वे प्रशंसा भी करते हैं फिर अगली बात क्या कहोगे. मैं आदतन किसी ऐसे व्यवहारकुशल आदमी या औरत की याद करने लगा जिसे मैने किसी लेखक से मुलाकात करते देखा हो…कोई याद नहीं आया जिसकी नकल करना मेरे लिए संभव हो. कैसा रहे अगर मैं सीधा जाकर अमेरिकन ढंग से अपने साथ जिन पीने का न्यौता दे दूं…कसम से दोनों के लिए यादगार दुपहरिया बन जाएगी. यह ठीक है कि उन्होंने पश्चिमी साहित्य काफी पढ़ा है लेकिन इतने बुजुर्ग, बीमार लगते, गमछा-झोला वाले बलिया जिले के आदमी को दिनदहाड़े शराब पीने के लिए कहना क्या ठीक रहेगा! प्रशंसा ही सही रहेगी. संजीवनी बूटी जैसी चीज है, इसके अभाव में कलाकार आत्मसंशय के शिकार होकर मुरझाने लगते हैं. मुझे अपने एक अफसर मित्र की बात याद आई- प्रशंसा, पैसा और उपहार से कोई इनकार नहीं कर पाता. तीनों में से एक पुड़िया तो काम करती ही है…तभी मुझे अगली बात सूझ गई. कह दूंगा, अब इस कॉफी हाउस में आना घरेलू समस्या बन गई है क्योंकि कुर्सियों में खटमल हैं. पुराने लोगों के बीवी-बच्चे यहां आने के लिए मना करते हैं. इसके बाद जो होगा देखा जाएगा.


मैने झुक कर नमस्कार किया और सूखते हुए मुंह से कहा, “मैं आपका एक छोटा सा प्रशंसक हूं, मैने आपकी कहानियां पढ़ी हैं.”

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उनमें कोई हलचल नहीं हुई. उन्होंने पहले की ही तरह दरवाजे से बाहर सड़क पर नजर जमाए हुए कहा, “अच्छा, कौन सी कहानी पढ़े हो.”

“नपनी”

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“आओ बैठो!”

मैं एक कुर्सी घसीट कर लाया. बैठ गया. दरवाजा घिर गया. उन्होंने गहरे रंग के चश्मे के भीतर आंखे घुमाईं,”उसमें ऐसा क्या लगा?”

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“चीटरकॉक…ये सब बड़े चीटरकॉक होते हैं.”

वे हंसने लगे, पूरी कहानी में यही तुम्हें अच्छा लगा.

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“हां, ये एक ऐसा आदमी कह रहा है जो खुद बहुत बड़ा लुच्चा है. अपने अफसर बेटे की बहू को नापने के लिए एक गरीब घर की लड़की को लेकर आया है, सैंडिल उतरवाता है, बिना मेकअप के देखने के लिए उसका मुंह धुला देता है. औरतों से ही नहीं उसको पूरे समाज से बदला लेना है, हर एक को अपमानित करना है. वह मानवद्रोही हो चुका है.”

“कहां के रहने वाले हो?”

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“गाजीपुर, जिससे अलग करके आपका जिला बनाया गया है.”

अच्छा तो…वे अपने झोले में हाथ डालकर कुछ खोजने लगे. निराश हुए, मुंह सिकोड़ कर दोनों हाथों से झोले को झकझोर डाला. उन्होंने अंततः एक प्लास्टिक की डिबिया निकाल कर मेरी ओर बढ़ाई, “लो खैनी बनाओ!”
मैं डिबिया लेकर उलटने पलटने लगा. यह सस्ते प्लास्टिक की चुनौटी थी लेकिन साफ सुथरी, बूढ़े तोते के पंखों जैसा रंग अभी पूरी तरह गया नहीं था. अंदर चूना ताजा था और खगड़िया की तंबाकू के पत्तों के लंबे लच्छे कई दिन के सफर के लिए दाब कर भरे गए थे. मुझसे उन्होंने पूछा नहीं कि क्या मैं खैनी खाता हूं. अगर अनुमान लगाया हो कि खाता ही होऊंगा तो बिल्कुल गलत थे. सामाजिक संबधों के निर्धारण में खैनी का कैसे उपयोग किया जाता है, यह मैं जानता था. दरअसल खैनी के लेन-देन, बनाने और बरतने का मुकम्मल गंवई शास्त्र है, किसी के साथ पहली बार खैनी का व्यवहार करते ही इसे जानने वाले के मन में आपकी हैसियत हमेशा के लिए तय हो जाती है. मैं आत्मसंशय ग्रस्त होकर अपने हाथ-पैरों और कपड़ों का मुआयना करने लगा, तेज इच्छा उठी कि टॉयलेट में जाकर एक बार शीशा देख आऊं, क्या पहली ही मुलाकात में मुझसे कोई पुरबिया खैनी बनाने के लिए कह सकता है? या यह टेस्ट है जिसे पास करने करने के बाद ही इस लेखक के रचना संसार और निजी दायरे में प्रवेश पाया जा सकता है? मैने लच्छों को नाखून से बारीक कुटकते हुए कहा, “कटुइया है, देर तक चलती होगी.”

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उनकी पुरानी अधीरता लौट आई थी जिसे छिपाने के लिए वे सड़क की ओर देखते रहे.

मैने खैनी से जुड़े प्रसंगों की स्मृति को जल्दी से सुला देने की गरज से पूछा, आप आजकल नया क्या लिख रहे हैं?

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अगले ही क्षण लगा मैने क्या वाहियात बात कर दी. अच्छा होता कॉफी हाउस के खटमलों के बारे में कुछ कहा होता, अब वे चिढ़कर कुछ ऐसा कहेंगे जिसका उनके लिखने से कोई संबंध नहीं होगा. लेखक अक्सर अपने न लिख पाने को लेकर त्रस्त रहते हैं, उसके बारे में ऐसी रस्मी पूछताछ उनके मर्म में टीस पैदा करती है. उन्होंने अपना चश्मा उतारा, थकी आंखों से देखते हुए कहा, आंय! और फिर से सड़क की ओर देखने लगे. मुझे लगा उन्हें या तो नींद आ रही है या फिर अपनी देहभाषा में मेरी जिज्ञासा और उसे लेखक के समक्ष रखने के अधिकार की व्यर्थता के बारे में बहुत प्रभावशाली ढंग से बातचीत कर रहे हैं.

मैं हथेली पर अगूंठे को गोलाई में हल्के दबाव से घुमाते हुए खैनी के रेशों में चूने को पैठाता रहा, ठोंकता रहा. मेरे भीतर जो चल रहा था उसके लिए ‘सत्तर चुटकी बहत्तर ताल’ में लगने वाला समय पर्याप्त नहीं था. समय का दबे पांव चलना सुनाई पड़ने लगा तब खैनी का रंग बदल कर सुनहरा हो गया. उन्होंने व्याकुलता से कहा, “अब तो हो गई होगी.”

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हो गई है…मैने आखिरी बार एक उंगली से हथेली को थपथपा कर खैनी को बीच में इकट्ठा होने दिया और एक चुटकी निकाल कर उनकी तरफ बढ़ाई. उन्होंने कुछ हैरानी के साथ उसे हथेली पर ले लिया और सड़क की ओर देखते हुए कुछ सोचने लगे. मैने बेयरा रामआसरे को आवाज लगाई. वह थोड़ी देर बाद आया. मैने आदरसूचक ढंग से खैनी वाले हाथ की कुहनी को दूसरे हाथ से छूते हुए उसकी तरफ बढ़ाया, “ल्यो तमाकू खाव बहुत मस्त बनी है.”

वह हथेली फैलाकर लेते हुए हड़बड़ाया, “अरे आप खाव साहेब हम तौ दिन भर यहै करित है.”

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उन्होंने बेयरे को घूर कर देखा.

मैने कहा, पानी पीना हो तो बोल दीजिए ला देगा और वापस जाकर अपनी मेज पर बैठ गया.

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मैने खुद को दोराहे पर पाया. एक रास्ता हिंदी के इस लेखक के आत्मिक संसार को जाता था, दूसरा इसी संसार में खत्म हो जाता था जिसमें यह लेखक तमाम भाषाओं के हजारो लेखकों के साथ रहता है.

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