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फेसबुक, हिंदी भाषा और पंकज सिंह का दुख

Pankaj Singh : भाषा के बारे में लापरवाह सा नज़रिया फ़ेसबुक के बहुत सारे मित्रों में आम है। उनमें यश:प्रार्थी कवि-लेखकों से लेकर बढ़ती उम्र के स्वनामधन्य भी शामिल हैं। हर सुबह मेरे लिए ‘मित्रों’ की भाषिक भूलें दुख और सन्ताप का कारण बनती हैं। इन ‘मित्रों’ के प्रति मेरे मन में अपनत्व और शुभकामना है, इसलिए कई लोगों से मैं भूल सुधार का आग्रह करता रहता हूँ। शायद इसलिए भी कि उनकी प्रतिष्ठा-अप्रतिष्ठा को मैं अपनी छवि से जोड़कर देखने का आदी हूँ।

<p>Pankaj Singh : भाषा के बारे में लापरवाह सा नज़रिया फ़ेसबुक के बहुत सारे मित्रों में आम है। उनमें यश:प्रार्थी कवि-लेखकों से लेकर बढ़ती उम्र के स्वनामधन्य भी शामिल हैं। हर सुबह मेरे लिए 'मित्रों' की भाषिक भूलें दुख और सन्ताप का कारण बनती हैं। इन 'मित्रों' के प्रति मेरे मन में अपनत्व और शुभकामना है, इसलिए कई लोगों से मैं भूल सुधार का आग्रह करता रहता हूँ। शायद इसलिए भी कि उनकी प्रतिष्ठा-अप्रतिष्ठा को मैं अपनी छवि से जोड़कर देखने का आदी हूँ।</p>

Pankaj Singh : भाषा के बारे में लापरवाह सा नज़रिया फ़ेसबुक के बहुत सारे मित्रों में आम है। उनमें यश:प्रार्थी कवि-लेखकों से लेकर बढ़ती उम्र के स्वनामधन्य भी शामिल हैं। हर सुबह मेरे लिए ‘मित्रों’ की भाषिक भूलें दुख और सन्ताप का कारण बनती हैं। इन ‘मित्रों’ के प्रति मेरे मन में अपनत्व और शुभकामना है, इसलिए कई लोगों से मैं भूल सुधार का आग्रह करता रहता हूँ। शायद इसलिए भी कि उनकी प्रतिष्ठा-अप्रतिष्ठा को मैं अपनी छवि से जोड़कर देखने का आदी हूँ।

मुझे बेहद आश्चर्य और अफ़सोस तब होता है जब ‘की’ और ‘कि’ के प्रयोग में विश्वविद्यालयों के प्राध्यापक और लेखक मित्र तक अक्सर असावधान दिखते हैं। आज सुबह ही दिखा कि एक बन्धु ने ‘दृष्टी’ लिखा है! ओम थानवी ने इन दिनों कुछ टोक-टाक शुरू की है। मेरी राय में पढ़े-लिखों की यह एक बुनियादी पहचान होती है कि वे कम से कम एक भाषा सही ढंग से लिखना और बोलना जानते हैं। अध्यापन और लेखन के लिए तो यह अनिवार्य शर्त है ही। अगर आप के भाव और विचार शुद्ध और सुन्दर भाषा में प्रकट नहीं होते तो वे गम्भीरता से ग्रहण नहीं किये जाते। यह एक नियम सरीखा है। (कई पुराने-नये परिचितों और मित्रों ने न सुधरने की क़सम सी खायी हुई है। यह पोस्ट उनके लिए नहीं है। मसलन, Chanchal Bhu का क्या करूँ…’कि वो काफ़िर ख़ुदा को भी न सौंपा जाये है मुझसे… ‘)

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कवि और पत्रकार पंकज सिंह के फेसबुक वॉल से. उपरोक्त स्टेटस पर आए कुछ प्रमुख कमेंट्स इस प्रकार हैं…

    Yashwant Singh सर माफ करिएगा. ये भी एक तरह का कट्टरपंथ है जो एलीट सोसाइटी बनाए रखना चाहता है. भाषाएं गड्मड्ड हा जाएं तो एक ग्लोबल भाषा बनेगी. क्या दिक्कत है इसमें. मैं कभी ज़िद रखता था इन सबको लेकर पर अब नहीं. सबको एक्सप्रेस करने दीजिए, बोलने दीजिए, फरमाने दीजिए… ये नया दौर भी एक नए तरह का बदलाव ला रहा है जो भाषा के शुद्धतावादियों समेत नस्ल, जाति, धर्म, राष्ट्र, प्रांत के शुद्धतावादियों को नहीं भाएगा. पर आपको जानता हूं. आप इनमें कतई नहीं हैं. सो, सौ फूलों को खिलने दीजिए. हो सकता है कुछ ऐसे फूल खिलें जो कई रंगों को मिलाकर बने हों और ऐसा फूल पहले न खिला हो.

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    Urmilesh Urmil भाषायी शुद्धतावाद की अपेक्षा FB जैसे मंचों से नहीं होनी चाहिए। लोगों को बोलने और लिखने दें। भाषा और व्याकरण की चारदीवारी FB पर कहां चलेगी? हां, सोशल मीडिया में शालीनता बनी रहनी चाहिए। बहुत सारे लोग यहां भी सडक-छाप हो जाते हैं, वह दुखद है।
    
    Ajay K. Mehra पंकज भाई, चोट आज कल हर भाषा पर है। sms भाषा ने तो अंग्रेजी की भी ऐसी तैसी कर दी है। पिछले दो दशकों में हिंदी के अध्यापन में वर्तनी को दरकिनार कर दिया गया है। इसका असर तो आएगा ही। hybrid भाषा के प्रयोग का भी असर दिखता है। भाषा की शुद्धता और उसके व्यक्तित्व पर विद्यालय स्तर से ही बल देना आवश्यक है।
   
    Pramod Beria पहले ही कह दूँ कि यह क्षेत्र मेरी ज़िद्द की फ़सल है ,न तो भाषा में ,न ही साहित्य में कोई पारंगत अवस्थान है । आपने एकाध बार मेरी ग़लतियों को सुधारा है ,जिसका मैं शुक्रगुज़ार हूँ । आपको जब फ़ेश बुक पर ग़लतियाँ इतनी अखरती है तो सोचिए हमारे जैसे लोगों की क्या हालत होती है ,जब वे महसूस करते हुए भी अपनी कमतर पकड़ की वजह से चुप रहते हैं । ग़लतियाँ भी ग़ज़ब- ग़ज़ब होती है ,जिन्हें छपाई की भूल नहीं माना जा सकता है । २७ दिसंबर को ग़ालिब से दोस्ती करने की होड़ थी और ग़लत- सलत शब्दों और व्याकरण में ग़ालिब की धज्जियाँ उड़ा दी । मैंने कहा है कि मैंने अपनी कोशिशों से सीखी है जैसे बंगला सिनेमा के पोस्टर देख- देख कर सीखी ,उर्दू ग़ालिब को पढ़ते हुए और मेंहदी हसन ,ग़ुलाम अली और सहगल की गायी ग़ज़लें सुनते हुए शब्दकोश में अर्थ खोजते हुए ।
    अब तश्किरा- ए- दौर में तो ए ठीक है लेकिन ग़ालिब- ए – ख़याल के बदले शायद गालिबे होना चाहिए !
    यह याद रहे कि मो सम कौन कुटिल खल कामी !
   
    Anil Janvijay नये या नए? आयी या खाई? जाये या जाए? यशःप्रार्थी या यशप्रार्थी? हिंदी या हिन्दी ? वर्तनी की ग़लतियों पर भी बात की जाए। ओम थानवी तो खण्ड पीठ में पीठ को पुल्लिंग बताते हैं। आपका क्या कहना है?
 
    Avinash Mishra आप ‘है’ और पूर्ण-विराम के बीच में अतिरिक्त स्पेस दे रहे हैं, इसे दुरुस्त करें
 
    Kalbe Kabir फ़ेस-बुक को एक सम्पादक की ज़रूरत है, Pankaj Singh जी !
  
    Avinash Mishra Kalbe Kabir : ‘फेसबुक’ में नुक्ता और – नहीं आता है।
   
    Kalbe Kabir नहीं आता वो आ जाये तो क्या बात, Avinash Mishra !
    
    Pramod Beria नुक़्ता चीं है गमे दिल………… बात बनाए न बने
    
    Kalbe Kabir दुनिया का हर वाक्य अशुद्ध है !  वर्तनी और विचार दोनों दृष्टि से ! मैं एक शुद्ध वाक्य लिखना चाहता हूं, Pankaj Singh जी और Avinash Mishra जी !
    
    Hammad Farooqui ye English meing vakya-sentence-correct/incorrect hota he to Hindi/ Sanskrit ki mansikta he ki vakya ko ‘shudhdh/ashudhdh-pure/impure’commodity ki terreh burat-ti he….Hindi mein vakya- sahee / ghalat kyon nahee ho sukta..ye shudhdhtawadi mansikta ka parichay to naheen he..
    
    Kalbe Kabir और इस बहस और इस रात की अंतिम बात : सही भाषा से सही विचार नहीं आते, सही विचार से भाषा सही होती है !
    
    Pankaj Singh Pramod Beria नुक़्ताचीं है ग़मे दिल उसको सुनाये न बने… क्या बने बात जहाँ बात बनाये न बने…. (प्रमोद जी, दकनी, रेख़्ता और हिन्दवी से शुरू करके हमारी भाषा ने अबतक जो यात्रा तय की है उसमें इसने निरन्तर नये सामर्थ्य,नयी समृद्धियाँ और नयी भाव दीप्तियाँ हासिल की हैं। अपनी इस भाषा में सर्जनात्मक होने का आनन्द हम अगर नहीं ले सकते, नयी वैचारिकता, नयी सूचनाओं व तथ्यों से इसे सम्पन्नतर बनाकर हम इसका बेहतर उपयोग नहीं कर सकते, तो फ़ेसबुक जैसे माध्यम सतही क्रीड़ा-कौतुक में सिमटकर रह जायेंगे। वैसे, अच्छी बात यह है कि अहम्मन्य और हठी लोगों को ‘ब्लाक’ करके एक सार्थक संसार बनाया जा सकता है। मैं ठण्डे विवेक से इस तरह के निर्णय लेता रहा हूँ।)
 
    Pankaj Singh …सकता है। मैं ठण्डे विवेक का इस्तेमाल करके इस तरह के लोगों से मुक्ति पाता रहता हूँ । )
 
    Shashi Bhooshan Dwivedi मुझे तो आपने जब डांटा (इशारे में ही सही) तो मैने तुरंत ठीक कर लिया (अभिजात और आभिजात्य वाला मामला) फिर कोई ग़लती हो तो माफ़ कर दीजिए ये quillapd की दिक्कत है.
 
    Jitendra Ray किसी भी व्यक्ति को चाहिए कि उसकी भाषा सरल, सुलभ एवं सर्वग्राही हो ताकि उनकी भाषा आम जनमानस पर अपनी अमिट छाप छोड़ सके।
  
    Jitendra Raghuvanshi यह लापरवाही महामारी बन चुकी है…दरअसल, कोई टोकता नहीं है.
   
    अमलदार नीहार अनवधानता में की गयी त्रुटि तो क्षम्य है, किन्तु जब त्रुटि का स्वीकार भी न हो तो यह विषाद का विषय है । एक बार लिखने के बाद देख लेना चाहिए, क्योंकि यह यंत्र कई विकल्प देता है । कई बार लिखने की त्वरा में भी त्रुटि सम्भाव्य है ।

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