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इतनी बड़ी कॉरपोरेट जालसाज़ी के आरोपियों में टाइम्‍स ऑफ इंडिया समूह के मालिक समीर जैन भी

कोई भी कहानी कभी भी खत्‍म नहीं होती। बस, हम उसका पीछा करना छोड़ देते हैं। पचास साल पुरानी एक लंबी और जटिल कहानी से मेरी मुलाकात दस साल पहले 2005 में हुई थी जिसका नायक उस वक्‍त 84 साल का था। निर्मलजीत सिंह हूण नाम के इस एनआरआइ के इर्द-गिर्द मुकदमों का जाल था। एक ज़माने में कॉरपोरेट जगत पर राज करने वाले शख्‍स को इस देश के कारोबारियों, पुलिस और न्‍याय व्‍यवस्‍था ने पंगु बनाकर छोड़ दिया था। फिर इस शख्‍स ने इस देश की न्‍याय प्रणाली का परदाफाश करने को अपना मिशन बना लिया। उसके मिशन में से एकाध कहानियां हमने भी उठाकर 2005 में ‘सीनियर इंडिया’ में प्रकाशित की थीं, जिसके बाद प्रतिशोध की कार्रवाई में संपादक आलोक तोमर समेत प्रकाशक और मालिक सबको जेल हो गई। पत्रिका बंद हो गई, आलोकजी गुज़र गए, हूण से हमारा संपर्क टूट गया, लेकिन उनका मिशन जारी रहा।

कोई भी कहानी कभी भी खत्‍म नहीं होती। बस, हम उसका पीछा करना छोड़ देते हैं। पचास साल पुरानी एक लंबी और जटिल कहानी से मेरी मुलाकात दस साल पहले 2005 में हुई थी जिसका नायक उस वक्‍त 84 साल का था। निर्मलजीत सिंह हूण नाम के इस एनआरआइ के इर्द-गिर्द मुकदमों का जाल था। एक ज़माने में कॉरपोरेट जगत पर राज करने वाले शख्‍स को इस देश के कारोबारियों, पुलिस और न्‍याय व्‍यवस्‍था ने पंगु बनाकर छोड़ दिया था। फिर इस शख्‍स ने इस देश की न्‍याय प्रणाली का परदाफाश करने को अपना मिशन बना लिया। उसके मिशन में से एकाध कहानियां हमने भी उठाकर 2005 में ‘सीनियर इंडिया’ में प्रकाशित की थीं, जिसके बाद प्रतिशोध की कार्रवाई में संपादक आलोक तोमर समेत प्रकाशक और मालिक सबको जेल हो गई। पत्रिका बंद हो गई, आलोकजी गुज़र गए, हूण से हमारा संपर्क टूट गया, लेकिन उनका मिशन जारी रहा।

अचानक इतने दिन बाद जब उनकी याद आई और मैंने कहानी के छूटे सिरे को पकड़ना शुरू किया, तो इस खबर पर नज़र पड़ी। पिछले पचास साल से दर्जनों मुकदमे लड़ रहे हूण को 48 साल बाद कलकत्‍ता उच्‍च न्‍यायालय से एक छोटा सा इंसाफ मिला है। उन्‍हें ठगने वाले कारोबारियों के ऊपर कलकत्‍ता पुलिस ने एफआइआर दर्ज की है। हूण अब 18,402 करोड़ रुपए की वसूली के लिए एक और मुकदमा करने जा रहे हैं। भारत के कॉरपोरेट इतिहास में यह सबसे महंगा दीवानी मुकदमा होगा।

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आप पूछ सकते हैं कि इसमें हमारे काम का क्‍या है? मित्रों, 1967 के इस कॉरपोरेट जालसाज़ी वाले मुकदमे में जिन लोगों के खिलाफ़ एफआइआर दर्ज हुई है उनमें इंद्र कुमार गुजराल के भतीजे अमित जाज, उनकी पत्‍नी, टाइम्‍स ऑफ इंडिया समूह के मालिक समीर जैन और उनके दिवंगत पिता अशोक जैन भी हैं। क्‍या किसी मृत व्‍यक्ति के ऊपर एफआइआर हो सकती है? हूण ने एक बार हमें बताया था कि अशोक जैन के जिस विमान हादसे में मारे जाने की खबर बहुप्रचारित है, वह दरअसल फर्जी थी। उन्‍हें फेमा/फेरा में अंदर जाने से बचाने के लिए यह कहानी गढ़ी गई है। अशोक जैन जिंदा हैं।

ऐसे दावों को हम तब भी एक बुजुर्ग की सनक मानकर खारिज करते थे और आज भी इस पर विश्‍वास नहीं होता। सवाल उठता है कि कलकत्‍ता उच्‍च न्‍यायालय के आदेश और कलकत्‍ता पुलिस के एफआइआर का क्‍या मतलब निकाला जाए? इच्‍छुक पत्रकार मित्र अगर इस स्‍टोरी को फॉलो करना चाहें तो उनका स्‍वागत है। अपने जीते जी भारतीय कॉरपोरेट जगत की रंजिशों का ऐतिहासिक दस्‍तावेज बन चुके एन.एस. हूण को आज भी चार दर्जन मुकदमों में इंसाफ़ का इंत़जार है।

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अभिषेक श्रीवास्तव के एफबी वाल से

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