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सुख-दुख

वेस्ट यूपी के प्रतिष्ठित और जुझारू पत्रकार जितेंद्र दीक्षित जी को विकास मिश्र ने यूं दी श्रद्धांजलि

अमर उजाला की मैं तारीफ करूंगा, दीक्षित जी की नौकरी पर कभी आंच नहीं आई… दीक्षित जी चले गए। उनके साथ हम लोगों का एक अभिभावक चला गया। जरूरी नहीं कि जितेंद्र दीक्षित को आप जानते हों। जितेंद्र दीक्षित पश्चिमी उत्तर प्रदेश के प्रतिष्ठित पत्रकार थे, जुझारू शख्सियत थे, अमर उजाला, मेरठ से रिटायर होकर फिलहाल मुजफ्फरनगर में रह रहे थे। दीक्षित जी से मेरा परिचय जनवरी 2000 में हुआ था, जब मैंने अमर उजाला में काम करना शुरू किया था।

स्व. जितेंद्र दीक्षित

अमर उजाला की मैं तारीफ करूंगा, दीक्षित जी की नौकरी पर कभी आंच नहीं आई… दीक्षित जी चले गए। उनके साथ हम लोगों का एक अभिभावक चला गया। जरूरी नहीं कि जितेंद्र दीक्षित को आप जानते हों। जितेंद्र दीक्षित पश्चिमी उत्तर प्रदेश के प्रतिष्ठित पत्रकार थे, जुझारू शख्सियत थे, अमर उजाला, मेरठ से रिटायर होकर फिलहाल मुजफ्फरनगर में रह रहे थे। दीक्षित जी से मेरा परिचय जनवरी 2000 में हुआ था, जब मैंने अमर उजाला में काम करना शुरू किया था।

स्व. जितेंद्र दीक्षित

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दीक्षित जी अमर उजाला मुजफ्फरनगर के ब्यूरो चीफ थे, मैं मुजफ्फरनगर डेस्क पर काम कर रहा था। खबरों पर बातचीत के दौरान ही आत्मीय से रिश्ते बन गए। उसी दौर में दीक्षित जी पर बीमारियों ने हमला कर दिया था। चलने फिरने में दिक्कत होने लगी थी, अमर उजाला ने उनका ट्रांसफर मेरठ कर दिया। दीक्षित जी जब मेरठ आए, तब मैं दैनिक जागरण जा चुका था और वहां सिटी इंचार्ज था। फोन पर बातचीत थी।

एक रोज शाम को उनका फोन आया। बोले-मुजफ्फरनगर के एक परिचित का बेटा एक्सीडेंट में मारा गया है, घर वाले चाहते हैं कि पोस्टमार्टम के बाद बॉडी आज ही मिल जाए। बिना डीएम के दखल के ये होगा नहीं। काम समाजसेवा से जु़ड़ा था। फौरन डीएम को फोन किया, एक्शन हुआ, काम समय से हो गया। इसके बाद से हमारे रिश्ते गहरे होते गए। उनके घर पर आना-जाना शुरू हो गया।

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दीक्षित जी उम्र में हम लोगों से बड़े थे, लिहाजा आसपास के सारे पत्रकारों के घोषित गार्जियन हो गए। उस दौर में अमर उजाला और दैनिक जागरण में गलाकाट प्रतियोगिता थी, लेकिन दीक्षित जी का घर इन सभी बातों से ऊपर था। उनका घर हम लोगों के लिए किसी पुण्य भूमि से कम नहीं था। पत्नी को वो माताजी कहकर बुलाते थे। जब भी कोई आया, चाय की फरमाइश, देर रात तक उनके यहां मजलिस जमी रहती। दर्जन भर से ज्यादा परिवारों का एक बड़ा परिवार बन गया था, जिसके मुखिया थे दीक्षित जी।

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दीक्षित जी बीमारी से जूझ रहे थे। शरीर लगातार उनका साथ छोड़ रहा था, लेकिन गजब का हौसला था उनका। वॉकर के सहारे रोजाना दफ्तर जाते, पूरे दिन काम करते, किसी भी स्वस्थ इंसान से ज्यादा काम करते। ग्रुप एडिटर शशि शेखर भी उनके मुरीद थे। उनके लेख और संपादकीय दीक्षित जी ही टाइप करते थे।

दीक्षित जी ने पत्रकारिता में जो इज्जत कमाई थी, जो रसूख था उनका, वो किसी का सपना हो सकता है। एक बार मेरठ में उनकी तबीयत बिगड़ी थी। मुजफ्फरनगर से तमाम लोग उन्हें देखने आए थे। इन्हीं लोगों में एक सरदार जी भी थे। दीक्षित जी से मिले, बोले-सर, आप मुझे पहचानते नहीं होंगे, लेकिन मैं आपका कायल हूं। मुजफ्फरनगर का कारोबारी हूं। मैं आपके लिए कुछ करना चाहता हूं। दीक्षित जी बोले-आप आ गए, यही काफी है। सरदार जी आमादा हो गए कि उनकी दोनों बेटियों के नाम बैंक में 4-4 लाख रुपये जमा करवाएंगे। दीक्षित जी ने साफ मना कर दिया। वही नहीं, तमाम लोगों ने समय-समय पर दीक्षित जी की मदद करनी चाही, लेकिन ताउम्र उन्होंने किसी की एक पैसे की भी मदद स्वीकार नहीं की।

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दो बेटियां हैं दीक्षित जी की। बड़ी बेटी की शादी मुजफ्फरनगर से हुई थी। शादी में दीक्षित जी, कुर्सी लगाए अपने दर्द को दरकिनार करके मुस्कुरा रहे थे। हम सभी की पत्नियों से कहा-बहूरानियों, तुम्हें शोभा बढ़ाने के लिए बुलाया हूं तो शोभा बढ़ाओ। कुछ साल बाद छोटी बेटी की शादी ढूंढ रहे थे। हमारे ही एक साथी शेषमणि शुक्ल Sheshmani Shukla तब तक अविवाहित थे। मैंने बात चलाई। शेषमणि को दिल्ली बुलाया। पहले तो शेषमणि भड़के, बोले-मैंने इस निगाह से कभी देखा नहीं। मैंने पहले उन्हें समझाया, बाद में दीक्षित जी को। फिर मेरठ में पूरे धूमधाम से ये शादी हुई, हम सपरिवार उसके साक्षी बने।

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मेरठ छूटा, लेकिन दीक्षित जी का साथ नहीं छूटा। जब तक वो मेरठ में रहे, हर होली उनके आशीर्वाद के साथ मनाई। जब भी मेरठ जाता, लौटते वक्त आखिरी पड़ाव दीक्षित जी के यहां होता। रात में वो गजब की खिचड़ी बनवाते, अचार के तेल के साथ परोसवाते। वो स्वाद अभी भी जीभ पर ताजा है।

गजब की कमेस्ट्री थी भाभी जी से उनकी। खुद चलने फिरने में दिक्कत थी तो भाभी जी को आंखों की समस्या थी। लेकिन ये दोनों लोग शारीरिक कष्टों को अपनी मानसिक ताकत से जीत लेते थे। दोनों हमेशा हंसते-मुस्कुराते मिलते थे। दीक्षित जी के चेहरे पर कभी किसी ने कष्ट नहीं देखा, माथे पर शिकन नहीं देखी। उनके घर पर पत्रकारों की जुटान होती थी। उनका घर, सबका घर था। बेडरूम से लेकर किचन तक सबकी एंट्री थी। घर में पहुंचे लोगों से कभी उनका मन नहीं भरता था, ऊबते नहीं थे। किसी के आते ऑर्डर चला जाता था-माताजी, देखिए तो कौन आया है, जरा चाय तो पिलवाइए। गजब के किस्सा गो थे दीक्षित जी। देर रात तक तमाम किस्से सुनाते।

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अमर उजाला अखबार की मैं तारीफ करूंगा कि दीक्षित जी की नौकरी पर कभी आंच नहीं आई। हालांकि दीक्षित जी खुद इतने स्वाभिमानी थे कि बिना काम किए एक रुपया भी उनके लिए हराम था। बाकायदा वो वहां से रिटायर हुए। आदरणीय शंभूनाथ शुक्ल Shambhunath Shukla जी उनके आखिरी संपादक थे। उन्होंने उन्हें घर से काम करने की आजादी दे दी थी।

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रिटायर होने के बाद दीक्षित जी ने मेरठ छोड़ दिया, मुजफ्फरनगर चले गए। शरीर उन्हें लगातार परेशान करता रहा, लेकिन उन्होंने शरीर को कभी बाधा नहीं बनने दिया। फेसबुक पर खूब सक्रिय रहते थे। बेहतरीन आकलन करते थे। फेसबुक के जरिए उनसे लगातार संपर्क बना रहा। हाल ही में उन्होंने अपनी एक वेबसाइट भी ‘असल बात’ के नाम से शुरू की थी। शारीरिक और मानसिक ताकत की इजाजत से वे ज्यादा मेहनत कर रहे थे। दिन रात एक कर दिया था। बुधवार को अचानक सेहत बिगड़ गई। अस्पताल में भर्ती हुए और गुरुवार को दीक्षित जी ने दुनिया को अलविदा कह दिया।

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मैंने आखिरी वक्त में दीक्षित जी को नहीं देखा। शायद देख भी नहीं पाता। असाध्य बीमारी उनके साथ लगी रही, बीमारी ने उनकी जिंदगी छीन ली, लेकिन उनकी मुस्कान कभी छीन नहीं पाई। कल ही उनके निधन का समाचार मिला था। झटका सा लग गया। दफ्तरी जिम्मेदारियों ने पैरों में बेड़ियां डाल रखी थीं। उनकी अंत्येष्टि में भी शामिल नहीं हो पाया। उनका जाना हम सभी के लिए बहुत तकलीफदेह है, लेकिन जब सोचता हूं कि जीवन के साथ लग गए दर्द से भी उन्हें मुक्ति मिली, तो उनके बिछड़ने का ये दर्द कुछ कम हो जाता है। दीक्षित जी का निधन उनके परिवार, उनके परिजनों के लिए बहुत बड़ा सदमा है। ईश्वर परिवार को ये दुख उठाने की ताकत दे। दीक्षित जी का क्या है, वो तो ईश्वर के पास भी मुस्कुराते हुए ही पहुंचे होंगे।

लेखक विकास मिश्र आजतक न्यूच चैनल में वरिष्ठ पद पर कार्यरत हैं.

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