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कानून : सोशल मीडिया पर अब सुप्रीम कोर्ट की भी नजर

सुप्रीम कोर्ट सोशल मीडिया पर नियंत्रण के लिए नया कानून चाहता है. अंग्रेजी दैनिक टाइम्स ऑफ इंडिया में छपी एक रिपोर्ट के अनुसार मकसद अपमानजनक संदेशों के ऑनलाइन प्रसार के कारण सोशल मीडिया का दुरुपयोग रोकना है.

सुप्रीम कोर्ट सोशल मीडिया पर नियंत्रण के लिए नया कानून चाहता है. अंग्रेजी दैनिक टाइम्स ऑफ इंडिया में छपी एक रिपोर्ट के अनुसार मकसद अपमानजनक संदेशों के ऑनलाइन प्रसार के कारण सोशल मीडिया का दुरुपयोग रोकना है.

सर्वोच्च न्यायालय का यह बयान वरिष्ठ एडवोकेट एल नागेश्वर राव की उस सूचना पर आया जिसमें उन्होंने अपने खिलाफ एक संदेश व्हाट्सऐप पर फैलाये जाने की शिकायत की थी. व्हाट्सऐप पर भेजे गए संदेशों में एडवोकेट राव के आईपीसी की धारा 376 यानि बलात्कार के आरोप में फंसे होने की बात लिखी है. इस पर प्रतिक्रिया में सुप्रीम कोर्ट की बेंच ने कहा कि संसद में सोशल मीडिया के दुरुपयोग पर लगाम लगाने वाले नए कानून लाए जाने चाहिए.

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आईटी एक्ट 66ए में सोशल मीडिया पर कमेंट लिखने के लिए भारत में पहले भी बहुत से लोगों की गिरफ्तारी हो चुकी है. इस एक्ट के अंतर्गत सोशल मीडिया पर किसी को पीड़ा और असुविधा पहुंचाने पर तीन साल कैद की सजा का प्रावधान है. आलोचक पुलिस द्वारा इस धारा के इस्तेमाल को अभिव्यक्ति की आजादी का हनन मानते हैं. मार्च 2015 में ही केंद्र सरकार के वकील ने सुप्रीम कोर्ट में आश्वासन दिया था कि सोशल मीडिया पर आपत्तिजनक टिप्पणियों के लिए गिरफ्तारी नहीं होगी, जिसे ऑनलाइन आजादी के लिए एक बड़ा दिन करार दिया गया था.

अब सुप्रीम कोर्ट की बेंच के हवाले से टाइम्स ऑफ इंडिया ने लिखा है, “सेक्शन 66ए को खारिज किया गया क्योंकि वह अस्पष्ट था और उसका मसौदा ठीक से तैयार नहीं हुआ था. हम संसद से एक नया कानून लाने के लिए कह सकते हैं. हम पहले भी संसद को दूसरे मुद्दों पर कानून बनाने के प्रस्ताव दे चुके हैं और हम इस मुद्दे पर भी कानून बनाने का सुझाव दे सकते हैं.”

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अभिव्यक्ति की आजादी के पक्षधर तर्क देते हैं कि 66ए को पूरी तरह खत्म करना ही पूर्ण सुरक्षा दे सकता है. वरना किसी भी तरह की पाबंदी लगने पर पुलिस, प्रशासन या राजनेता किसी मुक्तभाषी व्यक्ति को किसी ना किसी तरह घेरे में ले लेंगे. हाल ही में उत्तर प्रदेश के एक पत्रकार जगेन्द्र सिंह को कथित तौर पर एक मंत्री के खिलाफ लिखी आलोचनात्मक फेसबुक पोस्ट के कारण ही जलाकर मार डाला गया.

मार्च में न्यायमूर्ति जे चेलमेश्वर और न्यायमूर्ति आरएफ नरीमन की खंडपीठ ने कानून की छात्रा श्रेया सिंघल और कुछ गैरसरकारी संगठनों की याचिकाएं स्वीकार करते हुए कहा था कि धारा 66ए असंवैधानिक है और इससे अभिव्य​क्ति की आजादी का हनन होता है. याचिका के खिलाफ सरकार ने कहा था कि साइबर अपराधों से बचने के लिए यह कानून जरूरी है. जनता को इंटरनेट पर आजादी देने से भड़काऊ पोस्ट से आक्रोश फैलने का खतरा रहता है. अब सोशल मीडिया पर निगरानी और नियंत्रण की ऐसी किसी व्यवस्था की दरकार है जिससे उसका दुरुपयोग करने वालों पर लगाम कसी जा सके लेकिन अभिव्यक्ति की आजादी भी बरकरार रहे.

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