अजित साही-
आज से पचास साल पुरानी बात है. मेरा परिवार उत्तर प्रदेश के देवरिया शहर में रहता था जहाँ मेरे पिताजी जज थे. ये ज़माना इंटरनेट, मोबाइल फ़ोन, लैंडलाइन फ़ोन और टीवी से भी पहले का था. लोकल खबर word of mouth से फैला करती थी. उसी दौर में एक फ़िल्म रिलीज़ हुई जिसका नाम था जय संतोषी माँ. पूरा शहर उसे देखने टूट पड़ा. देखते देखते शहर का पूरा माहौल धार्मिक बन गया था. आए दिन जागरण टाइप इवेंट होने लगे. ऐसे में एक दिन एक नई कहानी ने जन्म लिया. हमारे घर पर आई एक महिला ने बहुत भाव-विभोर होकर मेरी माँ को कुछ इस प्रकार की बात बताई…
इलाक़े में एक धार्मिक रोटी ने अवतार लिया था. इस रोटी का कमाल ये था कि इसे एक डिब्बे में पानी में डुबा कर अलग हटा कर रखा गया. इक्कीसवें दिन जब डिब्बा खोला गया तो उसमें एक रोटी एक्स्ट्रा थी. बस, यहाँ से भगवान ने भक्तों से प्रसन्न होकर फ़ुल स्कीम ही शुरू कर दी. डिब्बे में अब जो दो रोटियाँ थीं उन दोनों में वो शक्ति आ गई थी कि जो पहली दिव्य रोटी में थी. लिहाज़ा अब ताबड़तोड़ इन दिव्य रोटियों को एक एक करके लोगों में बाँटा जाने लगा. रोटी पाने वाला हर कोई अपने घर पर उस रोटी को पानी में डुबा कर अलग करके रखने लगा. इक्कीस दिन बाद हरेक ऐसे डिब्बे में एक एक्स्ट्रा रोटी आने लगी.
ज़ाहिर है ये कहानी सुन कर मेरी माताजी भी ख़ासी रोमांचित हो गईं. धार्मिक जादू की कहानी के रोमांच से कौन अछूता रह सकता है? बहुत जल्द शहर में हर कोई इन रोटियों के बारे में बात कर रहा था. हर कोई बता रहा था कि ये खबर बिलकुल पक्की है क्योंकि अलाने ने भी एक रोटी एक्स्ट्रा पैदा की और फ़लाने ने भी.
मेरी उम्र तब कोई सात साल थी. तो इतनी समझ न थी की इस पूरी बकवास को सिरे से रिजेक्ट कर सकूँ. लेकिन मुझे याद है कि इस पूरे प्रकरण पर मेरे मन में कुछ सवाल खड़े हो गए थे जिनके जवाब नहीं मिल रहे थे. पहला सवाल ये था कि क्या किसी ने ऐसी रोटी देखी है? क्योंकि क़िस्सा बताने वालों में कोई ये न कहता था कि मैंने देखी है. दूसरा सवाल ये था, जो पहले सवाल से जुड़ा ही था, कि क्या किसी ने अपने घर पर ये एक्सपेरिमेंट किया था? वो भी कोई क्लेम नहीं करता था. फिर एक सवाल ये भी था कि ये रोटियाँ इक्कीस दिन पानी में डूब कर ख़राब नहीं हो जाती थीं? उस दौर में फ़्रिज आम नहीं होता था. घरों मे खाना उतना ही बनता था जितना ज़्यादा से ज़्यादा दो वक्त में ख़त्म किया जा सके.
लेकिन सबसे बड़ा सवाल ये था कि इस पूरे मामले में धार्मिक औचित्य क्या है? रोटियाँ अगर एक्स्ट्रा हो रही हैं तो फिर क्या? इस घटना के कोई बीस साल बाद गणेश जी एक दिन जगह जगह दूध पीने लगे थे. उसका धार्मिक क्लेम तो फिर भी समझ आ सकता है. लेकिन पानी में डुप्लीकेट हो रही रोटी को कैसे इंटरप्रेट किया जाए?
बहरहाल. मुझे इतना याद है कि मेरी माताजी ने बहुत ज़ोर लगाया कि कहीं जाकर ये रोटी देखी जाए और हो सके तो एक लाई भी जाए. लेकिन मेरे पिताजी जज थे और स्वभाव से नो-नॉनसेंस टाइप थे. ज़रूर उन्होंने इस विचार को वीटो कर दिया होगा. खैर. जैसा कि हम हिंदुओं में होता है, डुप्लीकेट रोटी भी कभी आउट ऑफ़ फ़ैशन हो गई होगी और लोग अगली कहानी पर चिपक गए होंगे.
आज सोचता हूँ तो मुझे समझ आता है दरअसल यही भारतीय समाज की असलियत है. ये एक विशुद्ध अंधविश्वासी, धर्म की चाशनी में डूबा मुल्क है.
इलाहाबाद के कुंभ में कई बार गया हूँ. और एक बार नासिक के कुंभ में भी गया था. जो स्नान का टाइम होता है उस समय लाखों लोगों का बस ये गोल होता है कि किसी तरह जितना हो सके डुबकी लगा लो. पानी में खड़ा हवलदार डंडे चलाता रहता है कि एक डुबकी के बाद लोग बाहर निकलें और दूसरों को मौक़ा दें. और लोग वो डंडा खाकर भी साइड में कट कर फिर डुबकी लगाने लगते हैं.
ये हमारी मूर्खता है कि हम इस क़ौम से उम्मीद करते हैं ये free speech, human rights, civil and political liberties नाम की रोटियों को डुप्लीकेट करने में मुस्तैद होगी. हम आज वहीं हैं जहाँ हम पाँच सौ साल पहले थे.
Vishnu Rajgadia
April 9, 2023 at 5:40 pm
मुझे तो तीसरी चौथी क्लास में पढ़ाई के वक्त ही समझ में आ गया था मामला गड़बड़ है। उसके बाद से हर धर्म के गॉड मेरा इंतजार कर रहे हैं कभी तो बंदा आए। इधर अपनी जिद है कि पहले उन करोड़ों लोगों का भला कर दो, जो दिन रात आराधना इबादत में डूबे रहते हैं। उधर से फुरसत हो तो हम भी अपनी फ़ाइल बढ़ा सकते हैं। फिलहाल इतना ही कर दो कि तीर्थस्थल पर भगदड़ में मरने वालों को बचा लिया करे प्रभु। बहुत बदनामी होती होगी।