
किसी ने कहा था कि सत्ता की विचारधारा ही समाज की विचारधारा होती है। साल भर प्रेस क्लब ऑफ इंडिया की प्रबंधन कमेटी में बतौर निर्वाचित सदस्य इस बात का अहसास मुझे गहरे सालता रहा है, जहां कुल पांच पदाधिकारियों के गिरोह के सामने 16 कार्यकारी सदस्यों की हैसियत मोदी कैबिनेट जैसी थी। साल भर तक मेरे उठाए लिखित सवालों के जवाब देना तो दूर, मेरी लिखित आपत्तियों की पावती तक नहीं दी गई। इसकी वजह बस इतनी सी है कि पुष्पेन्द्र कुलश्रेष्ठ की कमेटी को हटाने के बाद पिछले कुछ वर्षों में क्लब में जितने सत्ता परिवर्तन हुए, सब बोगस थे। किसी न किसी रूप में एक ही कमेटी अलग अलग चेहरों के साथ जीतती रही। पिछले साल मेरा खड़ा होना और जीतना अपवाद था, लेकिन उसका हासिल सिफर रहा। अपने तमाम विरोधों और आपत्तियों को लेकर मैं मीटिंगों में उंगली उठाता रहा, लेकिन सत्ता अपने हिसाब से काम करती रही।
प्रेस क्लब के प्रबंधन में लिखने पढ़ने वालों का घोर अकाल है। वरिष्ठ पत्रकार दिलीप मंडल, कोषाध्यक्ष पद पर खड़े यशवंत सिंह जैसे कुछ और चेहरे हैं जिन्हें जितवाए जाने की जरूरत है ताकि बरसों से चला आ रहा गतिरोध टूटे, क्लब के काम में पारदर्शिता आवे और नीतियों पर कब्ज़ा जमाए बैठे गिरोह का गुजरात मॉडल कमजोर हो। असहमति, असंतोष और अभिव्यक्ति की आखिरी जगह बची है प्रेस क्लब। इसे बचाए रखने के लिए में नए पुराने सदस्यों से आह्वान करता हूं कि अव्वल तो पहले कमेटी में रह चुके किसी भी चेहरे को वोट न दें। दूसरे, दिलीप मंडल, यशवंत सिंह, निर्निमेष कुमार, शंभु, अफ़ज़ल इमाम, शौर्य भौमिक जैसे जुझारू और सम्मानित पत्रकारों को ही अपना वोट दें। वोटिंग 15 दिसंबर को है, भ्रम बहुत है कि किसे वोट दिया जाए। इस सुविधा के लिए कुछ सदस्य मिलकर अपनी तरफ से एक सूची जल्द ही जारी करेंगे जो स्वतंत्र रूप से केवल सीरियस प्रत्याशियों को होगी।
हमारी ऐतिहासिक जिम्मेदारी है कि सत्ताधारी पैनल की कमर तोड़ी जाए, दूसरे पैनलों और स्वतंत्र प्रत्याशियों के बीच से नए लोगों को प्रबंधन में पहुंचाया जाए। जो नारा 2019 के आम चुनाव में लगना है, वही अबकी प्रेस क्लब के लिए भी लगेगा – “अबकी बार खिचड़ी सरकार”! साथ में केवल एक निजी गुज़ारिश है कि वैचारिक असहमतियों को दरकिनार करते हुए सभी सम्मानित मतदाता दिलीप चन्द्र मंडल को ज़रूर जितवाएं। केवल एक संपादक स्तर के आदमी का गैर पत्रकारों के बीच मौजूद होना बड़ा फर्क डाल सकता है।
बीती तीन तारीख नामांकन की आखिरी तिथि थी। सात तारीख नामांकन रद्द करवाने की आखिरी तिथि थी। आज नौ है। आश्चर्य और संशय दोनों है कि आखिर सदस्यों को अब तक यह आधिकारिक सूचना क्यों नहीं दी गई कि प्रेस क्लब में चुनाव 15 दिसंबर को है। बीते पांच दिन में कम से कम 50 ऐसे सदस्य हैं जिन्होंने मुझे बताया कि उन्हें पता ही नहीं है कि चुनाव हो रहा है। इनमें सबसे ज्यादा नए बने सदस्य हैं और कुछ पुराने भी हैं।
प्रेस क्लब का प्रबंधन हर इतवार बनने वाले विशिष्ट व्यंजनों की हफ्तावार मेल भेजता है। उसमें आज तक कभी कोई चूक नहीं हुई। आखिर क्या वजह है कि चुनाव की अधिसूचना की मेल सभी सदस्यों को नहीं भेजी गई? मान लें कि नए सदस्यों का डेटाबेस अपडेट नहीं हुआ, लेकिन पुरानों का क्या? और अपडेट न होने की वजह क्या है, जबकि कुल पांच दिन मतदान के हैं और वोटरों की अद्यतन सूची अब तक तैयार हो जानी चाहिए थी? आपने कहीं भी सुना है कि वोटर सूची मतदान से पांच दिन पहले तक अनुपलब्ध है? आपने कहीं भी सुना है किसी को मतदान से पांच दिन पहले पूछते हुए- “अरे, चुनाव है क्या? मुझे तो कोई मेल नहीं मिला?”
प्रेस क्लब का मौजूदा प्रबंधन बीते सात साल से चले आ रहे एक गिरोह का ही विस्तार है। चेहरे बदलते हैं, सत्ता का केंद्र वही रहता है- अपारदर्शी, गैर-जवाबदेह और एरोगेंट। ज़रूरत है कि इस सूरत को बदला जाए। गुज़ारिश है कि कार्यकारिणी के कुल 16 प्रत्याशियों में से भले केवल एक को वोट दें लेकिन सोच-समझ कर दें। इससे आपके एक वोट का वज़न सोलह गुना हो जाएगा और प्रत्याशी के जीतने की संभावना बढ़ जाएगी। जहां तक प्रबंधन के पांच पदों का सवाल है तो उपाध्यक्ष पर कोई चुनौती ही नहीं है। बचे चार, तो चारों उसी पुराने गिरोह का हिस्सा हैं। इन्हें वोट देकर क्यों अपने हाथ गंदे किए जाएं बिना मतलब।
सितंबर में प्रेस क्लब के सदस्यों की आम वार्षिक सभा यानी जीबीएम रखी गई थी। जीबीएम की कार्रवाई अंग्रेज़ी में चल रही थी, तभी एक वरिष्ठ सदस्य ने हस्तक्षेप करते हुए अध्यक्ष गौतम लाहिड़ी से कहा कि आप लोग हिंदी में भी बोलने की कोशिश कीजिए क्योंकि यहां अधिकांश सदस्य हिंदीभाषी हैं। इस हस्तक्षेप पर अध्यक्ष या अध्यक्षमंडल की ओर से कोई जवाब आता, उससे पहले ही महुआ चटर्जी ने चिल्लाते हुए कहा, ”बैठ जाओ, प्रेस क्लब की भाषा हिंदी नहीं है।” इस बेहूदा जवाब पर वरिष्ठ पत्रकार अनिल चमडि़या ने जब आपत्ति की, तो शोर मचाकर उन्हें चुप करा दिया गया।
प्रेस क्लब ऑफ इंडिया में पिछले सात साल से प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से कब्ज़ा जमाए गिरोह की ओर से इस बार महासचिव पद पर महुआ चटर्जी प्रत्याशी हैं। इस पैनल में अध्यक्ष पद पर भी गैर-हिंदीभाषी पत्रकार अनंत बगैतकर खड़ा है। इस सत्ताधारी पैनल में कोषाध्यक्ष और संयुक्त सचिव पद पर बेशक हिंदीभाषी पत्रकार हैं, लेकिन इन दोनों को ऑफिशियली ये लोग ‘बाउंसर’ और ‘लठैत’ कह कर परोक्ष रूप से हिंदीभाषी पत्रकारों को अपमानित करते रहे हैं। एक परंपरा सी बन गई है कि अध्यक्ष-महासचिव अंग्रेज़ीभाषी पत्रकार हों (वो भी प्रमुखत: बंगाली या मलयाली) और कोई एक या दो पदाधिकारी हिंदी से हो जो इनके लठैत की भूमिका निभाता रहे।
भाषा का सवाल प्रेस क्लब जैसी संस्था के लिए अहम है। हम इस बात को अफोर्ड नहीं कर सकते कि ‘’प्रेस क्लब की भाषा हिंदी नहीं है’’ कहने वाले पत्रकार के हाथ में क्लब चला जाए। यह भी मंजूर नहीं कि हिंदी का पत्रकार दोयम दरजे की भूमिका में अंग्रेज़ीवालों का ‘लठैत’ बना रहे। इसलिए सादर अपील है कि महुआ-अनंत पैनल को तो बिलकुल वोट न दें। यह कुल्हाड़ी पर अपने पैर मारने जैसा काम होगा। दूसरी ओर निर्निमेष कुमार के सेंट्रल पैनल में देखिए, आपको कई खांटी हिंदी पत्रकार खड़े दिखेंगे। उन्हें वोट दें। सोलह की कार्यकारिणी में हिंदी के वरिष्ठ संपादक दिलीप मंडल खड़े हैं। उन्हें वोट दें। इस बार आपने अगर गिरोह के कब्ज़े से क्लब को मुक्त नहीं कराया तो जान जाइए, आगे से हिंदी के पत्रकारों को छांट-छांट कर अलग-अलग बहानों से क्लब से बाहर किया जाएगा, जैसा अतीत में किया गया है। दूसरे, हिंदी पत्रकारों का प्रवेश भी ये लोग वर्जित कर देंगे।
सरोकारी और बेबाक पत्रकार अभिषेक श्रीवास्तव की फेसबुक वॉल पर प्रकाशित तीन अलग-अलग पोस्टों का संपादित अंश.
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