भारतीय राजनीति की ‘रमणीकता’ जगजाहिर है। इसकी वैचारिक छंटाएँ सबको अनुप्राणित/प्रभावित करती हैं। इसलिये हर कोई इस ओर खींचा चला आता है। कोई छात्रजीवन से, कोई नौकरी छोड़कर तो कोई अवकाशप्राप्ति के बाद। बहुत ऐसे हैं जो पेशेवर सफलता हासिल करने के बाद इस ओर मुखातिब होते हैं। इससे कहीं राष्ट्रहित सधा है तो कहीं निःसंदेह गच्चा भी खाया है। भले ही कई देशों की राजनैतिक विशेषताएं इसमें समाहित हैं, और कुछ अनोखी पहचान इसकी भी बनी है। लेकिन नई आर्थिक नीतियों के लागू होने के बाद जीवन यापन के अन्य क्षेत्रों की तरह इस क्षेत्र में भी जो अमर्यादित भेड़ियाधसान वाली मुहिम परवान चढ़ी है, उससे प्रबुद्ध और संवेदनशील भारतीय आहत हुए हैं। वक्त वक्त पर उन्होंने अपनी भड़ास भी निकाली है। ताजातरीन उदाहरण सेना प्रमुख जनरल विपिन रावत हैं। श्री रावत ने दो टूक कहा कि सेना को राजनीति से अलग रखें।
लेकिन आपकी स्मृति ताजा करते चलें कि श्री रावत के पूर्ववर्ती जनरलों में से एक जनरल वी के सिंह ने ऐसी दूरदृष्टि भरी राजनीति की, कि अवकाशप्राप्ति के बाद आज वो न केवल गाजियाबाद से सांसद बने, बल्कि विदेश राज्यमंत्री भी हैं। भारतीय राजनीति में बहुतेरे ऐसे ध्रुवतारे थे, हैं और रहेंगे, जिनने अपनी संवैधानिक स्थिति अथवा प्रशासनिक पदों का सदुपयोग-दुरुपयोग भारतीय राजनीति में सक्रिय व्यक्तिविशेष, पार्टीविशेष के लिये सुनियोजित रूप से किया और सफल भी रहे। बाद की राजनैतिक परिस्थितियां गवाह हैं कि उन्हें और उनके समूह को येन केन प्रकारेण उपकृत भी किया गया, किया जा रहा है और किया जाएगा, स्थापित परंपराओं के आलोक में।
यहां यह बताना जरूरी है कि एक तरफ तो राजनेताओं की योग्यता डिग्री के मामले में शून्य रखी हुई है, दूसरी तरफ कुशल राजनैतिक/प्रशासनिक संचालन के लिये हर क्षेत्र की सफल प्रतिभाओं का द्वार राजनीति के लिये खुला रखा गया है। प्रारम्भिक तौर पर कुछ उम्र और आचरण की बंदिशें हैं, लेकिन एक बार निर्वाचित होने के बाद अवकाशप्राप्ति की कोई बंदिश नहीं! विशेषाधिकार ऐसे ऐसे कि यदा कदा इंसानियत/मानवता भी शरमा उठती है। इस आलोक में कतिपय सवाल लाजिमी है।
पहला, सिर्फ सेना ही क्यों, मेरी मानें तो नौकरशाही, न्यायपालिका, मीडिया, उद्योग जगत, खेल-फ़िल्म सेलिब्रिटीज आदि तमाम नामचीन लोगों को राजनीति से अलग रखना चाहिए। यह इन जैसों का पुनीत दायित्व बनता है कि पेशेवर रूप से सफल होने के बाद भी ये लोग सक्रिय राजनीति से अलग रहकर स्वस्थ राजनीति और परिपक्व लोकतंत्र के निमित्त प्रगतिशील कानून बनवाने में अपना अहम योगदान दें, जिसका फिलवक्त सर्वथा अभाव दिख रहा है। कहना न होगा कि आजकल भारतीय राजनीति और लोकतंत्र एक अजीब संकमण से ग्रस्त और कुछ मामलों में त्रस्त भी है।
देखा और पाया जा रहा है कि कतिपय ‘शातिर’ राजनेताओं/कार्यकर्ताओं के समक्ष दुम हिलाने वाले सफल लोग अपने धनबल, बाहुबल, बुद्धिबल (प्रशासनिक नेटवर्क और व्यक्तिगत पहुंच) का फायदा उठाते हुए बेधड़क तौर पर निर्वाचित होकर संसद, मतलब कि राज्यसभा और लोकसभा में प्रवेश कर रहे हैं। यही नहीं, विधानमंडल मतलब कि विधान परिषद और विधान सभा भी उन जैसों से भरी पड़ी है। हद तो यह कि त्रिस्तरीय पंचायती राजव्यवस्था में भी इन जैसों का हस्तक्षेप बढ़ा है। उनके ‘शागिर्दों’ की संख्या भी दिनप्रतिदिन यहां भी बढ़ रही है। इस तरह से भारतीय लोकतंत्र के ‘धनपशुओं’ के हवाले होने का खतरा मंडरा रहा है!
दो टूक कहा जाय तो राजनैतिक प्रतिष्ठानों में इनकी, इनके मातहतों की या फिर इन जैसों की बढ़ती पैठ से लोककल्याणकारी राजनीति और जनकल्याणकारी नीतियों का दौर न केवल प्रभावित हुआ, बल्कि कुंठित हो रहा है। आलम यह है कि चुनावी एजेंडे से जनसरोकार गौण होता जा रहा है, और भावनात्मक व जनविभाजक मुद्दे हावी होते जा रहे हैं। किसी भी तरह से बहुमत हासिल करने की जो अनैतिक राजनैतिक घुड़दौड़ जारी है, उसका राजनैतिक ऊँट भविष्य में किस करवट बैठेगा, कुछ कहा नहीं जा सकता?
यही नहीं, इनकी कतिपय ओछी हरकतों से भारतीय लोकतंत्र पर नक्सलवाद, आतंकवाद और विदेशी आक्रमण का खतरा भी निरन्तर मंडरा रहा है। इनकी जातीय, साम्प्रदायिक, क्षेत्रीय और सम्पर्कगत गोलबन्दी वाली स्थिति भी दुर्भाग्यपूर्ण है। कुल मिलाकर फलसफा यह निकल रहा है कि अब राजनीति में सफलता के लिये धनबल, बाहुबल, तकनीकबल और नेटवर्कबल जरूरी हो गया है। इससे आमलोगों की राजनीति हासिये पर लुढ़कने को अभिशप्त है।
हैरत की बात तो यह है कि सफल नेताओं और उनके सम्पर्कजनों की आय में बेतहाशा वृद्धि हो रही है, जबकि जनसुविधाएं निरन्तर कम पड़ती जा रही हैं अथवा इनमें कमी की जा रही है। दुर्भाग्य यह भी कि सुप्रसिद्ध लोग भी कानूनी छिद्रों का लाभ उठाकर वाजिब कर देने से या तो बच निकलते या फिर कम कर देते हैं। ऐसी वीभत्स राजनैतिक परिस्थिति में सवाल बहुत है और उत्तर नदारत? धन्य हैं रावत जी, जिनने कम से कम बेवाकी तो दिखाई, वरना नौकरशाही, न्यायपालिका, मीडिया, उद्योग आदि जगत के ‘मुगलों’ ने तो लगभग चुप्पी ही साध रखी है। ‘मूढ़’ अवाम ‘गदहे’ की तरह ढिंचु ढिंचु जैसे नारे भी लगा रही है और इनके बेतुके वैचारिक बोझ को ढो भी रही है। काश! राजनैतिक घाटों और वैचारिक पाटों से को नई मुहिम पैदा होती।
कमलेश पांडे
वरिष्ठ पत्रकार
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