विकास संवाद संस्था द्बारा प्रतिवर्ष की भांति इस वर्ष भी एक ऐसे ही महीन विषय पर तीन दिवसीय संगोष्ठी राजा राम की नगरी ओरछा (अमर रिसार्ट) में 18 से 20 अगस्त तक आयोजित हुई। यह 11वां राष्ट्रीय मीडिया संवाद था। विषय ‘मीडिया, बच्चे और असहिष्णुता’ रखा गया। इसमें देश के मूर्धन्य पत्रकारों सहित तकरीबन 125 पत्रकारों ने सहभागिता निभाई। सर्वप्रथम सभी के परिचय के साथ विकास संवाद के राकेश दीवान ने इसकी भूमिका रखते हुए बच्चों के स्कूली बोझिल वातावरण का जिक्र किया जोकि न सिर्फ शिक्षा बल्कि उनके स्वास्थ्य पर भी बुरा असर डाल रहा है।
इस मसले को लेकर मीडिया कितना सजग व सरकार एवं समाज कितना सहिष्णु है, की बात रेखांकित की। स्वागत उदबोधन में पूर्व स्थानीय विधायक बृजेन्द्र सिंह राठौर ने कहा कि ओरछा ऐतिहासिक विरासत, धार्मिक-सांस्कृतिक धरोहर और खनिज संसाधनों की सम्पन्नता के बाद भी क्यों विपन्न रह गया? आप सभी विद्वान पत्रकार जरूर इस पर यहां विचार करेंगे। दतिया के डॉ. रामप्रकाश भोन्गुला ने इस इलाके के इतिहास को विस्तार से रेखांकित किया जो उपयोगी था, मगर अधिक विस्तारित होने से उबाऊ हो गया था।
बहरहाल, पहले दिन का विषय ‘असहिष्णुता और हम सब’ था जिसके लिए आमंत्रित विद्वान सिद्धार्थ वरदराजन ने असहिष्णुता के सामाजिक, सांस्कृतिक और ऐतिहासिक बिन्दुओं पर प्रकाश डालते हुए बताया कि कैसे असहिष्णुता पसर रही है। उन्होंने इसके पक्षों को उदाहरणों के जरिए रखा। वरदराजन ‘वायर’ नाम से वेब पोर्टल चलाते हैं। एक दूसरे टीवी पत्रकार विनोद शर्मा ने असहिष्णुता की राजनीति को पड़ोसी मुल्कों के माध्यम से हमारे असहिष्णु होते जाने और अतिरेक में जीने के मुगालते का जिक्र किया। लेकिन उनके उदबोधन में अंतरद्वंद्व नजर आया। उन्होंने कहा जब वे पाकिस्तान में थे और मुस्लिम बस्तियों के घिरे इलाके में थे तो उन्हें बतौर हिन्दू ऐसी कोई कठिनाई नजर नहीं आई जिसको भारत में पैदा किया जाता है। लेकिन जब उन्होंने भारतीय समाज की बात रखी तो सरकार को आड़े हाथों लेते हुए यह कहा कि ‘हम पाकिस्तान होना क्यों चाहते हैं’ यानि कट्टरता ओढ़ना चाहते हैं। सवाल है कि वे एक तरफ पाकिस्तानी समाज को सहिष्णु बताने की वकालत करते नजर आये तो वहीं भारत के पाकिस्तान बनने की खिल्ली उड़ाते भी। यानि ‘उसी से ठंडा उसी से गरम’ मगर उन्होंने जब कहा ‘यह मेरा सत्य है और सबका अपना-अपना सत्य होता है’ तो बात भी गले उतरने वाली नहीं थी, क्योंकि सत्य तो सत्य होता है। सत्य निरपेक्ष और अंतिम होता है। हां वे इसे अपना अनुभव बताते तो और बात होती।
बहरहाल, उनके वक्तव्य से सदन चायकाल के दौरान अधिकतर असहमत दिखा। बाद में इसी मुद्दे पर राकेश दीक्षित और चंद्रकांत नायडू ने हस्तक्षेप किया। राकेश दीक्षित ने बताया कि कैसे वे कम्युनिष्ट विचारधारा की ओर बढ़े फिर जुड़े। मूलत: वे वैसे नहीं थे। भारत का डोकलाम में चीन के विरुद्ध खड़ा रहना और टीवी चैनलों पर रिटायर्ड सेना के अफसरों द्बारा चीन से निपट लेने की बात दोहराना अपनी क्षमता सही आंकलन नहीं होना है। हमें सहिष्णु होना चाहिए। बातचीत ही संवाद का रास्ता है। सवाल है कि चीन सीमा समझौते का अतिक्रमण करते हुए अड़ा है तो वह सहिष्णु है और भारत उसका प्रतिरोध कर रहा तो वह असहिष्णु कैसे हो जाएगा? युद्ध से क्या किसका फायदा होगा यह और बात है, लेकिन चीन के राष्ट्रपति सेना की वर्दी पहन सेना की परेड़ कराते दिखें, उनका सरकारी अखबार रोज आंख तरेरता दिखाई दे तो क्या हम चीन जो चाहे वो करने दें यही उचित होगा? सवाल है कि आखिर सहिष्णुता की कोई सीमा नहीं होनी चाहिए क्या?
अगले दिन का विषय था ‘असहिष्णुता और बच्चे’ इस पर पत्रकार पीयूष बबेले ने बच्चों के साथ हो रहे असंवेदनशील व्यवहार को रेखांकित किया और कहा कि उनके साथ संवाद उनके अनुसार नहीं बल्कि हम पेरेंटस और प्राध्यापक अपने मन का करना चाहते हैं। एक उदाहरण से बच्चों के प्रति समाज के व्यवहार को उदृत किया कि बसों में आधी सवारी यानि बच्चों को सीट न देने की लिखित घोषणा चस्पा रहती है। क्या इस विषय पर उच्च न्यायालय में पीआईएल नहीं लगनी चाहिए, ताकि बच्चों के प्रति ऐसे असहिष्णु व्यवहार को रोका जा सके। पश्चात चिन्मय मिश्र ने बहुत ही मार्मिक उदबोधन में बच्चों के प्रति समाज की असहिष्णुता को विभिन्न उदाहरणों के जरिए सदन में रखा जिससे चर्चा ने गंभीर और सार्थक दिशा पा ली।
बच्चों के साथ बड़ी असहिष्णुता उनके स्कूली शिक्षा के माध्यम को लेकर हो रही है। जो बच्चा हिन्दी में सारे बोध जानता समझता है उसे शिक्षा हासिल करने के लिए अंग्रेजी माध्यम में पढ़ने के लिए क्यों झोंका जा रहा है। स्कूल ही वह संस्थान है जहां से बच्चे के व्यक्तित्व का बड़ा हिस्सा बनता बिगड़ता है। लेकिन अंग्रेजी माध्यम की रंटत विद्या में वह कहीं का नहीं रह जाता। स्कूलों के बोझिल वातावरण की तस्दीक करनी हो तो छुट्टी होने पर बच्चों के चेहरों को गौर से देखिए तो उनमे स्कूल के दौरान सर्वाधिक प्रसन्नता झलकती है, जो इस बात की गवाही कि कितने बोझिल वातावरण में बच्चे अध्ययन कर रहे हैं। बकौल शकील जमाली-
”सफर से लौट जाना चाहता है, परिंदा आशियाना चाहता है,
कोई स्कूल की घंटी बजा दो, ये बच्चा मुस्कुराना चाहता है।’’
इसके दूसरे हिस्से का विषय था ‘रचा जाता सत्य’ यानि कैसे फेक न्यूज के जरिए ‘पोस्ट ट्रुथ’ को पेश कर भ्रम फैलाया जा रहा है। इस पर अरविंद मोहन ने कहा कि मीडिया कॉन्सेप्ट का उदय ही हिटलर के दौर में जर्मनी में हुआ जहां हिटलर को बेहतर बता कर पेश किया जा रहा था। उन्होंने कहा कि भले पूर्व पीएम मनमोहन सिंह में सम्मोहन नहीं था लेकिन मीडिया मोदी में सम्मोहन पैदा करने की निरंतर कोशिशें कर रहा है। अर्थनीति को भी बतौर सम्मोहन देश के सामने पेश किया जा रहा है। अरुण त्रिपाठी जो गांधी विश्वविद्यालय वर्धा प्रोफेसर हैं ने लोकपाल की हिमायत करने वाली भाजपा अब सत्ता में है फिर भी 3 साल बीत गए लोकपाल का रता-पता नहीं। आनंद प्रधान ने भी ‘पोस्ट ट्रुथ’ पर कहा कि कैसे मीडिया के एक हिस्से द्वारा उत्तरसत्य रचा जा रहा है। प्रकाश हिन्दुस्तानी ने भी महत्वपूर्ण विचार और अनुभव साझा किए। न्यूज इंडिया18 चैनल के एंकर सुमित अवस्थी ने बड़ी साफगोई से मीडिया के पीछे का सत्य उदघाटित किया कि कैसे कई बार न चाहते हुए भी खबरों को आर्थिक हितों के मद्देनजर लेना-छोड़ना पड़ता है। सुबह-सबेरे के संपादक गिरीश उपध्याय ने पूरे सेमिनार के दूसरे पहलू को भी देखने की वकालत की जिससे चर्चा को संतुलित दृष्टि देने में सहायता मिली। यशवंत, संदीप नाईक, सूर्यकांत पाठक ने भी अपना दृष्टिकोण रखा।
विकास संवाद के सचिन जैन आखिरी दिन संवाद में उपजे कुछ वैचारिक अंतर्विरोधों पर अपनी दृष्टि रखी. इस दरमियान वे तब भावुक हो उठे जब उन्होंने अपने दो वरिष्ठ सहयोगियों राकेश दीवान और चिन्मय मिश्र के अप्रतिम सहयोग व साथ का जिक्र किया।
श्रीश पांडेय
Shrish Pandey
फीचर सम्पादक
मध्य प्रदेश जनसंदेश
[email protected]
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