घुमंतू की डायरी अब बंद हो गयी क्योंकि इसे लिखने वाला फक्कड़ पत्रकार 19 जनवरी-2018 की रात ना जाने कब दुनिया छोड़ गया। दिल में यह हसरत लिये कि अभी बहुत कुछ लिखना-पढ़ना है। पत्रकारिता के फकीर अम्बरीश शुक्ल का हम सब को यूं छोडकर चले जाना बहुत खल गया। हिन्दी पत्रकारिता के पुरोधा अमर शहीद गणेश शंकर विद्यार्थी के शहर कानपुर में 35 साल से अधिक (मेरी अल्प जानकारी के मुताबिक) वक्त से फक्कड़ और घुमन्तू पत्रकारिता के झण्डाबरदार अम्बरीश दादा, चलते फिरते खुद में एक संस्था थे।
उन्हें किसी एक संस्थान में बांधना ठीक न होगा। नवभारत टाइम्स के सांध्य संस्करण से शुरू हुआ खांटी पत्रकारिता का यह सफर राष्ट्रीय सहारा तक जारी रहा। बीच में स्वतंत्र भारत के कार्यकारी स्थानीय संपादक, इंडिया टुडे में धारदार लेखन, समाचार ए़जेंसी हिन्दुस्तान समाचार जैसे अनेक पड़ाव भी इस सफर के साक्षी बने। संघर्ष भी उन्हें डिगा नहीं पाया। कनपुरियापन और ठेठ मारक पत्रकारिता दोनों उनके अमोघ अस्त्र रहे। अड्डेबाजी, घण्टाघर की बैठकी तो मौत ही रोक पायी। दुनिया से विदा लेने से एक दिन पहले तक घण्टाघर गए। गली नुक्कड़ चौपाल में चाय लड़ाई।
उनकी अंतिम यात्रा में उनके समकक्ष लोगों के साथ साथ हमारे जैसे उनके अनुजवत भी शरीक थे। अभी 15 दिन पहले ही कुमार भाई (वरिष्ठ पत्रकार कृष्ण कुमार त्रिपाठी) को मिले तो अपने विनोदी स्वभाव के मुताबिक कुमार भाई ने पूछ लिया अंतिम इच्छा तो बताअो गुरू…तपाक से बोल पड़े बस इच्छा यही कि जाते जाते किसी को बल्ली करके जाएं और हंस पड़े। उधर अम्बरीश जी चिरशैया पर लेटे थे, इधर कुमार भाई यह प्रसंग सुनाकर भावुक हो पड़े। वरिष्ठ फोटो जर्नलिस्ट श्याम गुप्ता ने एक और संस्मरण छेड़ा जो अम्बरीश दादा की दिलेरी का परिचायक था। बात मुलायम सिंह के पहले मुख्यमंत्रित्वकाल की है, मुलायम सिंह कानपुर के दौरे पर आए थे, स्वदेशी हाउस (कमिश्नर का दफ्तर) में प्रेस कान्फ्रेंस थी।
अम्बरीश जी के तीखे सवालों से मुलायम सिंह तिलमिला गए….पूछा पंडित जी किस अखबार में हो? अम्बरीश जी का जवाब था…अखबार तो बदलते रहते हैं नेता जी, नाम अम्बरीश शुक्ल है, फिलहाल तो एक घण्टे तक स्वतंत्र भारत में हूँ।
अम्बरीश जी का यह अन्दाज युवा पत्रकारों के लिए अंदाज-ए-बयां बना। अम्बरीश जी के साथ वर्षों तक काम कर चुके वरिष्ठ पत्रकार सुरेश त्रिवदी, अोम चौहान, प्रमेन्द्र साहू और वरिष्ठ पत्रकार अंजनी निगम जी जैसे कई साथियों ने इसकी तस्दीक भी की और कई ऐसे संस्मरण भी सुनाए जो उनके फफ्कड़पन, दिलेरी और बिना लागडाट के सिर्फ और सिर्फ पत्रकारिता के लिए उनके समर्पण की पुष्टि भी करते हैं। यूं भी कह सकते हैं कि अम्बरीश दादा एक पत्रकार थे और पत्रकारिता ही ओढ़ते और बिछाते थे।
वरिष्ठ पत्रकार दुर्गेन्द चौहान की फेसबुक वॉल से।