बात दिल की है. कहानी लंबी है. पढ़ेंगे तो जानेंगे ‘मेरी’ हकीकत क्या है… इन दिनों मीडिया का बोलबाला है. मीडियाकर्मी होना बड़ा चार्मिंग लगता है. लेकिन इस व्यवस्था के भीतर यदि झांक कर देखा जाए तो पता चलेगा, जो पत्रकार जमाने के दुःख दर्द को उठाता है, वो खुद बहुत मुश्किल में फंसा है. पत्रकारों को समाज अब बुरे का प्रतीक मानने लगा है. हम कहीं दिख जाएं तो लोग देखते ही पहला सवाल करते हैं- मुस्तफा भाई, खैरियत तो है… आज यहाँ कैसे? यानि यहाँ ज़रूर कुछ झंझट है, इसलिए आये हैं.
एक अहम बात और है. दुकानदार हमें उधार देने से डरते हैं. बाज़ार में नगद रूपए लेकर भी कुछ खरीदने चले जाओ तो कई बार दुकानदार कह देता है ये वस्तु मेरे यहाँ नहीं है. रही बैंक की तो बैंक में ये गाईड लाइन फिक्स है कि पत्रकारों को लोन नहीं देना है क्योंकि इन्होंने लौटाया नहीं तो इनका क्या हम करेंगे? लोग धंधे व्यापार की बात हमारे सामने करने से परहेज करते हैं. किसी का हाल पूछो तो वो ऐसे बताएगा जैसे दुनिया का सबसे पीड़ित और दुखी व्यक्ति वही है क्योंकि उसे पता है यदि अच्छा बता दिया तो न मालूम क्या होगा.
यह तो समाज का आईना है. यदि प्रोफेशन की बात करें तो बड़ी बड़ी खबरें लिखने वाले पत्रकारों को एक दिहाड़ी मजदूर के बराबर तनख्वाह भी नहीं मिलती.
इसमें ज़्यादा बदतर हालत है आंचलिक पत्रकारों की. हम अधिकारियों और पुलिस वालों के साथ खड़े हुए दिखते हैं तो लोग सोचते हैं, इसकी खूब चलती है. लेकिन हकीकत यह है कि पास खड़ा अफसर या नेता सोचता है ये कब निकले. खबरों के लिए हमेशा ऊपर ताको. ऊपर वाले का आप पर लाड हो तो ठीक. वरना आपकी चाहे जितनी बड़ी खबर हो, रद्दी की टोकरी में जायेगी. आप रोते बिलखते रहो, खबर नहीं लगी. खबर जिनसे जुडी है, नहीं लगने पर कह देंगे- सेटलमेंट कर लिया, इसलिए नहीं लगाई. अब उन्हें कैसे समझाएं कि भाई ऊपर की कथा कहानी अलग है. मुस्तफा भाई ने तो खबर पेल दी थी, रोये भी थे, लेकिन नहीं लगी तो क्या करें.
अब रिश्तों की बात करें तो मेरी आँख से पट्टी उस दिन हटी जब मैंने अपने दोस्त पुलिस अफसर को फोन लगाया. मेरा इनसे बीस साल पुराना याराना था. एक दिन दूसरे शहर में उनसे मिलने के लिए फोन लगाया तो वे बोले मैं बाहर हूं. इत्तेफाक से मैं जहां खड़ा रहकर फोन लगा रहा था, वे वहीं खड़े थे और अपने सहयोगी से कह रहे थे कि मुस्तफा मिले तो मेरी लोकेशन मत बताना. वह सहयोगी मुझे देख रहा था क्योंकि वो भी मेरा परिचित था. उसने यह बात बाद में मुझे बता दी. मैंने जब उनका इतना प्रेम देखा तो समझ में आया कि लोग बिठाकर जल्दी से चाय इसलिए मंगवाते हैं ताकि इनको फूटाओ. हम उसे याराना समझ लेते हैं और ज़िन्दगी भर इस खुशफहमी में जीते हैं कि हमें ज़माना जानता है.
इन्ही सब हालात के चलते अब स्थिति यह है कि मैंने तय किया कि जो नहीं जानता उसको कभी मत खुद को पत्रकार बताओ. ये बताने के बाद उसका नजरिया बदलेगा और आप उसे साक्षात यमदूत नज़र आने लगोगे. यह कुछ ज़मीनी हकीकत है जो बीस बाईस साल कलम घिसने के बाद सामने आयी है. पहले मैं सोचता था कि जिसे कोई काम नहीं मिलता वो स्कूल में मास्टर बन जाता है. लेकिन अब मेरी यह धारणा बदल गयी है. मेरा सोचना है कि जिसे कोई काम न मिले वो पत्रकार बने, वो भी आंचलिक. खबर छपे तो आरोप लग जाए कि पैसे मांगे थे, न दिए तो छाप दिया. न छपे तो कह दे, पैसे लेकर दबा दिया. यानि इधर खाई इधर कुआं.
देश में सुर्खियां पाने वाली अधिकाँश बड़ी खबरें नीचे से यानि अंचल से निकलती उठती हैं. लेकिन जब खबर बड़ी होती है तो माथे पर सेहरा दिल्ली भोपाल वाले बांधते हैं. आंचलिक पत्रकार की आवाज़ नक्कारखाने में तूती की तरह हो जाती है. उसकी कौन सुन रहा है. मैंने देखा जब स्व. सुंदरलाल पटवा का देवलोक गमन हुआ तब उनकी अंत्येष्टि पर पूरा मीडिया लगा था. दिल्ली भोपाल के पत्रकार अपने लाइव फोनो में न जाने क्या क्या कह रहे थे. लेकिन जिन आंचलिक पत्रकारों ने स्व. पटवा को कुकड़ेश्वर की गलियों मे घूमते देखा, उनके साथ जीवन जिया, किसी चैनल वाले ने यह ज़हमत नहीं की कि अपने आंचलिक स्ट्रिंगर/रिपोर्टर की भी सुन ले. स्व.पटवा से जुडी बातें वो बेहतर बता पायेगा. किसी चैनल ने ये भी नहीं दिखाया कि कुकड़ेश्वर नीमच में उनके देवलोक गमन के बाद क्या हालात है. हर कोई सीएम और मंत्रिमंडल के सदस्यों के साथ अपने अज़ीज़ रिपोर्टर की वॉक स्पोक दिखा रहा था.
प्रदेश में कई पत्रकार संगठन हैं. वे बड़े बड़े दावे आंचलिक पत्रकारों की भलाई के लिए करते हैं. लेकिन जिन पत्रकारों को पच्चीस पच्चीस साल कलम घिसते हुए हो गए, ऐसे हज़ारों पत्रकार हैं जिनका अधिमान्यता का कार्ड नहीं बन पाया. कार्ड तो छोड़िये, जिले का जनसंपर्क अधिकारी उसे पत्रकार मानने को तैयार नहीं. फिर भी हम जमीनी पत्रकार और चौथा खंभा होने की खुशफहमी पाले बैठे हैं. हम हर रोज मरकर जीते हैं और फिर किसी को इन्साफ दिलाने की लड़ाई लड़कर खुद को संतुष्ट कर लेते हैं.
लेखक मुस्तफा हुसैन नीमच के पत्रकार हैं. वे 24 वर्षों से मीडिया में हैं और कई बड़े न्यूज चैनलों, अखबारों और समाचार एजेंसियों के लिए काम कर चुके हैं और कर रहे हैं. उनसे संपर्क 09425106052 या 07693028052 या [email protected] के जरिए किया जा सकता है.
Raj Alok Sinha
September 26, 2017 at 4:15 pm
मुस्तफा जी ने बिल्कुल सही फरमाया है. आज यह एक गंभीर प्रश्न बन गया है कि पत्रकारिता को लोग गंभीरता से क्यों नहीं देखते. इसमें सबसे ज्यादा गलती सरकारी तंत्र की है. सरकार यदि उनके लिए एक मानदंड बनाती तो कोई समस्या नहीं आती.
Jagdish joshi
September 28, 2017 at 7:55 pm
Sahi kaha misraji ne etv me bhi yahi hal hue 2001me