अपनी शामों को मीडिया के खंडहर से निकाल लाइये : रवीश कुमार

Ravish Kumar : अपनी शामों को मीडिया के खंडहर से निकाल लाइये…. 21 नवंबर को कैरवान (carvan) पत्रिका ने जज बीएच लोया की मौत पर सवाल उठाने वाली रिपोर्ट छापी थी। उसके बाद से 14 जनवरी तक इस पत्रिका ने कुल दस रिपोर्ट छापे हैं। हर रिपोर्ट में संदर्भ है, दस्तावेज़ हैं और बयान हैं। जब पहली बार जज लोया की करीबी बहन ने सवाल उठाया था और वीडियो बयान जारी किया था तब सरकार की तरफ से बहादुर बनने वाले गोदी मीडिया चुप रह गया।

नीमच का एक पत्रकार बता रहा है आजकल की पत्रकारिता की सच्चाई, जरूर पढ़ें

बात दिल की है. कहानी लंबी है. पढ़ेंगे तो जानेंगे ‘मेरी’ हकीकत क्या है… इन दिनों मीडिया का बोलबाला है. मीडियाकर्मी होना बड़ा चार्मिंग लगता है. लेकिन इस व्यवस्था के भीतर यदि झांक कर देखा जाए तो पता चलेगा, जो पत्रकार जमाने के दुःख दर्द को उठाता है, वो खुद बहुत मुश्किल में फंसा है. पत्रकारों को समाज अब बुरे का प्रतीक मानने लगा है. हम कहीं दिख जाएं तो लोग देखते ही पहला सवाल करते हैं- मुस्तफा भाई, खैरियत तो है… आज यहाँ कैसे? यानि यहाँ ज़रूर कुछ झंझट है, इसलिए आये हैं.

पेशेवर लठैत बन चुका है मीडिया

बड़े-बुजुर्ग अक्सर कहते हैं कि अंग्रेज तो चले गए लेकिन चाय छोड़ गये। इसी तरह सामंतवाद समाप्त हो गया लेकिन लठैत छोड़ गया है। ये लठैत अपने सामंत के लिए कुछ भी करने को तैयार रहते थे। आज भी लठैत हैं। बड़े-बुजुर्गों का कहना है कि, मीडिया से बड़ा लठैत कौन है। हालांकि तब (1988 के आस पास) मुझे भी खराब लगता था। अब भी खराब लगता है जब मीडिया को बिकाऊ, बाजारू या दलाल कहा जाता है। माना कि देश की आजादी में मीडिया का योगदान सबसे अधिक नहीं तो सबसे कम भी नहीं था। तब अखबार से जुड़ने का मतलब आजादी की लड़ाई से जुड़ना होता था। अब देश आजाद है। मीडिया की भूमिका भी बदल गई। पहले मिशन था अब व्यवसाय हो गया है। पहले साहित्यकार व समाजसेवक अखबार निकालते थे अब बिल्डर और शराब व्यवसायी (भी) अखबार निकाल रहे हैं।

बॉस का बिस्तर गर्म कर हुई हो सफल!

मेरी घड़ी में सुबह के 9 बजकर 4 मिनट हो रहे थे। देश के दिल नई दिल्ली से मेरे दोस्त अखिल का फोन आया। प्यार से मैं उसे अक्की कहता हूं। वे इस समय एक राष्ट्रीय न्यूज चैनल में बतौर असिस्टेंट प्रोड्यूसर अपनी सेवाएं दे रहा है। मुस्कुराते हुए मैंने फोन उठाया और कहा:

मोदी का रोड शो और प्रसारण के अड्डों पर कब्जा

Uday Prakash : अभी सारे चैनलों में बनारस के रोड शो की कवरेज़ देख रहा था. जैसा इतालो काल्विनो ने कहा था कि सत्ताधारी हमेशा इस भ्रम में रहते हैं कि अगर उन्होंने सूचना-संचार माध्यमों के ‘प्रसारण के अड्डे’ (ट्रांसमिटिंग पॉइंट) पर कब्ज़ा जमा लिया है और अपने मन मुताबिक़ समाचार या सूचनाएं अपने जरखरीद मीडिया कर्मचारियों से प्रसारित-प्रचारित करवा रहे हैं, तो इससे ‘प्रसारण के लक्ष्य समूहों (यानी दर्शक, श्रोता) के दिमाग को प्रभावित और नियंत्रित कर रहे हैं।

वह चुनाव जीत जाएंगे और आप पत्रकारिता हार जाएंगे!

Ajay Prakash : मीडिया कहती है हम काउंटर व्यू छापते हैं। बगैर उसके कोई रिपोर्ट नहीं छापते। कल आपने विकास दर की रिपोर्ट पर कोई काउंटर व्यू देखा। क्या देश के सभी अर्थशास्त्री मुजरा देखने गए थे? या संपादकों को रतौंधी हो गयी थी? या संपादकों को ‘शार्ट मीमोरी लॉस’ की समस्या है, जो ‘एंटायर पॉलि​टिक्स का विद्यार्थी’, ‘वैश्विक अर्थशास्त्र’ का जानकार बना घूम रहा है और संपादक मुनीमों की तरह राम—राम एक, राम—राम दो लिख और लिखवा रहे हैं।

पत्रकारिता का मौजूदा दौर और एक्सक्लूसिव खबरों का खेल

एक्सप्रेस ने छापे इस सर्जिकल स्ट्राइक के सबूत तो हिन्दू ने छापे पिछले सर्जिकल स्ट्राइक के सबूत

Sanjaya Kumar Singh : खोजी पत्रकारिता भी दरअसल पौधा रोपण या प्लांटेशन की पत्रकारिता ही है। जब इसकी शुरुआत हुई थी तो ढूंढ़-ढांढ़ कर जनहित की खबरें लाई जाती थीं जो आमतौर पर सरकार और शासकों के खिलाफ होती थीं। मीडिया को नियंत्रित करने की सरकार की कोशिशों का नतीजा यह हुआ कि ऐसी खबरों की जगह कम होती गई और फिर पेड न्यूज शुरू हुआ। अब तो ज्यादातर अखबार के लगभग सारे पन्ने पेड न्यूज होते हैं या यूं कहिए कि चाटुकारिता वाले होते हैं। बदले में विज्ञापन मिलता है। नहीं तो विज्ञापन बंद कर देने की धमकी। अब जब खोजी पत्रकारिता मुख्यधारा की पत्रकारिता से गायब हो चली है तो आइए खोजी पत्रकारिता को याद करें। श्रद्धांजलि दें। वैसे यह भी सच है कि ज्यादातर मामलों में खोजी खबरें भी आखिर कोई नाराज ही “लीक” करता है। उद्देश्य उस गड़बड़ी को ठीक करना होता है।