तकरीबन तीन वर्ष पूर्व 2012 में जब युवा मुख्यमंत्री के रूप में अखिलेश यादव ने पद की शपथ ली तो उम्मीद जगी थी कि आधुनिक सोच और जोश के आगे भ्रष्टाचार फीका पड़ जायेगा। चुनाव प्रचार के दौरान उन्होंने दावा भी यही किया था कि सूबे की जनता को भ्रष्टाचारमुक्त प्रशासन मिलेगा। छत्तीस महीने गुजर जाने के बाद जब पिछले दिनों अखिलेश सरकार ने कागजी उपलब्धियों को गिनाना शुरू किया तो सत्ता विरोधी दलों ने सरकार की खामियों का पिटारा खोल दिया। यह बात स्वयं मुख्यमंत्री भी अच्छी तरह से जानते हैं कि तीन वर्ष की उपलब्धियों का बखान करने के लायक उनके पास कुछ नहीं था। इसके बावजूद सरकारी चमचों ने लाखों के विज्ञापनों के सहारे सरकार की उपलब्धि की बढ-चढ़कर चर्चा की।
जहां तक अखिलेश सरकार के कार्यकाल में उपलब्धियों की बात है तो सूबे में भले ही विकास के कार्य नजर न आ रहे हों अलबत्ता इन तीन वर्षों में कुछ शीर्ष अधिकारियों ने भ्रष्टाचार के दम पर अपना विकास जरूर कर लिया है। कुछ तो ऐसे हैं जिनके भ्रष्टाचार से सम्बन्धित समस्त दस्तावेज सरकार के पास हैं, इसके बावजूद उनके खिलाफ कार्रवाई न करके सरकार जिंदा मक्खी निगल रही है। ऐसे ही एक अधिकारी हैं यूपीएसआईडीसी के मुख्य अभियंता अरुण मिश्र। कुछ समय पूर्व भ्रष्टाचार के तमाम आरोपों में घिरे होने के कारण श्री मिश्र के अधिकार छीन लिए गए थे लेकिन हाल ही में ये अधिकार उन्हें पुनः वापस दे दिए गए और वह भी तब जब जांच एजेंसियों ने अपनी रिपोर्ट में श्री मिश्र की भ्रष्टाचार में सलिप्तता के साथ-साथ उनकी शैक्षिक योग्यता को भी फर्जी ठहरा दिया था। इतना ही नहीं शैक्षिक योग्यता के फर्जी प्रमाण-पत्र का खुलासा होने के बाद हाई कोर्ट ने तो श्री मिश्र की नियुक्ति को ही अवैध ठहरा दिया था।
इसके बावजूद अखिलेश सरकार अपने कुनबे में ऐसे वायरस को क्यों पाल रही है जिससे आने वाले समय में सपा का पूरा सिस्टम ही करप्ट हो सकता है। अरूण मिश्रा से सम्बन्धित भ्रष्टाचार के मामले में दोषी ठहराए जाने के बावजूद उनके खिलाफ विधिसम्मत कार्रवाई न किए जाने के पीछे क्या कारण हो सकते हैं ? यह जांच का विषय तो है ही साथ ही भ्रष्टाचार का यह कथित वायरस सरकार की छवि को लगातार धूमिल करने में कोई कसर नहीं छोड़ रहा है। आश्चर्य इस बात का है जिसे तत्कालीन मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव ने निलम्बित कर दिया था उसे अखिलेश सरकार के कार्यकाल में पाल-पोस कर बड़ा किया जा रहा है। पेश है पूरी रिपोर्ट …….
भ्रष्टाचार और फर्जी डिग्रियों के संगीन आरोपों में चल रही है जांच
लखनऊ। जब अखिलेश सरकार ने पिछले दिनों छत्तीस महीनों के कार्यकाल का बखान किया जो जेहन में एक सवाल जरूर पैदा हुआ कि आखिर ‘ये कैसी उपलब्धि जहां अधिकारी जनता के पैसों से खुद का घर भर रहा हो और जरूरतमंद के सिर पर छत तक नहीं। ये कैसी उपलब्धि जहां भ्रष्ट अधिकारी सम्मान-दर-सम्मान पाते जा रहे हों और कर्मठ हाशिए पर खड़े हों। ये कैसी उपलब्धि जहां विधायक से लेकर मंत्री तक तमाम आरोपों में घिरे हों और सरकार ‘‘फील गुड’’ का दावा कर रही हो’। ये उदाहरण तो महज बानगी भर हैं जबकि हकीकत यह है कि अखिलेश सरकार ने अपने तीन वर्षीय कार्यकाल में उपलब्धि के नाम पर ऐसे भस्मासुरों को संजीवनी प्रदान की है जिन पर सरकारी खजाना लूटने का आरोप लगता आया है। खास बात यह है कि ये आरोप महज हवाई नहीं बल्कि पुख्ता दस्तावेजों के साथ उसी विभाग के अन्य अधिकारी और कर्मचारी लगाते चले आ रहे हैं जिस विभाग का शीर्ष अधिकारी भ्रष्टाचार के मामले में दोषी है। बकायदा जांच एजेंसियां भी कई मामलों में अंतिम जांच रिपोर्ट लगाकर शासन के पास भेज चुकी हैं। चौंकाने वाला पहलू यह है कि तमाम दस्तावेजी सुबूतों और अपराधिक मुकदमों के बावजूद अखिलेश सरकार ऐसे दर्जनों कथित भ्रष्ट अधिकारियों की पोषक बनी हुई है। अरबों के भ्रष्टाचार से जुड़ा एक ऐसा ही मामला यूपीएसआईडीसी के मुख्य अभियंता अरुण मिश्रा के साथ जुड़ा हुआ है।
शैक्षिक योग्यता के फर्जी प्रमाण-पत्र के खुलासे के बावजूद इस अधिकारी को तरक्की-दर-तरक्की मिलती चली गयी। अरबों रूपयों का घोटाला करने के बावजूद अखिलेश सरकार ने इस अधिकारी के खिलाफ पुख्ता कदम नहीं उठाए। सरकार की नीयत पर तो उसी वक्त संदेह हो चला था जब इस अधिकारी के खिलाफ दायर याचिका की सुनवाई करते समय हाई कोर्ट ने अरूण मिश्र की नियुक्ति को ही अवैध ठहरा दिया था। नियमतः न्यायपालिका के आदेश के बाद श्री मिश्र की सेवाएं समाप्त कर देनी चाहिए थीं लेकिन अखिलेश सरकार ने ऐसा कुछ भी नहीं किया। प्रदेश सरकार में व्याप्त भ्रष्टाचार का इससे बड़ा सुबूत और क्या होगा कि न्यायपालिका के आदेश के विपरीत राज्य सरकार लगातार इस अधिकारी को प्रमोशन देती रही।
ज्ञात हो वर्ष 2004 में तत्कालीन मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव ने इस अधिकारी को ‘‘पत्रावली संख्या सी 73/04’’ निलम्बित भी कर दिया था। निलम्बन की कार्रवाई को अंतिम रूप दिया जाता इससे पहले ही अरूण मिश्र ने अपने राजनैतिक आकाओं के सहारे निलम्बन के आदेश रद्द करवा दिए थे। तब से लेकर अब तक अरूण मिश्र तमाम आरोपों में घिरे होने के बावजूद सरकारी सेवा में बने हुए हैं। पार्टी से जुडे़ एक कार्यकर्ता की मानें तो अरूण मिश्र को यदि सलाखों के पीछे भेजा गया तो निश्चित रूप से अरबों की लूट मामले में पार्टी के कई दिग्गज नेताओं की संलिप्तता का खुलासा हो सकता है। दावा किया जा रहा है कि अरूण मिश्र के पास ऐसे कई पुख्ता दस्तावेज हैं जो सपा के दिग्गजों को मुसीबत में डाल सकते हैं। इन परिस्थितियों में यदि यह कहा जाए कि अभियंता अरूण मिश्रा सरकार को ब्लैकमेल कर अपने पद पर बने हुए हैं तो कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए। हालांकि यह जांच का विषय हो सकता है लेकिन जिस तरह से अखिलेश सरकार तथाकथित भ्रष्ट अभियंता को शरण दिए हुए है उससे इस आशंका से इंकार नहीं किया जा सकता।
अरूण मिश्र के भ्रष्टाचार का खुलासा सर्वप्रथम मुलायम सरकार के कार्यकाल वर्ष 2004 में किया गया था। यूपीएसआईडीसी इम्पलाइज यूनियन ने तत्कालीन मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव के पास भ्रष्टाचार से सम्बन्धित एक पत्र भेजा था। जिसमें श्री मिश्र से जुड़ी तमाम अनियमितताओं का साक्ष्यों सहित खुलासा करते हुए जांच की मांग की गयी थी। तत्कालीन मुख्यमंत्री ने भी इस मामले को गंभीरता से लेते हुए जांच के आदेश दे दिए थे। उस वक्त अरूण मिश्र यूपीएसआईडीसी में ‘मुख्य परियोजना अभियंता’ के पद पर तैनात थे। जांच पूरी करने के बाद निगम की तत्कालीन संयुक्त प्रबंध निदेशक के. धनलक्ष्मी ने आख्या शासन को भेज दी थी। उस पर तत्कालीन मुख्यमंत्री ने त्वरित कार्रवाई करते हुए ‘‘पत्रावली संख्या सी-73/04’’ निलम्बन का आदेश भी दे दिया था। निलम्बन के आदेश पर कार्रवाई होती इससे पहले ही श्री मिश्र ने अपने राजनैतिक आकाओं के सहारे निलम्बन का आदेश रूकवा लिया। कर्मचारी यूनियन ने दबाव बनाया तो दोबारा 5 अगस्त 2004 को पत्र संख्या ‘‘सी.एम.-242/77-4-04सी-73/04’’ के माध्यम से एक माह के भीतर जांच पूरी करने के आदेश दिए। मुख्यमंत्री के आदेश के बावजूद यह जांच चार महीनों तक पूरी नहीं की जा सकी थी।
तत्कालीन मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव के पास दस्तावेजों समेज जो शिकायती पत्र भेजा गया था उसके मुताबिक अरूण मिश्र ने मुख्य परियोजना अभियंता के पद पर रहते हुए नियम विरूद्ध तरीके से अकेले 30 करोड़ का भुगतान फर्मों को कर दिया था। यह भुगतान नवम्बर 2003 से जून 2004 के मध्य महज आठ महीनों में ही कर दिया गया था। जबकि शेष 26 करोड़ रूपया 11 निर्माण खण्डों द्वारा मिलकर किया गया था। एक अकेले अभियंता द्वारा इतनी बड़ी रकम का भुगतान किया जाना अपने आप में ही जांच का विषय बन सकता था लेकिन तत्कालीन सरकार ने कोई खास रूचि नहीं दिखायी। खास बात यह है कि 30 करोड़ के भुगतान में से एक ही समय में 22 करोड़ का भुगतान निगम की चेकों पर अधिशासी अभियंता की मुहर लगाकर और शेष 8 करोड़ रूपयों का भुगतान मुख्य परियोजना अभियंता की मुहर लगाकर किया गया था। यह कृत्य वित्तीय नियमों के खुले उल्लंघन की तरफ संकेत देता है।
आरोप है कि श्री मिश्र ने भारत सरकार और उत्तर-प्रदेश सरकार की संयुक्त महत्वाकांक्षी परियोजना एस.ई.जेड., मुरादाबाद में लेआउट के बगैर और बिना कब्जा लिए विवादित जमीन पर घटिया गुणवत्ता का कार्य करवाकर फर्जी तरीके से भुगतान भी करवा दिया। विभागीय कर्मचारियों का कहना है कि इस काम में श्री मिश्र ने करोड़ों रूपए का अनियमित मुनाफा कमाया। आरोप है कि श्री मिश्र ने भारत सरकार के कृषि विभाग ‘‘डेयरी’’ से सम्बन्धित बागपत में चल रहे डिपाजिट वर्क में कार्य करवाने के लिए फर्मों से सुविधा शुल्क में रूप में एक करोड़ रूपए वसूले। इस सम्बन्ध में समस्त दस्तावेज तत्कालीन मुख्यमंत्री को उपलब्ध करवा दिए गए थे। ‘ट्रोनिका सिटी’ योजना के अन्तर्गत 12 करोड़ की लागत से बनने वाली सड़कों में घटिया सामग्री के साथ ही मानक के विपरीत काम करवाया। बताया जाता है कि घटिया कार्य के एवज में उन्हें करोड़ों का मुनाफा हुआ। बताया जाता है कि ट्रोनिका सिटी में सी.सी. रोड निर्माण के लिए 9 करोड़ के टेण्डर में भी जमकर कमाई की गयी। इस भ्रष्टाचार से सम्बन्धित तमाम दस्तावेज शासन के पास उपलब्ध हैं।
अरूण मिश्रा पर आरोप है कि सरकारी अधिकारी होते हुए वे एफ.डी.आर.ए. नाम से एक एन.जी.ओ. भी चलाते रहे। यह कृत्य निगम की आचरण अनुशासन नियमावली के प्रस्तर-16 के मुताबिक कदाचार की श्रेणी में आता है। इस सम्बन्ध में तमाम शिकायतें भी की गयी थीं लेकिन सरकार ने कोई हस्तक्षेप नहीं किया। बताया जाता है कि इस एन.जी.ओ. के माध्यम से श्री मिश्र ने कई सरकारी प्रोजेक्ट हासिल कर करोड़ों कमाए।
सत्ता से इनके मधुर सम्बन्धों का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि ये बिना बताए 10-12 दिन ऑफिस से गायब रहते हैं। शीर्ष अधिकारी टोकते हैं तो उन्हें धमकियां सुननी पड़ती हैं। प्रत्येक माह लम्बे समय तक गायब रहने के बावजूद इन्हें वेतन पूरे माह का दिया जाता है। वैसे तो इनके खिलाफ आरोपों की लम्बी फेहरिस्त है लेकिन वर्तमान सरकार के कार्यकाल में ऐसे अभियंता को संजीवनी प्रदान की जा रही है जिसके खिलाफ सैकड़ों की संख्या में भ्रष्टाचार के आरोप हैं। और वह भी बकायदा पुख्ता दस्तावेजों के साथ। इसके बावजूद अखिलेश सरकार के कार्यकाल में सितम्बर 2013 में इस भ्रष्ट अधिकारी को प्रोन्नति दे दी गयी। विभागीय कर्मचारियों का भी आरोप है कि यूपीएसआईडीसी में भ्रष्टाचार के आरोपी अधिकारी के विरुद्ध कार्रवाई के बजाय उनके अधिकारों में बढ़ोत्तरी की जा रही है। प्रबंधन ने भ्रष्टाचार के मामलों में जांच का सामना कर रहे मुख्य अभियंता अरुण मिश्रा के अधिकारों में बढ़ोत्तरी करते हुए उन्हें आर्किटेक्चर एंड टाउन प्लानर (एटीपी) का प्रभारी बना दिया था।
गौरतलब है कि अरुण मिश्र पर ट्रोनिका सिटी घोटाले में एसआईटी दो मुकदमे भी दर्ज कर चुकी है। इतना ही नहीं फर्जी तरीके से बैंक खातों का संचालन करने पर सीबीआई उन्हें गिरफ्तार कर चुकी है। इन इस बातों को नजरअंदाज करते हुए अखिलेश सरकार ने अरुण मिश्रा को उप्र राज्य औद्योगिक विकास प्राधिकरण का भी प्रभारी बना दिया था। विभागीय कर्मचारियों ने आंदोलन की धमकी दी तो बाद में यह प्रभार उनसे छीन लिया गया। सरकार का इस भ्रष्ट अभियंता के प्रति स्नेह का इससे बड़ा उदाहरण और क्या हो सकता है कि तमाम आरोपों और विरोध प्रदर्शन के बावजूद उसे किसी न किसी तरह से लाभान्वित किया जाता रहा। अखिलेश सरकार ने ही इस अभियंता को औद्योगिक क्षेत्रों में भूखंडों का नक्शा पास करने के लिए एटीपी का प्रभारी बना दिया। बताया जाता है कि यह कार्य सर्वाधिक उपरी कमाई वाला है। इतना ही नहीं कथित भ्रष्ट अधिकारी के प्रति अखिलेश सरकार के समर्पण का इससे बड़ा उदाहरण और क्या हो सकता है कि हाल ही में मार्च 2015 में अरूण मिश्र के वित्तीय अधिकार एक बार फिर से बहाल कर दिए गए। ज्ञात हो शासन के आदेश पर प्रबंध निदेशक ने उनके वित्तीय और प्रशासनिक अधिकार पुनः बहाल कर दिए हैं।
गौरतलब है कि विरोध प्रदर्शन के बाद 13 फरवरी को अरुण मिश्र के अधिकार छीन लिए गए थे। बताते चलें कि अरुण मिश्रा के विरुद्ध दो दर्जन से अधिक बैंक खातों का गलत ढंग से संचालन, आय से अधिक संपत्ति समेत कई मामलों में सीबीआई जांच चल रही है। इसके साथ ही प्रवर्तन निदेशालय भी उनकी कई जगहों की संपत्तियों को जब्त कर चुकी है। महत्वपूर्ण पहलू यह है कि श्री मिश्र के हाईस्कूल का अंकपत्र भी फर्जी पाया गया था। इस सम्बन्ध में वरिष्ठ प्रबंधक हाउसिंग अनिल वर्मा ने अरुण के विरुद्ध हाईकोर्ट में याचिका दायर की थी। आरोप सही पाने पर हाईकोर्ट ने अरुण को बर्खास्त कर दिया। इस पर अरुण ने सुप्रीम कोर्ट का सहारा लिया तो वहां से हाईकोर्ट के फैसले पर रोक लगा दी गयी।
अभी हाल ही में लखनऊ में आईएएस वीक के दौरान एक आईएएस अफसर ने मुख्यमंत्री व मुख्य सचिव से अरुण की शिकायत की थी। उक्त आईएएस अफसर यूपीएसआईडीसी में एमडी भी रहे और अरुण के विरुद्ध उन्होंने एक घोटाले के मामले में कार्रवाई भी की थी। उनकी शिकायत पर ही अरुण के अधिकार 13 फरवरी को छीन लिए गए थे। इसी के साथ ही अरुण के कराये गए विकास कार्यो की जांच का आदेश दिया गया था। जांच तो शुरू नहीं हो सकी थी अलबत्ता उनके छीने गए अधिकार उन्हें वापस जरूर दे दिए गए। अब सवाल यह उठता है कि अरूण के खिलाफ मुख्यमंत्री अखिलेश यादव से शिकायत करने वाले उक्त आई.ए.एस. अधिकारी के आरोपों को नजरअंदाज क्यों किया गया। हालांकि मुख्यमंत्री के इस कदम से आई.ए.एस. संवर्ग में रोष जरूर है लेकिन अरूण मिश्र के प्रति सरकार जिस तरह से नतमस्तक नजर आ रही है उससे उक्त आई.ए.एस. अधिकारी ने अपने कदम वापस खींच लिए हैं। बताया जाता है कि अब अभियंता अरूण मिश्रा उसी आई.ए.एस. अधिकारी के पर कतरने के लिए मुख्यमंत्री पर दबाव बना रहे हैं
गौरतलब है कि उत्तर प्रदेश के चर्चित यूपीएसआइडीसी के चीफ इंजीनियर अरुण कुमार मिश्र के खिलाफ इलाहाबाद हाईकोर्ट ने अहम फैसला सुनाते हुए अरुण कुमार मिश्र की सभी शैक्षिक डिग्रियों को अवैध करार दे दिया था। अहम बात ये है कि फर्जी दस्तावेजों के सहारे नौकरी हासिल करने वाला ये इंजीनियर अपनी 28 साल की नौकरी में हजारों करोड़ का मालिक बन बैठा। इतना ही नहीं वह विभिन्न सरकारों के आला नेताओं से करीब का रिश्ता कायम करके मनमानी करता रहा। हद तो तब हो गयी थी जब सी.बी.आई. में वांटेड होने के बावजूद प्रदेश की एक सरकार ने इसे इसी पद पर ज्वाइन करवा दिया था। आरोप है कि ये अभियंता पिछले काफी समय से यू.पी.एस.आई.डी.सी. को जोंक की तरह चूसता रहा।
कहा जाता है कि श्री मिश्रा अपनी राजनितिक पहुँच के दम पर मनचाहे तबादले व पोस्टिंग तक यूपीएसआइडीसी में करवाता रहे। यहाँ तक कि विभागीय एम डी तक अरुण मिश्रा से खौफ खाते थे। फर्जी शिक्षा दस्तावेजों का मामला सामने आने पर हाईकोर्ट ने उत्तर प्रदेश सरकार को इस इंजीनियर की सभी पदों पर नियुक्तियां रद्द करने के आदेश दिया था इसके बावजूद श्री मिश्रा की नियुक्ति तो रद्द नहीं हुई बल्कि उसे प्रोन्नत जरूर कर दिया गया। इस तरह से यदि देखा जाए तो सरकार ने खुलेआम न्यायपालिका के आदेशों की अवमानना की है। बताया जाता है कि अवमानना मामले को लेकर भी एक अधिकारी ने याचिका दाखिल करने का मन बनाया है।
फर्जी डिग्री का मामला वर्ष 2014 में ही साफ हो गया था कि अरूण मिश्रा ने फर्जी डिग्रियों के सहारे न सिर्फ सरकारी सेवा हासिल की बल्कि अपने राजनैतिक आकाओं के सहारे वे अति महत्वपूर्ण पद पर भी विराजमान होते चले गए। यूपीएसआईडीसी के चीफ इंजीनियर अरुण कुमार मिश्र पर कई घोटालों में शामिल होने का आरोप लग चुका है। जांच के दौरान उनकी 10वीं की मार्कशीट और बाकी डिग्री भी फर्जी निकली। दिलचस्प बात यह है कि आरोपी इंजीनियर ने जब 28 साल की नौकरी कर ली, उसके बाद यह तथ्य सामने आया। हाईकोर्ट ने इस इंजीनियर के सभी पदों पर नियुक्तियां रद्द करने के आदेश दिए थे। अरुण कुमार मिश्र के दस्तावेजों के मुताबिक, उन्होंने 1976 में घाटमपुर के श्री गांधी विद्यापीठ इंटर कॉलेज से हाईस्कूल की परीक्षा पास की। हाईस्कूल मार्कशीट में उनका रोल नंबर 511719 है, लेकिन बोर्ड और कॉलेज के दस्तावेजों में यह रोल नंबर किसी अरुग्य कुमार मिश्र के नाम दर्ज है।
ज्ञात हो इस सन्दर्भ में उनके खिलाफ उन्हीं के महकमे के वरिष्ठ प्रबंधक हाउसिंग अनिल कुमार वर्मा ने हाईकोर्ट में याचिका दाखिल की थी। उनकी याचिका पर सुनवाई करते हुए इलाहाबाद हाईकोर्ट के जस्टिस अरुण टंडन और एके मिश्र की खंडपीठ ने यह फैसला सुनाया था। याचिकाकर्ता ने चीफ इंजीनियर की बीटेक की डिग्री पर भी सवाल उठाए थे। कोर्ट ने मिश्र की उस मांग को अस्वीकार कर दिया जिसमें कहा गया था कि इस फैसले के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में याचिका दाखिल करने के लिए 15 दिन तक इस फैसले के अमल पर रोक लगाई जाए।
पूर्व मुख्यमंत्री मायावती सरकार के कार्यकाल में भी अरूण मिश्रा का नाम बेहद चर्चा में रहा। उस वक्त भी यह बात साफ हो गयी थी कि अरुण मिश्रा नाम के एक अभियंता ने यूपीएसआईडीसी में करोड़ों का गोलमाल किया है। उस वक्त यह कहा जाता था कि अरूण मिश्रा सपा के पूर्व महासचिव अमर सिंह के सबसे चहेते लोगों में से एक थे। मुलायम सरकार के पतन के बाद जब यूपी में बसपा ने सत्ता संभाली तो यह कहा जाने लगा था कि अब अरूण मिश्रा सलाखों के पीछे नजर आयेंगे लेकिन ऐसा कुछ भी नहीं हुआ। यह दीगर बात है कि माया सरकार गठित होते ही अरुण मिश्रा के खिलाफ एसआईटी की जांच बैठा दी गयी थी। अरूण मिश्रा से छत्तीस का आंकड़ा रखने वाले कई अफसरों ने जांच का कार्य तेजी से शुरू किया ताकि अरूण मिश्रा को मौका न मिल सके। लेकिन शातिर दिमाग के माहिर अरूण मिश्रा ने बसपा के ही एक बड़े नेता के घर पहुंचकर उन्हें उनकी मुंहमांगी रकम भेंट कर दी।
जानकार सूत्रों की मानें तो अरूण मिश्रा ने यह रकम बसपा के कद्दावर नेता नसीमुद्दीन सिद्दीकी और स्वामी प्रसाद मौर्य को भेंट की थी। चढ़ावा चढ़ते ही पैसों ने अपना रंग दिखाना शुरू कर दिया। कुछ समय पहले तक जिन पुलिस अफसरों से यह कहा जा रहा था कि अरुण मिश्रा के खिलाफ जल्द जांच पूरी कर रिपोर्ट शासन को भेजी जाए, बाद में उन्हीं अफसरों को जांच का कार्य रोक देने का निर्देश दिया। यह खुलासा अरूण मिश्रा के खिलाफ जांच कर रहे कुछ तत्कालीन पुलिस अफसरों ने किया था। हालांकि इस खुलासे के बाद बसपा विरोधी दलों ने जमकर विरोध प्रदर्शन किया था लेकिन पूर्ण बहुमत के आधार पर सत्ता पर काबिज बसपा अपनी ही जिद पर अड़ी रही। इतना ही नहीं अरुण मिश्रा के भ्रष्टाचार से जुड़ी कई फाइलों को ही गायब कर दिया गया था। इस बात का खुलासा जांच टीम ने भी किया था।
अरुण मिश्रा की राजनैतिक हैसियत का इससे बड़ा उदाहरण और क्या हो सकता है कि निलम्बन काल में भी वह अपने चहेते अधिकारियों की पोस्टिंग करवाता रहा। कहा जाता है कि अरुण मिश्रा को पूर्व मुख्यमंत्री मायावती के अति विश्वसनीय और कई घोटालों में संलिप्त रहे पूर्व मंत्री बाबू सिंह कुशवाहा की सरपरस्ती मिलती रही। आलम यह रहा कि ट्रोनिका सिटी घोटाले में तत्कालीन प्रबंध निदेशक बलबिंदर कुमार ने उसे निलंबित कराया तो बाद में उन्हें भी निलंबित होना पड़ा था। आरोप है कि तत्कालीन मुलायम सरकार के कार्यकाल 2006-07 में इस इंजीनियर ने सबसे पहले गाजियाबाद और सूरजपुर के ट्रोनिका सिटी में भूखंडों के आवंटन और विकास कार्यो में चार सौ करोड़ रुपये से भी अधिक के घोटाले को अंजाम दिया था। जब सत्ता विरोधी दलों ने कींचड़ उछालना शुरू किया तो तत्कालीन मुख्यमंत्री मुलायम ने अरूण मिश्रा को निलंबित कर दिया गया था। अपना निलम्बन निरस्त करवाने के लिए उसने सपा के पूर्व महासचिव उसकी अमर सिंह से नजदीकियां बढ़ायीं।
अमर सिंह के सम्पर्क में आते ही उसकी ताकत और बढ़ती गयी। हालांकि तमाम प्रयासों के बावजूद मुलायम शासन में उसे बहाल नहीं किया जा सका था लेकिन विभाग में उसका प्रभाव बदस्तूर जारी रहा। जहां तक यूपीएसआईडीसी की बात है तो मंत्री से ज्यादा अरूण मिश्रा का प्रभाव विभाग में काम आता है। जब यूपी में बसपा की सरकार बनी तो बाबू सिंह कुशवाहा की सरपरस्ती और बसपा के कद्दावर नेताओं को मोटी भेंट चढ़ाने के बाद उसे पुनः बहाल कर दिया गया था। जानकार सूत्रों का कहना है कि अक्टूबर 2008 को तत्कालीन एमडी एसके वर्मा ने चेयरमैन को पत्र लिखकर अरुण कुमार मिश्रा को तत्काल उनके पद से हटाने के लिए भी कहा था लेकिन उन्हें नहीं हटाया गया।
गौरतलब है कि उस वक्त बाबू सिंह कुशवाहा निगम के चेयरमैन थे। एसके वर्मा पर दोबारा दबाव पड़ा तो उन्होंने अरुण को ट्रोनिका सिटी मामले में दोषी तो माना, लेकिन सिर्फ दो वेतन वृद्धि रोकने की संस्तुति कर फाइल बंद कर दी। बसपा शासनकाल में सीबीआई ने 2011 में अरुण को गिरफ्तार भी किया था। गिरफ्तारी के बाद अरूण निलंबित भी किया गया था लेकिन सत्ता परिवर्तन के बाद अखिलेश सरकार के कार्यकाल में उसे फिर से बहाल कर दिया गया। छह सितंबर 2013 को उसने खुद को आर्किटेक्चरल एंड टाउन प्लानिंग डिपार्टमेंट का मुखिया घोषित कर दिया। अरुण का नाम दिल्ली के पाश इलाके में एक हजारों गज में फैली कोठी खरीदने को लेकर भी खूब उछला लेकिन ऊँचे रसूख के चलते मामला ज्यादा दिन तक सुर्खियां नहीं बन सका। मामला फिलहाल सुप्रीम कोर्ट में है।
कहा जाता है कि वर्ष 1986 में अनियमित सहायक अभियंता के पद पर नियुक्ति पाने के बाद अरूण मिश्रा ने अपने राजनैतिक आकाओं के सहारे जल्द ही मुख्य परियोजना अधिकारी के पद पर अधिकार स्थापित कर लिया जबकि उस वक्त वे उक्त पद के योग्य भी नहीं थे। इतना ही नहीं उक्त पद के लिए कई सीनियर अभियंता भी लाईन में थे। तत्कालीन सरकार ने सभी को नजरअंदाज कर श्री मिश्रा को मुख्य परियोजना अभियंता के पद पर आसीन कर विरोधियों को अरूण के खिलाफ हल्ला बोलने के लिए खड़ा कर दिया। उस वक्त कहा जा रहा था कि तत्कालीन सरकार ने ही अरूण मिश्रा के पर कतरने की गरज से उनके विरोधियों की संख्या बढ़ाने के लिए ही प्रमोशन दिया था। इसका असर भी जल्द नजर आने लगा। विभाग के तमाम अधिकारियों ने अरूण मिश्रा के भ्रष्टाचार से जुडे़ तमाम दस्तावेज विभागाध्यक्ष से लेकर मुख्यमंत्री तक उपलब्ध करवाना शुरू कर दिया था। उसके बाद से जो सिलसिला चला वह अनवरत आज भी जारी है।
विभागीय अधिकारियों का कहना है कि अरूण मिश्रा निगम को अब तक अरबों रूपयों की क्षति पहुंचा चुके हैं। इन्होंने योजनाओं में सेंध लगाकर इतना रूपया संकलित कर रखा है कि वे किसी की भी सरकार हो, पैसों के बल पर वे अपना रूतबा कायम रखने में कामयाब हो जाते हैं। यही वजह है कि तत्कालीन मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव द्वारा निलम्बित किए जाने के बाद भी अरूण मिश्रा न सिर्फ बसपा सरकार के कार्यकाल में बहाल हो गए बल्कि वर्तमान अखिलेश सरकार में भी उनका रूतबा कायम है। बताया जाता है कि अरूण मिश्रा की पैरवी करने वालों में विधायक, मंत्री से लेकर कुछ नौकरशाह भी शामिल हैं जिन पर अरूण मिश्रा के धन की कृपादृष्टि बनी रहती है।
लगभग एक दशक पूर्व ग्राम मॉजा शेखपुरा, कनखल, हरिद्वार में स्थित बेशकीमती जमीन निगम ने अर्जित की थी। उस भूमि को अरूण मिश्रा ने कथित भू-माफिया नरेश धीमान से लाखों रूपए सुविधा शुल्क के रूप में लेकर कब्जा करवा दिया। बकायदा नियम विपरीत तरीके से अनापत्ति प्रमाण-पत्र भी स्वयं जारी कर दिया जबकि उस वक्त अनापत्ति प्रमाण-पत्र जारी करने का अधिकार उनके पास नहीं था। बताया जाता है कि उस वक्त उस जमीन की कीमत तकरीबन एक करोड़ रूपए के आस-पास थी। वर्तमान में उस जमीन की कीमत अरबों की बतायी जा रही है।
इस अनियमितता को लेकर निगम के अन्य अधिकारियों ने न्यायालय में वाद भी दाखिल किया था। चूंकि अरूण मिश्रा ने ही अनापत्ति प्रमाण-पत्र जारी किया गया था लिहाजा भू-माफिया के अधिवक्ता ने इसका फायदा उठाते हुए निगम को ही चुनौती दे दी। परिणामस्वरूप निगम वह मुकदमा हार गया। इस प्रकरण की शिकायत टिहरी गढ़वाल के तत्कालीन विधायक मातबर सिंह कण्डारी एवं पूर्व मुख्यमंत्री राम नरेश यादव से भी की गयी थी। चूंकि पैसों के बल पर अरूण मिश्रा ने सियासी दलों में अपनी गहरी पैठ बना रखी थी लिहाजा श्री मिश्रा के खिलाफ कार्रवाई संभव नहीं हो सकी।
आरोप है कि निगम के औद्योगिक क्षेत्र मसूरी गुलावटी रोड, जिला गाजियाबाद में हजारों की संख्या में दशकों पुराने हरे-भरे पेड़ों को अरूण मिश्रा के निर्देश पर कटवा दिया गया। इस काम के लिए श्री मिश्रा ने बेहद चालाकी से समस्त कार्यविधि को अंजाम दिया। बताया जाता है कि क्षेत्र में महज 2950 पेड़ दर्शाए गए जबकि उस वक्त इस क्षेत्र में पेड़ों की संख्या अभिलेखों में 31 हजार 766 के आस-पास थी। श्री मिश्रा ने फर्जी नीलामी के सहारे समस्त पेड़ महज 4 लाख 60 हजार में बेच दिया जबकि अभिलेखों के अनुसार उस वक्त इन पेड़ों की अनुमानित कीमत 8 करोड़ से भी ज्यादा थी। विभागीय कर्मचारियों का आरोप है कि जंगल माफिया ने इस कार्य के लिए श्री मिश्रा को करोड़ों की भेंट चढ़ायी थी। इस अनियमितता की शिकायत भी तत्कालीन मुख्यमंत्री और प्रमुख सचिवों से की गयी थी लेकिन सत्ता में मजबूत पैठ और धन के बल पर श्री मिश्रा के विरूद्ध कोई ठोस कार्रवाई नहीं हो सकी।
ट्रोनिका सिटी क्षेत्र के सेक्टर 8 व 9 में मौजूद 12 हजार 500 हरे-भरे पेड़ों को श्री मिश्रा ने कटवा दिया। गौरतलब है कि उक्त पेड़ सघन वृक्षारोपण अभियान के तहत लगवाए गए थे। जानकारी के मुताबिक समस्त पेड़ों की आयु लगभग 2 वर्ष थी। यह वृक्षारोपण वन विभाग के तहत करवाया गया था। जब पेड़ों की कटान शुरू हुई तो वन विभाग ने हस्तक्षेप भी किया लेकिन श्री मिश्रा की राजनैतिक पहुंच ने वन विभाग को बैकफुट पर धकेल दिया। नियमानुसार यदि विकास के नाम पर वन विभाग के अधीन पेड़ों को कटवाया भी जाना था तो इसके लिए सर्वप्रथम वन विभाग की स्वीकृति भी जरूरी थी लेकिन श्री मिश्रा ने ऐसा कुछ भी नहीं किया। इस विषय पर वन विभाग के कर्मचारियों का कहना है कि यदि इसी तरह से मनमानी की जानी है तो वन विभाग के अस्तित्व की आवश्यकता ही नहीं है।
इस सन्दर्भ में यूपीआईडीसी इम्प्लाइज यूनियन ने श्री मिश्रा के भ्रष्टाचार से सन्दर्भित कई पत्र शासन-प्रशासन के जिम्मेदार अधिकारियों के पास भेजे लेकिन एक दशक का समय गुजर जाने के बाद भी उक्त मामले में श्री मिश्रा के खिलाफ सजा तय नहीं की जा सकी। इसी तरह से गाजियाबाद स्थित हर्षा ट्रैक्टर की निगम द्वारा खरीदी गयी भूमि पर लगे 500 से भी अधिक वृक्षों को विकास के नाम पर कटवा दिया गया। इन पेड़ों में अधिकतम पेड़ कीमती शीशम के थे। उस वक्त उन पेड़ों की कीमत लाखों में आंकी गयी थी।
नियमानुसार विकास के नाम पर कटवाए गए पेड़ों को बेचकर जो रकम प्राप्त की जाती है उसे सरकारी खजाने में जमा होना चाहिए, लेकिन श्री मिश्रा ने समस्त पेड़ों की कटाई से प्राप्त रकम स्वयं हजम कर ली। जब इस मामले की जानकारी शासन को दी गयी तो सम्बन्धित विभाग के विभागाध्यक्ष ने इस मामले की जांच तत्कालीन संयुक्त प्रबंध निदेशक आलोक कुमार से करवाने के निर्देश जारी किए गए। जांच शुरू होती इससे पहले ही श्री मिश्रा ने अपने राजनैतिक आकाओं और नौकरशाहों के बीच मौजूद अपने हमदर्दों की मदद से जांच रूकवा दी। हालांकि इसके बाद कई बार यूनियन ने जांच के लिए सरकार के पास पत्र भेजे लेकिन कोई सुनवाई नहीं हुई।
उत्तर-प्रदेश पुलिस आवास निगम लिमिटेड में अल्पकालीन प्रतिनियुक्ति के दौरान भी श्री मिश्रा अपनी हरकतों से बाज नहीं आए। आरोप है कि तमाम योजनाओं में श्री मिश्रा ने घालमेल किया। महत्वपूर्ण यह है कि इस मामले की शिकायत स्वयं पूर्व मुख्यमंत्री रामनरेश यादव ने की थी। जांच के बाद दोषी पाए जाने पर इनसे वसूली तक के आदेश जारी किए गए थे लेकिन कुछ दिनों तक मामला गर्म रहने के बाद ठण्डे बस्ते में चला गया।
यूपीआईडीसी की महत्वाकांक्षी परियोजना ‘‘गाजियाबाद स्थित ट्रोनिका सिटी’’ भी इनके भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ गयी। आरोप है कि श्री मिश्रा ने अवैध कमाई के फेर में गाजियाबाद के औद्योेगिक और आवासीय क्षेत्रों में आवश्यकता से अधिक पानी की टंकियों और सीवरेज के कार्य करवा डाले और वह भी अत्यंत निम्न स्तर के। समस्त कार्यों का बिना परीक्षण के ही भुगतान भी कर दिया गया था। आरोप है कि श्री मिश्रा ने इस कार्य के लिए ठेकेदारों से करोड़ों रूपए सुविधा शुल्क के रूप में वसूल किए।
श्री मिश्रा के द्वारा करवाए गए कार्यों की गुणवत्ता का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि एस.ई.जेड. मुरादाबाद और ट्रोनिका सिटी में बनवाई गयी दीवारें महज तेज हवा में ही धाराशायी हो गयी थीं। यूनियन का आरोप है कि श्री मिश्रा के इर्द-गिर्द उनके पसंदीदा और विश्वसनीय कर्मचारियों का काकस बना रहता है। यही काकस सरकारी योजनाओं से प्राप्त होने वाले धन की लूट में लगा रहता है। टेण्डर पूल करवाने के लिए विज्ञापन दिए जाने की व्यवस्था है। इस कार्य में भी श्री मिश्रा ने अनियमितता बरती। नियमानुसार सर्वाधिक प्रसार संख्या वाले समाचार-पत्रों में विज्ञापन प्रकाशित करने का नियम है ताकि ज्यादा से ज्यादा ठेकेदार टेण्डर में शामिल हो सकें। श्री मिश्रा ने ऐसा न करके कार्यस्थल से सैकड़ों किलोमीटर दूर प्रकाशित होने वाले समाचार-पत्रों में टेण्डर छपवाया ताकि टेण्डर की प्रक्रिया में वही लोग शामिल हो सकें जो उन्हें कमीशन के रूप में मोटी रकम दे सके।
मुख्य अभियंता अरूण मिश्रा के खिलाफ गुण्डागर्दी और चरित्रहीनता से सम्बन्धित कई शिकायतें विभागाध्यक्ष और मुख्यमंत्रियों के पास भेजी जा चुकी हैं। यहां तक कि सम्बन्धित थाने में उनके खिलाफ मुकदमा अपराध संख्या 32 के तहत आई.पी.सी. की धारा 506 के तहत दर्ज है। यह मुकदमा उन्हीं के विभाग में कार्यरत रहे तत्कालीन सहायक अभियंता प्रदीप शर्मा ने दर्ज करवाया था। इतना ही नहीं गाजियाबाद स्थित निगम की कालोनी की महिलाओं ने भी इनके खिलाफ चरित्रहीनता और गुण्डागर्दी से सम्बन्धित शिकायतें दर्ज करवाई थीं।
यू.पी.एस.आई.डी.सी. इम्प्लाइज यूनियन का दावा है कि ताज कॉरीडोर की तर्ज पर भारत सरकार की महत्वाकांक्षी परियोजना ‘‘एस.ई.जेड., मुरादाबाद’’ में करोड़ों के कार्य अत्यंत निम्न स्तर के करवाकर अरूण मिश्रा ने जमकर अवैध कमाई की। जांच में भी सब कुछ साबित हो चुका है इसके बावजूद श्री मिश्रा के खिलाफ कानूनी कार्रवाई के विपरीत उन्हें पदोन्नति किया जाना सरकार की नीयत पर संदेह पैदा करता है। अरूण के खिलाफ बिगुल फूंकने वाले अधिकारियों को अब न्यायपालिका पर ही भरोसा रह गया है।
चिंता इस बात की है कि यदि सरकार की ओर से ठोस पैरवी नहीं की गयी तो अरूण मिश्रा एक बार फिर से बच निकलेगा। कहा तो यहां तक जा रहा है कि अरूण मिश्रा के बचाव के लिए सरकार में बैठे कुछ वरिष्ठों ने भ्रष्टाचार से सम्बन्धित दस्तावेजों को ही गायब करवा दिया है। अरूण मिश्रा के पक्ष में कार्य करने वाले ये वे अधिकारी हैं जिन्हें श्री मिश्रा नियमित रूप से सुविधा शुल्क मुहैया कराते आ रहे हैं। हाल ही में जब अरूण मिश्रा को उन्हें काम पर वापस बुलाया गया और उन्हें कई अन्य महत्वपूर्ण कार्यों की जिम्मेदारी सौंपी गयी, तभी इस आशंका पर मुहर लग चुकी थी कि भ्रष्टाचारमुक्त प्रशासन का दावा करने वाली अखिलेश सरकार कितनी पाक साफ है।
सबसे बड़ा औद्योगिक घोटाला !
अरूण मिश्रा द्वारा यूपीएसआईडीसी में किए गए घोटाले को उत्तर प्रदेश के औद्योगिक घोटाले का सबसे बड़ा घोटाला माना जा रहा है। हालांकि इस घोटाले की कड़ी टूटने के दावे लगभग चार वर्ष पूर्व वर्ष 2011 में ही किए जाने लगे थे लेकिन तब से लेकर अब तक अरूण मिश्रा के खिलाफ कोई ठोस कार्रवाई नहीं की गयी। इतना ही नहीं इस तथाकथित भ्रष्टाचारी को समय-समय पर प्रोन्नति भी दी जाती रही। बताया जाता है कि यह घोटाला करीब 500 करोड़ रुपए का था। इस घोटाले के बाद उत्तर प्रदेश राज्य औद्योगिक विकास निगम (यूपीएसआईडीसी) के चीफ इंजीनियर अरूण कुमार मिश्रा केंद्रीय जांच ब्यूरो की गिरफ्त में भी आ चुके हैं।
सीबीआई की टीमों ने अरुण कुमार के आवास और कार्यालय में कई बार छापेमारी की कार्रवाई भी की। तमाम दस्तावेज भी जब्त किए गए थे। दस्तावेजों के आधार पर ही सीबीआई ने दावा किया था कि अरूण मिश्रा द्वारा किया गया घोटाला तकरीबन 500 करोड़ से भी ऊपर का है। ज्ञात हो इसके बाद सीबीआई की टीम ने एक साथ देश में स्थित उनके करीब 17 ठिकानों में छापेमारी की थी। उस दौरान चर्चा हुई थी कि सीबीआई ने अरूण मिश्रा को राजधानी लखनऊ में गिरफ्तार कर लिया गया है लेकिन बाद में पता चला कि श्री मिश्रा के राजनैतिक आकाओं ने उसे बचा लिया। इस सन्दर्भ में यूपीएसआईजीसी इम्प्लाइज यूनियन के महामंत्री वीके मिश्रा ने बयान दिया था कि यूपीएसआईडीसी के चीफ इंजीनियर अरुण कुमार मिश्रा सपा सरकार की सरपस्ती के सबसे बड़े घोटालेबाज है। इन्होंने निगम की व्यवसायिक भूमि को बेचने में की गयी हेराफेरी और फर्जी भुगतानों के माध्यम से कई सौ करोड़ रुपए का वित्तीय घोटाला कर अकूत दौलत कमाई है।
वर्ष 2007 में मुलायम राज के बाद मायावती प्रदेश की मुख्यमंत्री बनी तो उन्होंने चीफ इंजीनियर को बर्खास्त कर उनके ऊपर आर्थिक घोटालों की जांच के आदेश दे दिए थे। जिसके तहत सिंतबर 2007 में स्पेशल इंवेस्टीगेशन टीम (एसआईटी) का गठन किया गया। टीम ने जांच के दौरान अरुण मिश्रा के खिलाफ दो एफआईआर भी दर्ज करायी थी। जांच के दौरान ही एसआईटी को उनके फर्जी बैंक एकाउण्टों की भी जानकारी मिली थी। जिसके तार उत्तराखण्ड की पंजाब नेशनल बैंक की एक शाखा के प्रबंधक से जुड़े होने का पता चला था। टीम ने अरुण मिश्रा समेत 16 लोगों को आरोपी बनाकर हाईकोर्ट में उनके खिलाफ रिटें भी दायर की थी। इन आरोपियों में दो आईएस अधिकारियों के भी नाम शामिल किए गए थे। फिर एकाएक एसआईटी की जांच अचानक सुस्त हो गयी और टीम उल्टे इन्हीं का सहयोग करने लगी। यहां तक कि आरोप लगानें वालों ने कई रिटों को वापस भी कर लिया था। बताया जाता है कि अरूण मिश्रा के देश भर में लगभग चार दर्जन बैंक खाते हैं। जिनमें करोड़ों रूपए जमा हैं।
आकाओं का वरदहस्त
यूपीएसआईडीसी के बहु चर्चित व महाभ्रष्ट मुख्य अभियंता अरुण कुमार मिश्रा अरबों का घोटाला करने के बाद यूं ही आजाद नहीं घूम रहे। बताया जाता हैं कि उनके उपर सपा प्रमुख मुलायम सिंह यादव सहित सपा-बसपा के उन नेताओं और आईएएस अधिकारियों का हाथ हैं जिन्होंने अरूण मिश्रा की काली कमाई में हिस्सेदारी निभायी। बताया जाता है कि अरूण मिश्रा ने चुनाव के दौरान कई मौकों पर सपा नेताओं का चुनावी खर्च भी वहन किया है। यहां तक कि पार्टी फण्ड में भी उन्होंने अपनी काली कमाई का एक बड़ा हिस्सा जमा किया। ज्ञात हो अरूण मिश्रा का नाम ट्रॉनिका सिटी समेत कई दर्जन घोटालों में शामिल हैं। राजनैतिक आकाओं के वरदहस्त का ही कमाल है कि वह तमाम पुख्ता सुबूतों के बावजूद राज्य और केंद्र सरकार कि कई बड़ी जाँच एजेंसियों की छानबीन के पश्चात भी वह हर बार साफ बच निकलता रहा लेकिन लेकिन अरुण मिश्रा पर उसी के विभाग के वरिष्ठ प्रबंधक हाउसिंग अनिल कुमार वर्मा द्वारा दायर याचिका भारी पड़ गयी।
डिग्रियां भी फर्जी!
मुख्य परियोजना अभियंता से चीफ इंजीनियर सहित अनेक महत्वपूर्ण पदों पर पहुंचने के लिए अरूण मिश्रा ने फर्जी डिग्रियों का भी सहारा लिया। यहां तक नौकरी पाने के लिए भी उन्होंने शैक्षिक योग्यताओं की फर्जी मार्कशीटों का इस्तेमाल किया। दस्तावेजों के मुताबिक अरूण मिश्रा ने 1976 में घाटमपुर के श्री गांधी विद्यापीठ इंटर कॉलेज से हाईस्कूल की परीक्षा पास की। हाईस्कूल मार्कशीट में उसका रोल नंबर 511719 है, लेकिन बोर्ड और कॉलेज के दस्तावेजों में यह रोल नंबर किसी अरुग्य कुमार मिश्र के नाम पर दर्ज है। श्री मिश्रा ने केएनआइटी सुल्तानपुर से बीटेक की डिग्री प्राप्त की, लेकिन यहां के दस्तावेजों में उनका रिकार्ड नहीं मिला।
जांच एजेंसियों द्वारा पूछताछ के दौरान अवध विश्वविद्यालय फैजाबाद ने भी कहा कि यूपीटीयू बनने के बाद सभी रिकार्ड वहां स्थानांतरित कर दिए गए हैं। विश्वविद्यालय में इनका पंजीकरण कैसे हुआ, इसकी जानकारी कोर्ट को आज तक नहीं मिल पाई है। श्री मिश्रा को बचाने के लिए राज्य सरकार की तरफ से कोर्ट को गोलमाल जवाब दिया गया। अरुण कुमार मिश्र को सहायक अभियंता पद पर नियुक्त करने की कार्रवाई सहित पदोन्नति दिए जाने के दस्तावेज कोर्ट में नहीं दिए जा सके। कोर्ट ने अरुण कुमार मिश्र को भी नोटिस जारी कर जवाब मांगा, लेकिन वे भी अपनी डिग्रियों एवं नियुक्ति से सम्बन्धित संतोषजनक दस्तावेज नहीं पेश कर पाए हैं।
यह आर्टकिल लखनऊ से प्रकाशित दृष्टांत मैग्जीन से साभार लेकर भड़ास पर प्रकाशित किया गया है. इसके लेखक तेजतर्रार पत्रकार अनूप गुप्ता हैं जो मीडिया एवं नौकरशाही के भ्रष्टाचार से जुड़े मसलों पर बेबाक लेखन करते रहते हैं. वे लखनऊ में रहकर पिछले काफी समय से पत्रकारिता एवं नौकरशाही के भीतर मौजूद भ्रष्टाचार की पोल खोलते आ रहे हैं.