Bajrangi Bhaijaan देखे 24 घंटे हो गए। अब इस पर लिखना सेफ रहेगा। दरअसल, कल पहले हाफ के बाद इंटरवल में मेरा सिर दर्द करने लगा था। जब फिल्म खत्म हुई तो अच्छा फील होने लगा। कुल मिलाकर मैं कनफ्यूज़ हो गया कि फिल्म ठीक थी या बुरी, अलबत्ता एक निष्कर्ष तो कल ही निकाल लिया था कि यह फिल्म कमाई खूब करेगी। कल से लेकर अब तक दिमाग को फ्रीलांस स्थिति में छोड़ने के बाद मैंने इस फिल्म के बारे में कुछ निष्कर्ष निकाले हैं जो सामने रख रहा हूं। हो सकता है ईद पर ऐसी बातें शोभा न दें, लेकिन सलमान भाई अगर ईद के नाम पर ही इसे बेच रहे हैं तो इसका पंचनामा भी ईद पर ही किया जाना चाहिए।
1. सलमान खान को हाल में ही जेल की जगह बेल मिली है। वे नरेंद्र मोदी के साथ पतंग भी उड़ा चुके हैं। अब हम सुरक्षित तौर पर कह सकते हैं कि यह फिल्म मोहन भागवत और उनके ”हिंदू राष्ट्र” को दिया गया सलमान का रिटर्न गिफ्ट है।
2. व्यावसायिक सिनेमा में मेरी स्मृति के हिसाब से पहली बार आरएसएस, उसकी शाखा, नमस्ते सदा वत्सले और मुसलमान-पाकिस्तान पर कट्टर हिंदू धारणा को साफ़ शब्दों में स्थापित किया गया है। इसलिए यह फिल्म खुले तौर पर आरएसएस की संस्कृति/कार्यशैली को स्थापित करती है।
3. पाकिस्तान के लोगों से इसमें ”जय श्रीराम” कहलवाया गया है। याद करें कि गोधरा में ट्रेन के फूंके जाने के पीछे कारसेवा से लौट रहे हिंदुओं का भी कुछ मुसलमानों से यही आग्रह था। इसलिए यह फिल्म बाकायदा मार करवा सकती है। सरहद पर बनाए जा रहे माहौल और 1965 की जंग के पचासवें साल के प्रस्तावित सरकारी जश्न के आलोक में इसे देखें तो बात समझ में आएगी।
4. फिल्म में मुसलमानों के Stereotype को कैसे गढ़ा गया है, उससे कहीं ज्यादा खतरनाक हिंदुओं की stereotyping है। मसलन, पाकिस्तान में एक मौलवी जब बजरंगी से पूछता है कि आपके यहां अभिवादन कैसे करते हैं, तो बजरंगी कहता है ”जय श्रीराम”। क्या वास्तव में इस देश के हिंदू नमस्ते, नमस्कार, राम-राम नहीं बल्कि ”जय श्रीराम” कहते हैं? लिहाजा, यह फिल्म औसत लिबरल हिंदू को आरएसएस के और नजदीक लाती है जबकि ”संघी” हिंदुओं के सामने बजरंगी का आदर्श चरित्र गढ़कर उसे थोड़ा लिबरल बनाती है। यानी सब धान बाइस पसेरी!
5. फिल्म में वह मुसलमान अच्छा है जो बिना किसी आपत्ति के ”जय श्रीराम” बोल देता है (ओम पुरी)। वह मुसलमान खराब है जो शाहिद अफरीदी के छक्का लगाने पर खुश होता है। आरएसएस का भी यही एजेंडा है- भारत में रहना है तो हमारे तरीके से रहो। यानी यह फिल्म हिंदू राष्ट्र के प्रोजेक्ट में मुसलमानों को co-opt किए जाने का खाका बनाती है (अगर उन्हें मारा नहीं गया तो)।
6. लड़की गोरी है, तो ब्राह्मण की बच्ची होगी। अगर मांस भी खाती है, तो क्षत्रिय होगी। यहां तक चलेगा। इसके बाद का विकल्प हिंदू मानस में कोई नहीं। ऐसे उदाहरणों से वर्ण व्यवस्था के मिथकों को मजबूत करने वाली यह फिल्म हिंदू का अर्थ केवल ”द्विज” के तौर पर स्थापित करती है।
7. फिल्म में नायक पाकिस्तान में ”घुस” जाता है, लेकिन बार-बार कहता है कि मैं परमीशन लेकर आया। अंत तक उसके ”घुसने” पर कोई सवाल नहीं उठता। यह फिल्म पाकिस्तान को ”घुस कर मारने” की हिंदू आकांक्षा के लिए सिंकारा टॉनिक है, बिलकुल वैसे ही जैसे इस सरकार ने नगा विद्रोहियों को म्यांमार में कथित तौर पर ”घुस कर मारा” था। यह फिल्म इसीलिए अगले एक महीने में इस देश के समझदार लोगों को भी युद्ध के लिए तैयार कर पाने में समर्थ है। युद्ध भले न हो, युद्ध का माहौल भाजपा को बिहार में काम आएगा। नायक चूंकि प्रतापगढ़ का है, इसलिए इस फिल्म के निशाने से यूपी भी दूर नहीं है।
(बिलकुल ठंडे दिमाग से लिखे गए ये सारे बिंदु बहसतलब हैं)
अभिषेक श्रीवास्तव के एफबी वाल से