सीपी : अब यादें ही शेष….
राजू उर्फ चंद्र प्रकाश बुद्धिराजा उर्फ सीपी. पहले नाम का अर्थ जान लेते हैं, चंद्र के समान प्रकाश हो जिसका, बुद्धि के जो राजा हो। उर्फ सीपी पर भी गौर फरमाएं तो जुबां पर सीेधे विशालकाय अद्भुत, अनोखे दिल्ली की जान, कनॉट प्लेस (सीपी) का नाम दिमाग पर छा जाता है। अतिश्योक्ति न होगी कि सीपी के बिना दिल्ली अधूरी है। नाम को सार्थक करता प्रभाव था हमारे सीपी का, जो दुनिया से चले गए। सच में, तुम्हारे बिना आज तुम्हारे साथियों की दुनिया भी वैसे ही अधूरी है, जैसे ‘सीपी’ बिना दिल्ली।
खैर, चंद्रप्रकाश बुद्धिराज उर्फ सीपी जी न्यूज चैनल घराने के स्थापित सदस्यों में से एक हमारे पत्रकार साथी, शारदीय नवरात्र की सप्तमी (8 अक्टूबर, 2016) को चुपचाप चले गए । बिल्कुल वैसे ही, हंसी, स्वाभिमानी चेहरा लिए, जैसे रोजाना तड़के किलारोड़ (रोहतक) समीप अपने निवास से फिल्म सिटी नोएडा अपने दफ्तर जी न्यूज के लिए चलते थे। या फिर यूं कहूं कि जैसे वह छुट्टी के दिन शहर में गिने-चुने पत्रकार, चुनिंदा नेता और बुद्धिजीवी साथियों से गप कर चुपके से चल देते थे।
निष्ठान और संकोची भी थे सीपी। एक किस्सा उनके स्वभाव से जुड़ा बताना चाहूंगा। ‘आपकी अदालत’ शो फेम मशहूर पत्रकार रजत शर्मा जब जी न्यूज में अपने इस चर्चित कार्यक्रम से ख्याति हासिल कर रहे थे, और फिर निजी मीडिया हाऊस बनाने निकले तो, सीपी से साथ चलने को कहा, पर सीपी तैयार नहीं हुए, शायद इसलिए कि वह सीमित संसाधनों में खुश रहने वाले शख्स थे। फालतू का रिस्क लेने की आदत नहीं थी। ट्रेजडी किंग दिलीप को भी अपने अंदाज से हंसाने का माद्दा था उनमें।
एक और पहचान है सीपी की, ठीक वैसी ही जैसे दो-चार रोज पहले नेपाल की एक आठवीं कक्षा की छात्रा प्रकृति मल्ला ने हासिल की है, अपनी हेंडराइटिंग के जरिए विश्वभर में। दरअसल, जवानी के दिनों में सीपी जब अनाज मंडी में पान की दुकान चलाते थे, वहां कत्थे-चूने के अलावा उन्हें स्याही का खर्च भी उठाना पड़ता था क्योंकि उम्दा हेंडराइटिंग के चलते बाजार में किसी को चिट्ठी-पत्री या कोई और जरूरी खत लिखवाना होता तो इनका नाम आता और लोग बोलते- सीपी पान वाले के पास चलते हैं। उस वक्त फेसबुक-व्हाटसएप, एसएमएस जैसे माध्यम नहीं होते थे। सच कहूं तो उस वक्त का फेसबुक-व्हाटसएप, एसएमएस था सीपी। इसी हुनर के जरिए उनकी एंट्री मीडिया जगत में हुई। शहर के कई पुराने लोगों के पास आज भी सीपी के लिखे खत, यादों की फाइलों में मिल जाएंगे।
संवाद में बेजोड़ और मिलनसार होने के बावजूद नई पीढ़ी की ‘पत्रकार बिरादरी’ में घुल नहीं पाए। नामी चैनल जी न्यूज से जुड़े होने के बावजूद सीपी को करीब से जानने वाले शहर के पत्रकार या तो वरिष्ठ नागरिक की श्रेणी में हैं या फिर इस श्रेणी को हासिल करने की दहलीज पर खड़े हैं। पान का शौक उनका बिल्कुल अमिताभ बच्चन के फिल्मी किरदार सरीखे था। एक मुंह में तो चार जेब में। आलम यह था कि पान की जुगाली से उनके होठ अकसर सुर्ख लाल दिखते थे। ज्यादा कुछ मैं उनके बारे में नहीं जानता, क्योंकि जितनी मेरी उम्र है, उतना उनका लिखने का अनुभव था। लेकिन पुरानी पीढ़ी से अनुभव हासिल करने के मेरे शौक से ही कुछ माह पहले उनकी चौकड़ी में मुझे जगह मिली, तो थोड़ा बहुत उनको जान पाया।
वरिष्ठ पत्रकार, लेखक पवन बंसलजी की पुस्तक, जो छपने को लगभग तैयार थी और सीपी ने अपने अंदाज के रंग उसमें भरे थे, उसकी फाइनल टचिंग टेबल पर मैं सीपी से मिला। किताब के शीर्षक को लेकर सब सोच-विचार में थे तब मैंने ‘गुस्ताखी माफ’ शीर्षक सुझाया, सीपी के साथ सबका समर्थन मिला औरें ‘गुस्ताखी माफ हरियाणा शीर्षक पर मुहर लग गई। कुछेक लेख के शीर्षक भी मैंने सुझाए कि बदला जाए तो और पठनीय होंगे। शीर्षक के अंदाज और मेरी उम्र देख कर वह गदगद हो गए और फिर कई छोटी-बड़ी रचनाएं, कविताएं साझा की।
मुझे भी एक नया हुनरबाज मिला तो खुशी हुई कि यह साझा सफर आगे बढ़ेगा तो मजा आएगा, लेकिन ऐसा हो न सका। कुछ दिन बाद ही पता लगा कि सीपी मुख कैंसर की गिरफ्त में आ गए। मैं मिलने गया तो थोड़ा भावुक हुए, लेकिन ऐसे पेश आए जैसे कुछ बात ही न हो, ऑपरेशन के बाद डॉक्टरों ने उन दिनों बिल्कुल बोलने से मना किया था, पर बात किए बिना कहां मानने वाले थे। जाते हुए आश्वस्त किया कि जल्द ही कुछ लिख कर भेजता हूं।
कैंसर की पीड़ा में उनका ऑफिस आना-जाना लिखना पढऩा छूटने लगा। लेकिन जुनून की जिद से नया रास्ता चुन लिया। उम्र का अद्र्ध शतक पार करने बाद कैंसर की पीड़ा लिए सीपी फेसबुक से जुड़ गए, ताकि चाहने वालों से घर बैठे संवाद कर सकें। पोस्टें आने लगी, हमें लगा कि राहत है, लेकिन सप्ताह भर पहले अचानक फेसबुक पर पोस्ट डाली कि साथियों अब यहां (फेसबुक वॉल पर) मेरा इंतजार न करें। एकबारगी लगा कि ठिठौली कर रहे हैं, लेकिन यह ठिठौली न थी। इस संदेश की गंभीरता समझ उन तक पहुंच पाते, इससे पहले वह दुनिया को अलविदा कह गए और पीछे छोड़ गए बिल्कुल अकेला, संतान सुख से दूर, संगिनी सविता को, जिसे प्यार से सब अनु पुकारते हैं। उनसे मिल कर लौटा तो शैलेंद्र का लिखा, बंदिनी फिल्म का गीत याद आ गया ‘ओ जाने वाले, हो सके तो लौट के आजा…
लेखक अनिल कुमार मेडीकेयर न्यूज में समाचार संयोजक हैं. उनसे संपर्क [email protected] के जरिए किया जा सकता है.