…नाचने में कंजूसी मत करना। जी भर कर नाचो। ऐसे नाचो कि नाच ही रह जाए, तुम खो जाओ। हेरत-हेरत हे सखी, रह्या कबीर हिराई। नृत्य की बड़ी खूबी है, जो किसी और कृत्य में नहीं। नृत्य में जितने जल्दी नर्तक डूब जाता है और खो जाता है, किसी और चीज में नहीं खोता। हर चीज में द्वैत बना रहता है, नृत्य में बड़ा अद्वैत है। नृत्य नर्तक से अलग नहीं होता, संयुक्त ही रहते हैं, उनको अलग करने का उपाय ही नहीं।
नृत्य अपनी पराकाष्ठा पर पहुंचता है, तब नर्तक बिलकुल विस्मरण में हो जाता है। यही संन्यास है। नृत्य की इस कला को, डूब जाने को, अपने को विसर्जित, विस्मृत कर देने की इस अदभुत प्रक्रिया ही तो संन्यास है। संन्यास मेरे लिए त्याग नहीं है। संन्यास मेरे लिए परमात्मा का भोग है। संन्यास मेरे लिए परमात्मा के साथ-साथ इस विराट विश्व के महारास में सम्मिलित हो जाना है। नाचते-नाचते एक दिन पाओगे कि मिल गया वह जिसकी तलाश थी। अपने भीतर ही मिल गया! नाचते-नाचते जो मिलता हो, उसे रोते-रोते क्यों पाना? नाचते-नाचते जो मिलता हो, उसे उदास और गंभीर होकर क्यों पाना?
हंसते-हंसते जो मिलता हो, उसके लिए लोग नाहक ही धूनी रमाए बैठे हैं। जैसे परमात्मा कोई दुष्ट है और तुम्हें सताने को आतुर है। सो गर्मी के दिन हों और आप धूनी रमाए बैठे हैं। उतने से भी चित्त नहीं मानता तो और भभूत लगा ली है शरीर पर, ताकि शरीर में भी जो रंध्र हैं, जिनसे श्वास ली जाती है, वे भी बंद हो जाएं। किसको सता रहे हो? उसी को सता रहे हो! क्यों सता रहे हो? लोग उपवास कर रहे हैं, भूखे मर रहे हैं और सोच रहे हैं कि इस तरह परमात्मा प्रसन्न होगा।
तुम क्या सोचते हो कि परमात्मा कोई दुखवादी है? कोई सैडिस्ट है? कि तुम अपने को सताओ तो वह प्रसन्न हो? तुम्हारे महात्मा रुग्ण हैं, बीमार हैं, मानसिक रूप से व्याधिग्रस्त हैं। इनको चिकित्सा की आवश्यकता है। जिनकी हंसी खो गई, इनसे आदमी बचना चाहते हैं, इनसे परमात्मा भी बचना चाहेगा। इस तरह के लोगों के साथ कौन होना चाहेगा? इसलिए नाचो! जी भर कर नाचो! हंसो! गाओ! इस जगत को एक नाचते हुए, हंसते हुए, गाते हुए धर्म की जरूरत है। वही इस जगत को बचा सकता है…
ओशो की किताब ‘रहिमन धागा प्रेम का’ के प्रवचन 5 का संपादित अंश.
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