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सुख-दुख

सरकार और अखबार की सेटिंग से ‘ग्रामीण पत्रकारिता’ को लकवा मार गया है!

भी पत्रकारिता समाजसेवा का सबसे बड़ा प्लेटफॉर्म हुआ करता था। शोषितों,पीड़ितों को न्याय दिलवाना और भृष्टाचार के विरुद्ध आवाज उठाना पत्रकारिता थी। आज की पत्रकारिता समाजसेवा न होकर कॉरपोरेटेड हो गयी है या यूं कहें की पत्रकारिता को लकवा मार चुका है। खासकर ग्रामीण पत्रकारिता को।

कॉरपोरेटेड कम्पनियों के हाथों में पहुंची पत्रकारिता का एक ही मकसद है, कैसे अधिक से अधिक धन कमाया जाये।

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ब्यूरोक्रेट्स से लेकर ब्यूरोक्रेसी तक स्वीकार कर रहे हैं देश की 80 प्रतिशत आवादी गांवों में रहती है। सरकार भी ग्रामीण विकास पर बजट का एक बड़ा हिस्सा खर्च कर रही है। किंतु ग्रामीण क्षेत्र में मामूली कमीशन पर अखबार बांटने से लेकर जान जोखिम में डालकर खबरें संकलित करने और अखबार मालिकानों की पूंजी बढ़ाने के लिए विज्ञापन करने वाले ग्रामीण पत्रकारों/संवाददाताओं के लिए आज तक किसी सरकार ने कोई योजना नहीं बनाई है। अखबार मालिकान ग्रामीण पत्रकारों के सबसे बड़े शोषक बने हुए हैं। इनके विरुद्ध कोई कानून भी नहीं लाया गया है।

कैसे अधिक से अधिक कमाई हो ? इसके लिए मीडिया घराने लाखों रुपये सेलरी देकर मैनेजमेंट गुरुओं की सेवाएं ले रहीं हैं। यही मैनेजमेंट गुरु ग्रामीण क्षेत्र में मामूली कमीशन पर अधिक से अधिक अखबार बेंचने,विज्ञान करने के साथ ही जान जोखिम में डालकर खबरें संकलित करवाने का काम करवा रहे हैं। खास बात यह है कि ऐसे ग्रामीण क्षेत्र में काम करने वालों को मीडिया घराने अपना पत्रकार/संवाददाता तक स्वीकार नहीं कर रहे हैं।

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हमारी सरकारें समाज के प्रत्येक वर्ग के उत्थान के लिए नई नई योजनाएं ला रहीं हैं। किंतु ग्रामीण क्षेत्र में काम करने वाले ग्रामीण पत्रकारों/संवाददाताओं के जीवन यापन के लिए आज तक कोई योजना नहीं है। मतलब साफ है कि सरकार और मीडिया घरानों के गठजोड़ सबसे अधिक शोषण ग्रामीण पत्रकारों/संवाददाताओं का कर रहे हैं।

आमजन की समस्याओं को जोरशोर से उठाने वाले ग्रामीण पत्रकार अपनी ही समस्याओं को दिल मे दबाये खामोशी के साथ सरकार और अखबार मालिकानों के गठजोड़ को कोस रहे हैं। बहरहाल, सरकार और अखबार मालिकानों के पास ग्रामीण क्षेत्र के पत्रकारों के उत्थान की कोई योजना नहीं है।

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एक ग्रामीण पत्रकार द्वारा भेजे गए मेल पर आधारित।

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