
Samarendra Singh-
राजेंद्र यादव जी हम तो मर-खप जाएंगे – मगर आप जिंदा रहेंगे!

1997-98 का कोई दिन होगा। IIMC के दिन थे। मैं एक मित्र से मिलने बेर सराय पहुंचा। उनका कमरा किसी हॉस्टल के तीसरे-चौथे माले पर था। वहां वो तो नहीं मिले, उनका रूम पार्टनर मिला। वो भी मेरी ही क्लास में था। उससे बात होने लगी। साहित्य में मेरा हाथ तंग था। लेकिन उन दिनों मैं कविता, कहानी और उपन्यास पढ़ रहा था। बातचीत में पता चला कि वो भी कवि है। उसी क्रम में उसने मुझे बिना कोई अवसर दिए अपनी डायरी खोली और कविता पढ़ने लगा। एक के बाद एक मेरे ऊपर कई कविताएं पटक दीं। मैं घायल हो गया। किसी तरह पिच पर टिका रहा। फिर उसने डायरी बंद की और कहा कि आज इतना ही। बाकी किसी और दिन सुनाऊंगा। मैंने उछल कर उसकी गर्दन पकड़ ली। कहा कि साले जितनी सुनानी हो आज ही सुना दे। अगली बार आया और डायरी खुली तो यहां से सीधे नीचे फेंक दूंगा।
साहित्यकारों के बारे में मेरी राय राजेंद्र यादव जी से मुलाकात के बाद बनी। उन्हीं की महफिल में मैं दर्जनों साहित्यकारों से मिला। वो रोज लंच बाद अपने ऑफिस में मिलते थे। बड़े-बड़े साहित्यकारों के साथ मेरे जैसे कई निट्ठले वहां पहुंच जाते। राजेंद्र जी को सिगरेट पीने की मनाही थी। वो मानने वाले इंसान नहीं थे। मांग कर सिगरेट पी लेते थे। मना करने पर उलाहना देते और आंख दिखाते थे। बीच-बीच में चाय आती। मैं एक कोने में बैठ कर चाय पीते हुए बड़े लोगों की बातें सुनता। वो यादगार पल थे। जीवन के सुनहरे पल थे।
राजेंद्र यादव जी ने अनेक साहित्यकार गढ़े। कहानीकारों और कवियों को अवसर दिया। मेरे जैसे लोग जिन्हें न कहानी लिखनी आती थी और ना ही जिनमें कवि बनने की कुछ क्षमता थी, उन्हें समीक्षा और लेख का अवसर दिया। मेरे जीवन का पहला लेख हंस में छपा था। उसके कवरपेज पर लिखा हुआ था – समरेंद्र का लेख। खुशी इतनी बड़ी थी कि उसके स्वीकृत होने मात्र पर मैंने अमर उजाला की नौकरी छोड़ दी और मेरठ से दिल्ली चला आया। मुझ जैसे लोगों से लिखवाना बड़ा जोखिम का काम था, पता नहीं क्या लिख दें। लेकिन ये जोखिम वो लेते थे। न जाने कितने लोगों के लिए उन्होंने ये जोखिम लिया। उनको खुद पर यकीन करना सिखाया। बिना कोई अधिकार, कोई अहसान जताए। एक सच्चा दोस्त बन कर।
फिर धीमें धीमें मैं दूर होता गया। मुझे रेस में शामिल होना था। इसलिए नौकरी करनी थी। 2000 से 2008 के बीच कभी-कभार ही उनके यहां जाना होता था। वो जब भी मिलते तो पूछते “जिंदा हो”? मैं झेंप जाता। अनगिनत लोग यूं ही जीवन गुजार देते हैं। मुझे भी कुछ ऐसा ही लगता था, जैसे बिना किसी मकसद के चला जा रहा हूं। नौकरी और पैसे के चक्कर में बहुत कुछ चला गया।
उसी दौरान मैंने राजेंद्र यादव जी को कुछ लोगों से मिलवाया था। उनमें गीताश्री और अजित अंजुम भी थे। कुछ समय बाद ये लोग उनका जन्मदिन मनाने लगे। दो-तीन बार जन्मदिन प्रेस क्लब में भी मनाया गया। उस जश्न में मैं शामिल हुआ। फिर एक दिन 2010-12 की बात होगी। जितेंद्र भाई का फोन आया। उन्होंने कहा कि राजेंद्र जी के जन्मदिन के कार्यक्रम में चलना है न? मैंने कहा हां चला जाएगा। फिर मैंने पूछा कि कार्यक्रम कहां हैं। उन्होंने नॉर्थ एवेन्यू का पता दिया। वो पता कांग्रेस नेता महाबल मिश्रा का था। मैंने जितेंद्र भाई को मना कर दिया। कहा कि आप हो आइए, मैं नहीं जाऊंगा।
दरअसल महाबल मिश्रा जाति से भूमिहार हैं। अजित अंजुम और गीताश्री भी भूमिहार हैं। उन दिनों कॉमनवेल्थ खेलों में हुए घोटालों की चर्चा जोरों पर थी। शीला दीक्षित के सितारे गर्दिश में थे। शीला दीक्षित साहित्य, कला, संगीत और खान-पान का शौक रखती थीं। सहित्यकारों और कलाकारों की संगत में रहती थीं। उनके टक्कर में महाबल मिश्रा को खड़ा करना था। इसके लिए राजेंद्र यादव से अधिक मजबूत मुहर किसकी हो सकती थी! राजेंद्र जी इस्तेमाल किए गए। राजेंद्र जी ने खुद को इस्तेमाल होने दिया। फिर एक दिन खबर आयी कि लंपट अजित अंजुम ने राजेंद्र जी की कॉलोनी में जाकर उन्हें गालियां दी हैं। बुरा-भला कहा है। ये घटना 2012 की होगी। मैं अपने एक मित्र के साथ चंडीगढ़ से दिल्ली के रास्ते में था। मैंने राजेंद्र जी को फोन किया। पूछा कि क्या हुआ? उन्होंने कहा कि उसने (अजित अंजुम ने) बहुत गालियां दी हैं। मैंने पूछा कि आपने क्या किया? उन्होंने कहा कि क्या करता… घर में बैठा रहा।
दरअसल, पत्रकारों और साहित्यकारों की दुनिया बहुत सड़ी हुई है। ये घात-प्रतिघात, छल-कपट की दुनिया है। जो लोग साथ चलते हैं, वो कब आपकी पीठ में चाकू घोपेंगे आपको अंदाजा भी नहीं होगा। आप कहां इस्तेमाल कर लिए जाएंगे आपको भनक भी नहीं लगेगी। यहां धोखे की वजह जाति होगी। धर्म होगा। क्षेत्र होगा। भाषा होगी। भीतर की कुंठाएं होंगी। डर और लालच होगा। मसलन एक बहुत बड़े आलोचक थे। उनका होनहार शिष्य उनकी सेवा करता था। शिष्य जिस विश्वविद्यालय में पढ़ा रहा था, वहां एक पद खाली हुआ। उसने भी भरा। उसका हक था। लेकिन आलोचक का रिश्तेदार भी दावेदार था। आलोचक ने योग्य शिष्य की जगह रिश्तेदार चुना। शिष्य की जाति अलग थी।
लेकिन राजेंद्र जी इस भीड़ में अलग थे। वो छल नहीं करते थे। बाकी जो करते थे, खुल कर करते थे। एक बार उनके कुछ लिखे पर विवाद हुआ। मैंने पूछा आपने ये क्यों लिखा? क्या जरूरत थी आपको? क्या ये जरूरी है कि सब लिख दिया जाए? उन्होंने कहा कि वही लेखक याद रहेगा जो लेखन को लेकर ईमानदार होगा। उसका शब्द संसार उसकी असली पूंजी है। इसलिए लेखकों को अपनी जिंदगी, अपने विचार, अपने अनुभव, अपना दर्द, अपनी खुशी पूरी ईमानदारी से बयां करनी चाहिए। कितनी प्यारी बात थी! कई बार सोचता हूं कि सृजन है क्या? जो समाज से मिला उसे मथने के बाद जो निकला वो समाज को लौटना ही तो लेखन है। सृजन है। जो टूटा ही नहीं, वो नया रचेगा क्या? नया तो वही रचेगा, जो टूटेगा, बिखरेगा, पिघलेगा … फिर जुड़ेगा, ढलेगा, नई शक्ल अख्तियार करेगा – वही रचना तो नई रचना होगी!
आज 31 जुलाई है। आज के दिन हर साल राजेंद्र जी हंस की महफिल सजाते थे। साहित्य के इस लंपट दौर में उनकी याद गहरी हो जाती है। आज राजेंद्र जी हमारे बीच नहीं हैं, फिर भी मैं कहना चाहता हूं: मेरे जैसे अनगिनत लोग मर-खप जाएंगे, कई पीढ़ियां मिट्टी में मिल जाएंगी – मगर राजेंद्र जी के शब्द, उनके विचार, उनकी बेबाकी और उनकी ईमानदारी उन्हें जिंदा रखेगी। देखिए न… दूर कहीं से उनका वो सवाल मेरे कानों में गूंज रहा है – जिंदा हो!
समरेंद्र सिंह लंबे समय तक एनडीटीवी में कार्यरत रहे हैं.
One comment on “‘हंस’ में लेख छपते ही अमर उजाला मेरठ की नौकरी छोड़ दिल्ली चला आया!”
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