सौरभ यादव-
वरिष्ठ पत्रकार शीतला सिंह नहीं रहे…उनसे कभी मिलने का मौका तो नहीं मिल पाया लेकिन कुछ दिनों पहले उनकी लिखी ये किताब मंगाई और पढ़नी शुरू की है…ये आंखें खोलने वाली किताब है। इसे पढ़कर लगा कि ये किताब पत्रकारिता में आ रहे हर छात्र को पढ़नी कितनी जरूरी है। सभी हिन्दुओं को भी जरूर पढ़नी चाहिए जो धर्म के नाम पर वोट देते हैं।
आशुतोष कुमार-
शीतला सिंह के जाने की खबर उदास करने वाली है. फैजाबाद के सारे आलम में मशहूर अखबार जनमोर्चा के संस्थापक इस पत्रकार ने दिखा दिया था कि पत्रकारिता खरी हो तो बेहद कम साधनों के साथ एक छोटे से कस्बे से निकलने वाला अखबार भी दुनिया का केंद्र बन सकता है.
अयोध्या उन्माद के दौर में जनमोर्चा वह अखबार था, जो दुनिया को हवा में उडाई जा रही कहानियों के बरक्स जमीनी सच्चाइयों का पता दिया करता था.
गोधरा के ठीक पहले इसी अखबार ने चेताया था कि गुजरात के कारसेवकों से भरी रेलगाड़ियाँ जिस हिंस्र जूनून को ढो रही हैं, उसकी परिणति किसी भीषण त्रासदी में हो सकती है.
शीतला सिंह नब्बे पार कर चुके और अपनी आख़िरी सांस तक सच्चाई के पहरेदार बने रहे. अजब संयोग है कि आज जब वे गए हिन्दी का साहित्यिक समाज कवि पत्रकार मंगलेश डबराल को उनके जन्मदिन पर शिद्दत से याद कर रहा था.
शायद इसी संयोग का फल है कि शीतला सिंह को भावांजलि देने के लिए मुझे मंगलेश जी की ही कविता याद आनी थी.
|एक जीवन के लिए|
(मंगलेश डबराल)
शायद वहाँ थोड़ी-सी नमी थी
या हल्का-सा कोई रंग
शायद सिहरन या उम्मीद
शायद वहाँ एक आँसू था
या एक चुंबन
याद रखने के लिए
शायद वहाँ बर्फ़ थी
या छोटा-सा एक हाथ
या सिर्फ़ छूने की कोशिश
शायद अँधेरा था
या एक ख़ाली मैदान
या खड़े होने भर की जगह
शायद वहाँ एक आदमी था
अपने ही तरीक़े से लड़ता हुआ।