Abhishek Srivastava : किसी पत्रकार के लिए अपने संस्थान के भीतर या बाहर सत्ता-समर्थक विचार से ”असहमति” जताना कितना घातक हो सकता है, इसका अंदाज़ा लगाना मुश्किल है। ऐसे ”असहमत” पत्रकार चाहे कितने ही पुराने क्यों न हों, हर संस्थान के लिए सनातन ख़तरा होते हैं। ताज़ा उदाहरण सीएनएन के मशहूर पत्रकार Jim Clancy का है जिनसे बीते दिनों इसलिए जबरन इस्तीफा ले लिया गया क्योंकि शार्ली एब्डो के मामले पर उन्होंने कुछ ऐसे ट्वीट किए जो इज़रायल समर्थकों को (इज़रायली स्वामित्व वाले अमेरिकी मीडिया को भी) रास नहीं आए।
जिम 34 साल से सीएनएन में थे। शार्ली एब्डो पर हमले के बाद हुए मीडिया विमर्शों में जो पाला खींच दिया गया था- इस्लामिक आतंकवाद समर्थक बनाम इस्लाम विरोधी- उन्होंने दोनों को चुनने से इनकार कर दिया और बड़ी विनम्रता से ट्वीट किया कि ”हर मुस्लिम आतंकवादी है… इस सोच को दोबारा परखा जाना चाहिए।” उन्हें बाहर का रास्ता दिखा दिया गया। पहले भी वे इज़रायल का विरोध करते रहे थे लेकिन नौकरी में बने हुए थे, फिर अबकी ऐसा क्या हो गया???
मुझे लगता है कि आप अगर सत्ता विरोधी रुख रखते हैं, तो ज़रूरी नहीं कि आपको संस्थान से पहले ही दिन निकाल दिया जाए। हर संस्थान अपने भीतर विरोध के तत्वों को एक सीमा तक सहता है। यह सीमा कुछ महीनों से लेकर कुछ बरसों और दशकों तक की भी हो सकती है- बिलकुल किसी रबरबैंड की तरह, लेकिन एक बिंदु पर हर रबरबैंड टूटता भी है। संस्थागत पत्रकारिता (यानी नौकरी) के भीतर भी लोकतंत्र है, बस उसकी सीमा हम या आप नहीं जानते। यानी सत्ता से ”असहमत” रहते हुए भी नौकरी की जा सकती है, लेकिन नौकरी कब जाएगी यह हम या आप नहीं जानते।
एक ”असहमत” पत्रकार की असहमति और संस्थान के भीतर/बाहर उसके असहमत होने की लोकतांत्रिक स्थिति- दोनों ही मालिकों/मैनेजरों की जेब में रहती हैं। हम, आप या जिम क्लैंसी सिर्फ असहमत हो सकते हैं जबकि वे हमें सिर्फ नौकरी से निकाल सकते हैं। इसीलिए किसी पत्रकार का नौकरी से निकाला जाना या कहीं नौकरी मिलना मुद्दा नहीं होना चाहिए। मुद्दा यह होना चाहिए कि नौकरी में रहते हुए उसकी ”असहमति” की वो हद क्या थी जिस पर उसे निकाल दिया गया। मुद्दा यह होना चाहिए कि नौकरी पाने/उसमें टिके रहने के लिए उसके किए ”समझौतों” की हद क्या थी। जेनुइन पत्रकारीय कर्म के अलावा किसी भी पत्रकार की ”क्रांतिकारिता” (भारत के न्यूज़रूमों में सबसे हास्यास्पद बन चुका शब्द) को उसकी ”असहमतियों” व ”समझौतों” की हद से परिभाषित किया जाना चाहिए।
पत्रकार और एक्टिविस्ट अभिषेक श्रीवास्तव के फेसबुक वॉल से.