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मजीठिया रिकवरी के नए दावों से भ्रमित न हों, खाई में गिरने से बचें

रविंद्र अग्रवाल-

मजीठिया आंदोलन से जुड़े साथियों आने वाले वर्ष की शुभकामनाओं सहित यह सूचित करना चाहता हूं कि इन दिनों मजीठिया क्‍लेम को लेकर एक नया व्‍हाट्सएप ग्रुप सक्रिय हुआ है। इस ग्रुप में कुछ सज्‍जन लोग यह दावा करते हुए अखबार कर्मचारियों की डिटेल मांग रहे हैं कि वे एक नए तरीके से उन्‍हें मजीठिया वेजबोर्ड के तहत क्‍लेम दिलवाने जा रहे हैं।

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जहां तक मेरी समझ में बात आई है, यह दावा किया जा रहा है कि वे एक ज्‍वाइंट एप्‍लीकेशन के जरिये सेंट्रल लेबर कमीशनर के पास इंडस्‍ट्रियल डिस्‍प्‍युट एक्‍ट, 1947 की धारा 33 सी (1) के तहत क्‍लेम फाइल करके पूरे देश के अखबार कर्मियों को बिना कोर्ट में गए मजीठिया का क्‍लेम दिलवा देंगे।

इस संबंध में मैने स्‍वयं ग्रुप में यह बताने की कोशिश की है कि आईडी एक्‍ट या औद्योगिक विवाद अधिनियम की धारा 33 सी (1) के तहत लेबर अथारिटी को बहुत सीमित अधिकार दिए गए हैं। इस तरह के क्‍लेम में अधिकारी तभी रिकवरी जारी कर सकता है, जब नियौक्‍ता स्‍वयं कबूल करे कि कर्मचारी ने जो क्‍लेम लगाया है, उतनी रकम असल में देय है। अगर नियौक्‍ता इस तरह के क्‍लेम में अपना जवाब दाखिल करके किसी भी प्रकार का विवाद करता है या किसी प्रकार की देनदारी ना होने की बात लिखता है तो फिर 33 सी (1) की एप्‍लीकेशन में अधिकारी आगे की सुनवाई का अधिकार नहीं रखता है। इसके बाद कर्मचारी के पास आईडीएक्‍ट की धारा 33 सी (2) के तहत लेबर कोर्ट/इंडस्‍ट्रियल ट्रिब्‍युनल में सीधे रिकवरी की एप्‍लीकेशन डालने का अधिकार बचता है। इस एप्‍लीकेशन में भी लेबर कोर्ट/इंडस्‍ट्रियल ट्रिब्‍युनल के सुनवाई करने के सीमित अधिकार हैं।

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चूंकि मजीठिया वेजबोर्ड एक अवार्ड है, तो लेबर कोर्ट इसके तहत रिकवरी कर सकता है, लेकिन अगर कंपनी या नियोक्‍ता इसमें भी यह विवाद पैदा करके कि आवेदक उसका कर्मचारी नहीं है, या आवेदक ने 20 जे के तहत हस्‍ताक्षर किए हैं, या उसकी क्‍लासीफिकेशन गलत की गई है (ऐसे अन्‍य कई तरह के विवाद जो मौजूदा समय में चल रहे मुकद्दमों में उठाए जा रहे हैं) तो कोर्ट या प्रधिकरण को इसमें एडज्‍युडिकेशन (विवाद के बिंदुओं पर न्‍याय निर्णय करना) का अधिकार नहीं है। इस तरह के क्‍लेम में लेबर कोर्ट/इंडस्‍ट्रियल ट्रिब्‍यूनल को सिर्फ एक्‍जीक्‍यूशन (पहले से तय फैसले को लागू करवाना) का ही अधिकार है। ऐसे में ताजा मामले में जो भी साथी इस तरह के क्‍लेम लगाकर मजीठिया वेजबोर्ड के तहत रिकवरी कटवाने का दावा कर रहे हैं, वो अपने साथ-साथ बाकी साथियों को भी कई वर्षों के लंबी और बिना मतलब की प्रक्रिया में धकेलने का प्रयास कर रहे हैं।

मैंने आईडी एक्‍ट की उपरोक्‍त दोनों धाराओं को लेकर मानानीय सर्वोच्‍च न्‍यायालय और विभिन्‍न उच्‍च न्‍यायालयों के निर्णयों का काफी गहराई से अध्‍ययन किया है। इस आधार पर सभी को इस संबंध में आगाह करना अपना फर्ज समझता हूं और आपको आगाह कर दिया है। अब इसके बावजूद कोई खुद को खाई में धकेलना चाहे तो यह उसका निजी फैसला होगा।

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हां, जहां तक वर्किंग जर्नलिस्‍ट एक्‍ट की धारा 17 की बात है तो इसकी धारा 17(1) आईडी एक्‍ट की धारा 33सी(1) के ही समानांतर धारा है और कई साथी इस धारा के तहत रिकवरी भी कटवा चुके हैं और कईयों की रिकवरी श्रम अधिकारियों ने खुद काट दी थी। इसके चलते हालत यह हो गई थी कि अखबार मालिकों ने इन रिकवरी आदेशों को हाईकोर्ट में चैलेंज किया और लंबे अर्से बाद दोबारा मामले श्रम अधिकारियों के पास पहुंच गए और वर्किंग जर्नलिस्‍ट एक्‍ट की धारा 17(2) के तहत विवादित बिंदुओं को निर्णय के लिए लेबर कोर्ट भेजा गया। इस प्रक्रिया में दो से तीन साल बर्बाद हुए और हाईकोर्ट में केस लड़ने में जो धन खर्च हुआ सो अलग।

अब नए दावेदार भी इसी तरह की गलती नए तरीके से करने की योजना बनाए हुए हैं। इस संबंध में इनमें से एक से मेरी चर्चा भी हो चुकी है, मगर ये महाशय मानने को तैयार ही नहीं हैं। इनका दावा है कि अवमानना याचिकाओं पर माननीय सुप्रीम कोर्ट ने 19 जून, 2017 को जो निर्णय सुनाया है, उसमें यह बात लिखी गई है कि मजीठिया के क्‍लेम को अब लेबर कोर्ट में भेजने की जरूरत नहीं है। श्रम अधिकारी ही इस पर आरसी काटने को अधिकृत हैं। उन्‍होंने अपने इस दावे को लेकर इस जजमेंट के जिस पैरे का उल्‍लेख किया है, वह नीचे दिया गया है-

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  1. Having clarified all doubts and ambiguities in the matter and upon holding that none of the newspaper establishments should, in the facts of the cases before us, be held guilty of commission of contempt, we direct that henceforth all complaints with regard to non-implementation of the Majithia Wage Board Award or otherwise be dealt with in terms of the mechanism provided under Section17 of the Act. It would be more appropriate to resolve such complaints and grievances by resort to the enforcement and remedial machinery provided under the Act rather than by any future approaches to the Courts in exercise of the contempt jurisdiction of the Courts or otherwise.
  2. Insofar as the writ petitions seeking interference with transfer/termination, as the case may be, are concerned, it appears that the same are relatable to service conditions of the concerned writ petitioners. Adjudication of such question in the exercise of high prerogative writ jurisdiction of this Court under Article 32 of the Constitution would not only be unjustified but such questions should be left for determination before the appropriate authority either under the Act or under cognate provisions of law (Industrial Disputes Act, 1947 etc.), as the case may be.

मैं इस जजमेंट का हिंदी अनुवाद पहले ही सभी साथियों तक पहुंचा चुका हूं। इसके अनुसार इन पैरों का हिंदी अनुवाद इस प्रकार से है:

  1. इस मामले में सभी संदेहों और अस्पष्टताओं को स्पष्ट करते हुए और यह मानते हुए कि किसी भी समाचार पत्र प्रतिष्ठान को, हमारे समक्ष मामलों के तथ्यों में, अवमानना करने का दोषी नहीं ठहरया जाना चाहिए, हम निर्देश देते हैं कि अब से मजीठिया वेजबोर्ड अवार्ड को लागू न किए जाने या अन्यथा के संबंध में सभी शिकायतों को अधिनियम की धारा 17 के तहत मुहैया करवाए गए तंत्र के अनुसार निपटाया जाएगा। न्यायालयों के अवमानना क्षेत्राधिकार या अन्यथा के इस्तेमाल के लिए दोबारा न्यायालयों से संपर्क करने के बजाय अधिनियम के तहत मुहैया करवाई गई प्रवर्तन/इन्फोर्समेंट और उपचारकारी मशीनरी द्वारा ऐसी शिकायतों का समाधान किया जाना अधिक उचित होगा।
  2. जहां तक कि तबादलों/ बर्खास्तगी के मामलों में हस्तक्षेप की मांग करने वाली रिटयाचिकाओं के रूप में, जैसा कि मामला हो सकता है, से संबंध है, ऐसा लगता है कि ये संबंधित रिट याचिकाकर्ताओं की सेवा शर्तों से संबंधित है। संविधान के अनुच्छेद 32 के तहत इस न्यायालय के अत्याधिक विशेषाधिकार रिट क्षेत्राधिकार का इस्तेमाल इस तरह के सवाल के अधिनिर्णय के लिए करना न केवल अनुचित होगा परंतु ऐसे सवालों को अधिनियम के तहत या कानून संगत प्रावधानों(औद्योगिक विवाद अधिनियमए 1947 इत्यादि), जैसा कि मामला हो सकता है, के तहत उपयुक्त प्राधिकारी के समक्ष समाधान के लिए छोड़ दिया जाना चाहिए।

अवमानना याचिकाओं की जजमेंट के उपरोक्‍त दो पैराग्राफों में सर्वोच्‍च न्‍यायालय ने यह बात स्‍पष्‍ट तौर पर कही है कि मजीठिया वेजबोर्ड की रिकवारी के मामलों को वर्किंग जर्नलिस्‍ट एक्‍ट की धारा 17 के तहत ही निपटाया जाएगा। साथ ही कोर्ट ने याचिकाकर्ताओं को यह हिदायत दी थी कि वे अपने ट्ररांस्‍फर/टर्मिनेशन, 20 जे के तहत जबरन हस्‍ताक्षर और याचिका में उठाए गए अन्‍य विवादों को लेकर अवमानना या अन्‍य याचिकाओं के माध्‍यम से कोर्टों में ना जाएं (या कहें कि समय बर्बाद ना करें)।

रिकवारी के मामलों के लिए जहां वर्किंग जर्नलिस्‍ट एक्‍ट की धारा 17 के तहत तो वहीं ट्रांस्‍फर/ टर्मिनेशन के मामलों में आईडी एक्‍ट के तहत बनाई गई मशीनरी का उपयोग करने को कहा गया था। ऐसे में जो साथी इन दोनों पहराग्राफों के माध्‍यम से सेंट्रल/चीफ लेबर कमीशनर के यहां एप्‍लीकेशन डाल कर रिकवरी आर्डर कटवाने के दावे कर रहे हैं, उनका उपरोक्‍त निर्णय से कोई लेना देना नहीं है। अगर फिर भी कोई साथी इनके कहे अनुसार रिकवरी का गलत रास्‍ता चुनता है तो अपने भविष्‍य का वही जिम्‍मेवार होगा। जहां तक मौजूदा मामलों में देरी का सवाल है तो हमारे देश की कानून व्‍यवस्‍था शुरू से ही लेट लतीफ रही है। लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि हम अपना सही रास्‍ता छोड़ कर खाई की ओर चल पड़ें। हां जहां तक सेंट्रल/चीफ लेबर कमीशनर के यहां एक एप्‍लीकेशन के तहत रिकवरी कटवाने का सवाल है, तो यह बात भी समझ के परे है कि देश के विभिन्‍न अखबारों के साथियों की एक साथ एप्‍लीकेशन कैसे लग पाएगी।

रविंद्र अग्रवाल
अध्‍यक्ष
न्यूज़ पेपर एम्प्लॉयज यूनियन ऑफ इंडिया
(एनईयूआई)

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