#metoo क्यों अच्छा है हमारे समाज में यौन अभिव्यक्ति या यौन प्रताड़ना जैसे विषय हमेशा से taboo रहे हैं. कुछ व्यभिचारी इसका फायदा उठाते हैं और तमाम तरह से महिलाओं का शोषण करते हैं. यह हमारी सामाजिक आवश्यकता है कि महिलाएं इसके खिलाफ आवाज़ उठायें, ताकि इस तरह की घटनाओं में कमी आये. यह एक पुरानी चोट हैं, जिसमें मवाद भर गया है. इसमें चीरा लगाया जाना ज़रूरी है.
आज से पहले #metoo क्यों नहीं हुआ जब महिलाओं पर किये उत्पीड़न की बात आती है, तो अधिकतर महिलाएं चुप रहना ही ठीक समझती हैं. हमारा समाज उनको ज्यादा बोलने का मौक़ा नहीं देता. जो बोलती हैं, वो आखिरकार समझौता करके ही रह पाती हैं. नारी सशक्तिकरण बस एक जुमला है. पर यह भी सच है कि किसी भी तरह के अत्याचार को आप सहते हैं तो आप खुद भी अपराधी हैं.
बोलने और सुनने में ये सब अच्छा लगता है. पर जब एक परिवार में या एक नौकरी में रहते हुए अन्दर से ही लड़ने की नौबत आती है, तो यह किसी महिला के लिए आसान नहीं है. फिर भी हमारे देश में कानून महिलाओं के पक्ष में अधिक झुका हुआ है. महिलाएं इसका लाभ ले सकती हैं. दहेज़ उत्पीडन जैसे कानून यहाँ पर हैं, जिसमें दुसरे पक्ष को सुने बिना उनको अन्दर कर दिया जाता है.
इस बार का #metoo movement इतना काम अवश्य करेगा कि महिलाएं आगे आएँगी और अत्याचार के खिलाफ आवाज़ उठाएंगी. आज से पहले महिलाओं के पास एक आन्दोलन का साथ नहीं था, जो कि आज मिला है.
आन्दोलन को कमज़ोर करने वाली महिलाएं हम एक भावनात्मक देश हैं, एक भावनात्मक समाज हैं और घर के अन्दर एक भावनात्मक परिवार हैं. कई बार भावना के आवेश में बहकर हम ऐसा करने लग जाते हैं जो किसी आन्दोलन की मूल भावना के ख़िलाफ़ होता है.
#metoo आन्दोलन के साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ है. एक मोहतरमा ने हैश टैग लगाते हुए लिखा है, कि एक नामी सज्जन उनके वक्षों को देख रहे थे इसलिए उनके साथ #metoo हो गया. वक्षों को देखना एक अच्छा काम कतई नहीं है, पर इसको अगर आप #metoo बोलेंगी, फिर तो हर महिला कर्मी के साथ दिन में १००-२०० बार #metoo हो जाता होगा.
दूसरी महिला जो कि एक नामी बैडमिंटन खिलाड़ी रही हैं, साथ ही जो अपने दुर्व्यवहार और गलतबयानी के कारण खेल संस्थाओं से बैन भी की जा चुकी हैं, उन्होंने भी आरोप लगाया है. उनके हिसाब से बैडमिंटन के “चीफ” ने प्रतियोगिता के लिए उनका चुनाव नहीं किया जिससे उनका करियर तबाह हो गया. हालाँकि यहाँ इन “चीफ” पर किसी तरह के यौन दुर्व्यवहार का मामला नहीं है. पर वो महिला हैं, इसलिए उनके हिसाब से ये #metoo हो गया.
महिला का नाम ज्वाला गुट्टा है, और चीफ का नाम पुलेला गोपीचंद हैं. ये वही गोपीचंद हैं जिन्होंने आल इंग्लैंड चैंपियनशिप जीतकर देश का नाम रोशन किया, फिर कई सुपर सीरीज जीतीं. प्रकाश पादुकोण के बाद वो पहले खिलाड़ी हैं जिन्होंने ये उपलब्धियां हासिल कीं. साथ ही, उन्होंने हैदराबाद में विश्व स्तर से भी ऊपर, विश्व की सर्वश्रेष्ठ बैडमिंटन अकादमी स्थापित की.
साइना नेहवाल और पी वी सिन्धु हैदराबाद से आती हैं, ये कोई संयोग नहीं है. उन्होंने गोपीचंद के कारण ही ओलंपिक मैडल जीत पाए हैं. पिछले कई साक्षात्कारों में गोपीचंद ने बताया है कि किस तरह उन्होंने अपने निजी प्रयासों से ये सब किया, और सरकार से ज्यादा कुछ मदद नहीं मिली.
अब जाकर सरकार ने उनको सही जगह दी है और नेशनल कोच बनाया है. पर ज्वाला गुट्टा जैसी तुनकमिजाज़ महिलायें ऐसे महान खिलाड़ी पर आरोप लगा रही हैं कि उनका चुनाव नहीं किया गया इसलिए वो #metoo में लाये जाएँ. यह प्रकरण दिखता है कि कैसे हम भारतीय लोग रिजेक्शन को स्वीकार नहीं कर पाते. अंग्रेजी में ऐसे लोगों को “लूज़र “ बोलते हैं. ऐसे लोगों को सहानुभूति नहीं मिलनी चाहिए.
#metoo को सफल कैसे बनाया जाए? क्या सिर्फ ट्वीट कर देने से ये आन्दोलन सार्थक हो जायेगा? क्या हम बस यही चाहते हैं कि लोग ट्वीट और पोस्ट करते रहें, कुछ समय के बाद भूल जाएँ, आप अपने रास्ते और हम अपने रास्ते? होना यही है, अगर इन प्रकरणों को ठीक से नहीं उठाया गया.
आपने आवाज़ उठाई, यह साहस तारीफ के काबिल है. पर आपका मकसद बस ट्वीट करना नहीं होना चाहिए. शोषणकर्ता के खिलाफ आप शिकायत कीजिये, कानूनी तरीके से मामला आगे ले जाइए.
आज मीडिया आपके साथ है, लोगों की सहानुभूति आपके साथ है. पर इसका मतलब यह नहीं कि हम मीडिया ट्रायल करके शांत बैठ जाएँ. मैंने देखा हैं कुछ नामी एडिटर तमाम गालियाँ लिख रहे हैं. आखिर क्यों? आपने मीडिया ट्रायल से जज वाला काम कर दिया है, अपने मन में अपराध सिद्ध कर दिया है, और गाली भांज रहे हैं. एक नमूना देखिये:
निधि राज़दान जो अपने को “Executive Editor at NDTV” लिखती हैं, कह रही हैं कि उस पुरुष को नरक में सड़ना चाहिए. निधि जी को चाहिए था कि वो पीड़िता के साथ सहानुभूति जतातीं पर इस तरह से बिना आरोप सिद्ध हुए किसी को नरक में न भेजतीं. यहाँ पर यह उदाहरण इसलिए भी और महत्त्वपूर्ण है, क्योंकि यह दिखाता है कैसे हम बायस्ड होकर सोचने लग जाते हैं. मीडिया के लोग, खासकर ऐसे सीनियर लोग, जब यह करने लगते हैं तो आप कैसे उम्मीद करेंगे कि जनता को निष्पक्ष खबरें परोसी जा रही हैं?
कुल मिलाकर आशा यही करता हूँ कि #metoo आन्दोलन सफल हो. दोषियों को कड़ी सज़ा मिले. इसके लिए आवश्यक है हम और आप अधिक आवेश में आये बिना अपने विवेक और धैर्य को बनाये रखें और यदि पत्रकार हैं तो निष्पक्ष रिपोर्टिंग करें. जय हिन्द.
लेखक दिवाकर प्रताप सिंह आईटी सेक्टर के उद्यमी हैं. उनसे संपर्क [email protected] के जरिए किया जा सकता है.