अब लोकसभा चुनाव अपने अंतिम चरणों में है. पूरी दुनिया 23 मई का इंतजार कर रही है. जब सबको पता लग जाएगा कि दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र का इस बार का जनादेश क्या है. सत्ता पक्ष और प्रतिपक्ष के दावों प्रतिदावों के बीच तमाम एजेंसिया और मीडिया भी 19 मई की शाम से अपना अपना राग अलापने लगेंगे. ये आंकड़ेबाजी/बहस 23 को नतीजे आने तक चलती रहेगी.
जिस तरह से चुनाव हुआ/हो रहा है, मुझ समेत कई विश्लेषकों का ये विश्वास अब दृढ़ हो चला है कि पूर्ण बहुमत किसी पार्टी या गठबंधन को नहीं मिलने जा रहा है. हंग पार्लियामेंट होगी. स्पष्ट जनादेश न मिलने की स्थिति में आज की राजनीति में प्रचलित विभिन्न कूटनीतियों का सदुपयोग जो बेहतर कर ले जाएगा, संभावना है कि वह सरकार बना ले जाए.
मेरा सवाल यहां पर ये है कि यदि नतीजों में नरेंद्र मोदी बहुमत के आंकड़ों से कहीं दूर रह गये तो क्या मोदी सरकार बनाने से मना कर इस्तीफा दे देंगे, ये कहकर कि मुझे जनता ने फिर से सरकार बनाने का स्पष्ट जनादेश नहीं दिया है इसलिये नैतिकता कहती है कि मैं सरकार न बनाऊं. जैसा कि 1989 में राजीव गांधी ने किया था.
ये सवाल मैं इसलिए पूछ रहा हूं कि इस चुनाव के दौरान जिस तरह राजनीतिक मर्यादाओं की धज्जियां उड़ी हैं मुझे नहीं लगता कि नरेंद्र मोदी में स्व. अटल जी और स्व. राजीव जी जैसा नैतिक साहस है. इस बार चुनाव देखकर ऐसा लग रहा है मानो 1989 की पुनरावृत्ति होने वाली है. इंदिरा जी की हत्या के बाद 1984 में राजीव गांधी, 2014 के 282सीटों के नरेंद्र मोदी के भारी बहुमत से कहीं ज्यादा 415 सीटों के प्रचंड बहुमत के साथ प्रधानमंत्री बने थे.
अपनी विकासशील कार्यशैली और शिष्ट व्यवहार के चलते उन्होंने भी अपनी एक लोकप्रिय छवि बनायी थी. लोगों को राजीव गांधी में भविष्य का भारत दिखता था. तब भी 1989 के चुनाव में कांग्रेस के खिलाफ आज ही की तरह सारे विपक्षी दल एकमत सेे मिलकर चुनाव लड़े थे. उस चुनाव में कांग्रेस 197 सीटों के साथ सबसे बड़ी पार्टी के रूप में सामने आयी थी लेकिन राजीव गांधी ने सरकार बनाने से मना कर दिया था.
स्मरण रहे कि1996 संसद में सिर्फ एक वोट की कमी के कारण अटल जी ने इस्तीफा दे दिया था ये कहकर कि “हम चाहते तो एक वोट मैनेज कर सरकार बचा सकते थे मगर सरकार की तुलना में मैं लोकतंत्र बचाना चाहता हूं.”
लेखक राजीव तिवारी ‘बाबा’ लखनऊ में स्वतंत्र पत्रकार हैं.
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