Shyam Meera Singh : वक्त है कि ‘भारतीय लेफ्ट’ को देश की सबसे ‘बकलोल’ विचारधारा घोषित कर देनी चाहिए. असल में भारतीय लेफ्ट का एक बड़ा हिस्सा आइडेंटिटी क्राइसिस से कुंद हुआ पड़ा है. जो आकर्षण का केंद्र बनने के लिए किसी भी हद तक जाएगा. एक मूर्ख लेफिस्ट लड़की ने एक बड़े से मंच से ‘पाकिस्तान जिंदाबाद’ का नारा लगाकर एक अनावश्यक विमर्श खड़ा कर दिया है. जिसे गाहे-बगाहे सही साबित करने के लिए आइडेंटिटी क्राइसिस से जूझ रही पूरी लेफ्ट जमात लग गई है. बिना ये जाने कि हम किस दिशा में अपनी एनर्जी खर्च कर रहे हैं. इनके लिए ये ऐसे ही है, जैसे भाजपा के लिए मंदिर मस्जिद के मुद्दे हैं.
अकेले यूपी में सैंकड़ों नगर पालिकाएं हैं, हजारों वार्ड मेम्बर हैं. आज हालत ये है कि आजादी के समय कांग्रेस के बाद दूसरे नंबर पर रहने वाले लेफ्ट संगठन का एक वार्ड मेम्बर भी चुनाव जीतकर नहीं आता. ऐसा नहीं है कि जनता निहायत मूर्ख है. लेकिन आपकी बौद्धिक जुगालियों को तो जनता भलीभांति समझती है. दिल्ली के कॉफी हाउसों में चाय पर की गई इंटरनेशनल चर्चाओं ने आपकी आंख का नम्बर बढ़ा दिया है. जिसके कारण देश के बाकी मुद्दे आपको दिखाई नहीं पड़ते. इसलिए लेफ्ट का काम कारखाने, मजदूर संगठनों से निकलकर नारे फेंककर विमर्श खड़ा करने पर आ पहुंचा है.
जेनएयू में 9 फरवरी वाले इंसिडेंट में भी ये लोग नारे लगाकर फांसी रोकने का ‘विमर्श’ खड़ा करना चाहते थे. यदि फांसी के खिलाफ विमर्श को लेकर लेफ्ट इतना ही गंभीर था, तो निर्भया के दोषियों की सजा के विरुद्ध कभी कोई सेमिनार क्यों नहीं किया? नहीं करेंगे… क्योंकि उसका कोई राजनीतिक मोल नहीं आना है. लेकिन अफजल गुरु का इसलिए किया क्योंकि अगले ही दिन टीवी से लेकर अखबारों के कैमरों से इनका चेहरा लद जाना था. इनके सभी विमर्श का लक्ष्य दो चार नए धूर्त-आलसी टीवी पैनलिस्ट पैदा करना भर रह गया है.
आज भी, अब तमाम कुतर्कों और कुबौद्धिक उल्टियों के सहारे ‘पाकिस्तान जिंदाबाद’ के नारे को डिफेंड करने की मजदूरी शुरू हो चुकी है. इन लोगों से दो लोग इकट्ठे नहीं होते. लेकिन विमर्श इंटरनेशनल करने हैं.
CAA के खिलाफ मुसलमान औरतों ने जैसे तैसे एक जनआंदोलन तैयार किया. पिछले साठ दिनों से देश का मुसलमान अपने काम धंधे छोड़कर भीड़ बनकर सड़कों पर बैठ हुआ है. लेफ्ट के ये दो चार झोलाधारी विचारक मंचों पर आकर ज्ञान उड़ेलने पहुंच जाते हैं. बाकी पूरे दिन अपनी ऑफिसों में कुर्सियों पर पड़े रहते हैं.
आखिर वहां जाकर ‘पाकिस्तान जिंदाबाद’ और ‘ग्लोबल सिटिजनशिप’ का विमर्श खड़ा करने की आवश्यकता क्या ही थी?
क्या आप बुद्ध हैं? जो भीड़ की तरफ आप एक नारा फेंककर मारेंगे और भीड़ का हृदयपरिवर्तन हो जाएगा?
जिस विमर्श को आप खड़ा करना चाहते हैं उस विमर्श को लेकर आप कितना गंभीर हैं? वह मूर्ख लड़की खुद कितना गंभीर थी, वह उसके अगले ही इंटरव्यू में पता चल गया था.
दूसरे के बने बनाए मंच पर ‘बकलोली’ कर आने में, और 60 दिन तक आंदोलन चलाने में अंतर है. लेफ्ट को हर जगह जाकर अपने बेतुके, अनावश्यक विमर्शों को खड़े करने से बचना चाहिए. ‘ग्लोबल सिटिजनशिप’ आपके लिए चाय बिस्कुट पर किया गया फेमस टॉपिक हो सकता है. लेकिन इस देश में आज भी दुनिया के सबसे गरीब, और सताए हुए लोग रहते हैं जिन्हें आपकी ग्लोबल सिटीजनशिप की थूथड़ेबाजी कम समझ आती है. दूसरे लोगों द्वारा मेहनत से बनाए गए आन्दोलनों, मंचों पर जाकर ‘संरक्षणवादी एटीट्यूड’ को छोड़ दीजिए. आपकी बकलोली पूरे मूवमेंट पर भारी पड़ गई है.
लेफ्ट सबसे शानदार विचारधाराओं में से एक है, लेकिन उसका झंडा लेकर चलने वाले लोग, हमेशा दुनिया के सबसे अच्छे लोग होंगे ये जरूरी नहीं है. भारतीय लेफ्ट के विमर्श ने असली लेफ्ट को उतना ही नुकसान पहुंचाया है जितना आरएसएस के हिंदुत्व ने हिंदूइस्म को पहुंचाया है.
उस लड़की ने जो किया सो किया। लेकिन लगता है उसे सही साबित करने में लगी लेफ्ट जमात पाकिस्तान को अब ‘पापा’ बनाकर ही मानेगी.
युवा विश्लेषक श्याम मीरा सिंह की एफबी वॉल से.
rajesh bhartiya
February 24, 2020 at 6:00 pm
u r right sir.