विकास मिश्र-
शुक्रवार की रात से रविवार की शाम तक ‘पिशाच’ ने पकड़ रखा था। सुध-बुध छीन लिया था, रात की नींद, दिन का करार छीन लिया था। ‘पिशाच’ वरिष्ठ पत्रकार और आजतक में सीनियर एक्जीक्यूटिव एडिटर संजीव पालीवाल Sanjeev Paliwal का ताजा उपन्यास है।
सोशल मीडिया पर इसकी बहुत चर्चा है। शुक्रवार की शाम ‘पिशाच’ नाम का ये उपन्यास मेरे पास पहुंचा। रात में पढ़ना शुरू किया तो पौने तीन बज गए। श्रीमती जी ने आगाह किया कि सुबह जल्दी उठना है। लेकिन ‘पिशाच’ तो जैसे सिर पर सवार था। शनिवार का पूरा दिन बीच-बीच में समय निकालकर ‘पिशाच’ पढ़ता रहा। रविवार की शाम ‘पिशाच’ सिर से उतरा तो भी उसकी छाया अभी भी जेहन में मंडरा रही है।
दरअसल ‘पिशाच’ एक रोमांचक क्राइम थ्रिलर है। इसे पढ़ने का एहसास रोलर कोस्टर जैसा है। जैसे रोलर कोस्टर में बैठने के बाद आप रहस्य और रोमांच के सागर में हिचकोले खाते हैं, वैसी ही अनुभूति इस उपन्यास को पढ़ने में होती है। एक के बाद एक राज से परदे उठते हैं। रहस्य पर रहस्य उजागर होते हैं। मोड़ पर मोड़ आते हैं। कहानी इतनी तेज चलती है कि कहीं रुकने का अवसर ही नहीं है। इंस्पेक्टर समर प्रताप सिंह के साथ पाठक भी केस के इन्वेस्टीगेशन में लग जाता है। जैसे ही कोई किसी नतीजे पर पहुंचता है, वैसे ही चमत्कृत हो जाता है। क्योंकि कहानी उसकी कल्पना से कहीं आगे का रास्ता अख्तियार करती है।
‘पिशाच’ की कहानी एक खूबसूरत लड़की और एक कामुक बुद्धिजीवी बुजुर्ग गजानन स्वामी की कार यात्रा से शुरू होती है। यहीं गजानन स्वामी का मर्डर होता है, उसके बाद तो फिर पिशाच की कहानी राजधानी एक्सप्रेस की स्पीड से चल पड़ती है। एक के बाद एक हाईप्रोफाइल कत्ल होते हैं। कातिल तक पहुंचता और फिर फिसलता इंस्पेक्टर समर प्रताप सिंह। हाईप्रोफाइल मर्डर पर शोर मचाते टीवी चैनल। बदले की भावना से हुए मर्डर को राजनीतिक रंग देकर एजेंडा सेट करने वाले पत्रकार। टीवी चैनल को मिलते एक्सक्लूसिव वीडियो…। एक के बाद एक खुलते राज और एक राज खुलने के बाद उलझता दूसरा राज। उफ्फ… कितने झटके देती है ‘पिशाच’ की कहानी।
संजीव पालीवाल मेरे वरिष्ठ हैं। इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के मेरे पहले बॉस। इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में उनका लंबा अनुभव ‘पिशाच’ में भी झलकता है। धड़ल्ले से उन्होंने इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में प्रचलित- रनडाउन, पैनल, पीसीआर, आउटपुट हेड, इनपुट हेड जैसी शब्दावली का इस्तेमाल किया है, लेकिन ये शब्द कहीं कहानी को बाधित नहीं करते, बल्कि विश्वसनीय बनाते हैं। ‘पिशाच’ में इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के जो कैरेक्टर दिखाए गए हैं, उनमें वास्तविक किरदारों की झलक मिलती है। मैं इस मीडियम में हूं तो मैं आसानी से उनकी पहचान कर सकता हूं, लेकिन इस क्राइम फैंटेसी में जो उड़ान लेखक ने ली है, वो वास्तविकता के करीब और कल्पना के पार है।
उपन्यास की भाषा की मैं खास तौर पर चर्चा करना चाहता हूं। कहानी की जो रफ्तार है, उसमें अविरल नदी की धार जैसी भाषा होनी चाहिए थी। संजीव पालीवाल ने उसका ख्याल रखा है। छोटे छोटे वाक्य हैं। जरूरत पड़ने पर उर्दू और अंग्रेजी शब्दों का भी इस्तेमाल है। बेहद सरल और प्रवाहमान भाषा है। प्रकाशक को भी एक धन्यवाद बनता है कि शाब्दिक गलतियां इस उपन्यास में बिल्कुल न के बराबर हैं।
संजीव पालीवाल का पहला उपन्यास था ‘नैना’। ‘नैना’ जिन्होंने पढ़ रखी है, उन्हें ‘पिशाच’ भी पढ़ना पड़ेगा। क्योंकि नैना मर्डर केस का असली खुलासा तो ‘पिशाच’ में ही होता है। नैना का एक्सटेंशन पिशाच में मिलता है। पिशाच और नैना की कहानियां दो अलग-अलग नदियों की तरह चलती है और क्लाइमेक्स से कुछ पहले आकर दोनों कहानियों का संगम होता है। ‘पिशाच’ में नैना-रैना, नानी-रानी की एक पहेली नहीं है।
पहेलियों की फेहरिस्त है, जो एक के बाद एक खुलती जाती है। उपन्यास का क्लाइमेक्स जहां आता है, वो एक सवाल छोड़ता है। अगर मैं गलत नहीं हूं तो ‘पिशाच’ का सीक्वेल भी जरूर आएगा।
(संजीव पालीवाल का ये उपन्यास अमेजन समेत तमाम ऑनलाइन प्लेटफॉर्म पर उपलब्ध है)