सुरेश प्रताप सिंह-
बीएचयू में पढ़ाई के दौरान किसी गोष्ठी या धरना-प्रदर्शन में अक्सर विश्वविद्यालय परिसर में अफ़लातून से मुलाकात हो जाती थी. उनकी वही छवि अब भी मेरे मस्तिष्क में उभर कर आती है.
कुर्ता-पायजामा पहने और कंधे पर झोला लिए अक्सर वे बहस करने या लड़ाई की मुद्रा में रहते थे. वैचारिक स्तर पर हम लोग असहमत थे लेकिन जनवादी संघर्षों पर सहमत. जब कुछ नहीं हो रहा तो धरना-प्रदर्शन ही हो और यही वह बिन्दु था जिस पर असहमति के बावजूद सहमति बन जाती थी. अफ़लातून अफलू से इसी तरह देश के हालात पर वैचारिक नोकझोंक होती रहती है.
समाजवादी आंदोलन में बिखराव के बाद वह चर्चित चिंतक किशन पटनायक से जुड़ गए. अक्सर शहर में किशन पटनायक और मेधा पाटेकर की गोष्ठी कराते थे. तब मैं पत्रकारिता में आ गया था और एक पत्रकार की हैसियत से उनकी गोष्ठियों में शामिल होता था. मेरे लिए वह खबर बन गए.
बीएचयू में पढ़ाई के बाद ही मैं पत्रकारिता में आ गया था. शहर की घटनाएं मेरे लिए खबर बन गईं. तब न्यायमूर्ति वीएम तारकुंडे की अगुवाई में जयप्रकाश नारायण की पहल पर पीयूसीएल का गठन हुआ. इंडियन एक्सप्रेस के संपादक रहे अरुण शौरी इसके महासचिव चुने गए.
साल 1980 के दौरान इलाहाबाद में पीयूसीएल की एक बैठक थी जिसमें अरुण शौरी आए थे. उनसे मिलने मैं बनारस से इलाहाबाद चला गया. उनसे पीयूसीएल के बारे में विस्तार से बातचीत हुई. वार्ता के दौरान एक बात उभरकर आई की जब कुछ नहीं हो रहा तो किसी भी घटना के परिप्रेक्ष्य में तथ्यों को उजागर किया जाए. सच को जानने का सबको संवैधानिक अधिकार है. पत्रकारिता इसमें महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकती है.
यह वह दौर था जब केंद्र में जनता पार्टी की सरकार बनी थी जो अपने अंतर्विरोधों के चलते लड़खड़ा रही थी. सम्पूर्ण क्रांति की हवा निकल गई थी. मोहभंग..! इलाहाबाद में पीयूसीएल की बैठक से लौटने के बाद मैंने बनारस में इसकी इकाई गठित करने का फैसला किया.
इसके लिए भदैनी स्थित तुलसी पुस्तकालय में बैठक बुलाई. इसमें कथाकार प्रोफेसर काशीनाथ सिंह, गांधी विद्या संस्थान के प्रोफेसर ज्वाला, जेएनयू के प्रोफेसर आनंद कुमार, अफलातून देसाई, पत्रकार जलेश्वर आदि साथी भाग लिए और पीयूसीएल की बनारस इकाई गठित हुई. मैं उसका संयोजक था.
बैठक में फैक्ट फाइंडिंग कमेटी गठित की गई जो मानवाधिकार से जुड़ी घटनाओं के तथ्यों को इकट्ठा करके उसे अखबार में खबर बनाने का काम करे. पत्रकारिता में रहते हुए यह मेरे लिए आसान काम था. अधिवक्ता सरदार जोगेन्द्र सिंह के नेतृत्व में वकीलों की एक टीम बनाई गई जो निःशुल्क कानूनी मदद करती थी. इलाहाबाद हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट में भी अधिवक्ताओं की टीम थी जो कानूनी मोर्चा पर लड़ती थी. साथी चितरंजन सिंह यूपी कमेटी में सक्रिय हो गए थे. काम ठीक चल रहा था.
अफलातून भी कमेटी में सक्रिय थे. वह राजनीतिक मोर्चे पर थे तो सूचनाएं उनके पास रहती थीं. हम लोग तथ्यों को इकट्ठा करते और जरूरत पड़ने पर वकीलों की टीम कानूनी मदद करती थी. अफलातून अब भी बनारस में आयोजित धरना-प्रदर्शन व गोष्ठियों में मिलते रहते हैं. उनके अंदर वही उत्साह है लेकिन अब बूढ़े हो गए हैं.
उनकी पत्नी प्रोफेसर स्वाति जो बीएचयू में पढ़ाती थीं के निधन के बाद अब वे टूट गए हैं. समाजवादी जन परिषद में प्रोफेसर स्वाति बड़ी नेता थीं. बीएचयू के साथ-साथ जनांदोलन में भी सक्रिय थीं. उनके न रहने से मुझे व्यक्तिगत क्षति हुई है. विमर्श के मोर्चे पर उनसे अक्सर बहस हो जाती थी. जिंदगी ऐसे ही चलती है. लोग जुड़ते हैं. कुछ दूर साथ-साथ चलते हैं फिर बहुत दूर चले जाते हैं, जहां से कोई वापस लौट कर नहीं आता है. प्रोफेसर स्वाति की स्मृतियों को नमन..!