3 मई को मजीठिया वेतनमान की सुनवाई पूरी हो गई। अब सभी की निगाहें फैसलें पर है। लेकिन बात वही आती है कि सुप्रीम कोर्ट कोई भी फैसला देगा तो क्या प्रेस मालिक आज्ञाकारी शिष्य की तरह मान लेंगे? नहीं। जब वे मजीठिया वेतनमान देने के आदेश को नहीं माने तो सुप्रीम कोर्ट का कोई आदेश उनकी समझ में तब तक नहीं आएगा जब तक उनके हाथ से वित्तीय अधिकार नहीं छिनेंगे। जेल भी होगी तो अधिनस्तों की होगी और संपादक, मुद्रक प्रकाशक को इसीलिए ऊंचा वेतन दिया जाता है कि कंपनी के पाप झेलने की क्षमता हो। इसलिए 6 माह की सजा भोगने में क्या ऐतराह जब हजारों करोड़ वारे न्यारे हो रहे हो।
ऊंची पहुंच व साख दांव पर
कहा जाता है कानून मनीमैन लोगों का खेल है। जहां आम आदमी को दिलासा देने के लिए कानून-कानून खेला जाता है। यह बीमारी लगभग पूरे विश्व में है। भारत भी इससे अछूता नहीं है। लेकिन यह मामला पत्रकारों का है। लिखित कानून से परे कोई भी फैसला कैसे मान्य होगा? क्या पत्रकार इसे सहज स्वीकार कर लेंगे? जैसे कई सवाल हैं।
पत्रकारों के पक्ष में कानूनी बातें
चूंकि जर्नलिस्ट एक्ट में उन सारी बातों का उल्लेख है जिसके तहत प्रेस मालिक बचने का प्रयास करेंगे। इसमें संविदा कर्मचारी, अनुबंधित कर्मचारी, पार्ट टाइम कर्मचारी तक का उल्लेख है। और साफ कहा गया है कि इससे कम वेतन किसी भी हालत में स्वीकार नहीं होगा इससे अधिक वेतन पर आपत्ति नहीं। तो 20 जे का मुद्दा जर्नलिस्ट एक्ट में ही खत्म हो जाता है। और आईडी एक्ट के 20 जे को माने भी तो कोई न्यूनतम वेतन से कम वेतन नहीं दे सकता। और पत्रकारों के लिए न्यूनतम वेतनमान वेजबोर्ड माना गया है। कर्मचारी स्थाई नियोजन अधिनियम 1946 की धारा 38 साफ इस बात को परिभाषित करती है कि कर्मचारी से कई भी गैर कानून अनुबंध मान्य नहीं होगा। तो बचाव के रास्ते लिखित कानून के अनुसार बंद हैं।
क्या-क्या हो सकता है फैसला
अवमानना अधिनियम के तहत ऐसे मामलों में कोर्ट जिम्मेदार अधिकारी व मालिक को सीधे जेल भेज सकती है। कंपनी मामलों में माफी की गुंजाईश कम होती है। या फिर कोर्ट कंपनी का लाइसेंस रद्द कर सकता है। संपत्ति अटैच कर सकता है। कंपनी का विवाद खत्म होने तक कंपनी की प्रशासनिक जिम्मेदारी सरकार के आधीन कर सकती है। 6 माह बाद यदि विवाद पूरी तरह नहीं खत्म हुआ तो सरकारी अधीनता 6 माह के लिए और बढ़ सकती है।
हालांकि कुछ जज अपने विशेषाधिकार का फायदा उठाकर खुद संसद व राष्ट्रपति बनने का प्रयास करते हैं और लिखित संविधान से बाहर नया संविधान लिख देते हैं। कानून को अपने ढ़ंग से परिभाषित कर ऐसा फैसला दे देते हैं जो ना तो संविधान में लिखा हो ना एक्ट में लिखा हो। यह बीमारी ब्रिटेन के अलिखित संविधान से आई है जो आज भी लिखित संविधान पर भारी है। यदि कानून की नई व्याख्या करना ही है तो संविधान पीठ किसलिए है। जज तो जो कानून में लिखा होता है उसका पालन कराने के लिए होता है।
एक पत्रकार द्वारा भेजे गए पत्र पर आधारित.
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