पिछले हफ्ते फिर एक खबरिया चैनल के एडिटर-एंकर को एक राजनीतिक दल के प्रवक्ता ने लाइव स्टूडियो डिस्कशन के दौरान गाली दी, उसे भ……आ और द ..ल कहा. पूरा समाज भी इस समय न्यूज़ चैनलों को परोक्ष घृणा और प्रत्यक्ष तिरस्कार के भाव से देख रहा है. वैसे तो देश की हर औपचारिक या अनौपचारिक, संवैधानिक या सामाजिक, धार्मिक या वैयक्तिक संस्थाओं पर जन-विश्वास घटा है लेकिन जितना अविश्वास मीडिया और खासकर न्यूज़ चैनलों को लेकर है वह शायद पिछले तमाम दशकों में कभी नहीं रहा. और हाल के कुछ वर्षों में जितना हीं देश का मनस दो पक्षों में बंटा है उतना हीं यह अविश्वास जनाक्रोश में बदलता जा रहा है. अगर स्थिति यही रही तो टीवी रिपोर्टर को किसी घटना के कवरेज में “पीस-टू-कैमरा” (पीटीसी) भी बंद गाड़ी में करना पडेगा.
कौन जिम्मेदार है इस घटते जन-विश्वास का? शायद संपादक जिसकी नैतिक शक्ति मोटी पगार के कारण जाती रही. बाज़ार में बने रहने के लिए वह बेहतर और जनोपादेय खबरें देने की जगह चटकारे वाली खबरें देने का आदि हो गया. इसमें न ज्ञान की जरूरत थी, न हीं खबर जुटाने में अपेक्षित मेहनत की और साथ हीं “विजुअल्स” भी मुफ्त में मिल जाते हैं. घीरे -धीरे न्यूजरूम, जो एक ज़माने में ज्ञान-आधारित खबरों के महत्व पर चर्चा कर के फैसला लेता था आज एक मछली बाज़ार के शोर में बदल गया.
“दो सांड़ो के लड़ने का एक विजुअल सोशल मीडिया से उठा लिया और इसे एक घंटा तान दिया”– यह न्यूज़-रूम की आम भाषा है. जितनी हीं लम्बी तानने की क्षमता, उतना हीं ज्यादा उसके टीवी पत्रकार होने पर मुहर, लिहाज़ा उतनी हीं अधिक मार्केट वैल्यू और तज्जनित वेतन. “कश्मीर में पुलिस-आतंकी मुठभेड़ में अमुक एंकर की आवाज तीखी है और ड्रामेटिक डिक्शन (बोलने में ड्रामेबाजी) भी करता/करती है उसे एंकरिंग करने को कहो”, यह आदेश कोई और नहीं संपादक देता है. और एंकर अगर स्वयं संपादक भी है तो उसे मुगालता होता है कि यह देश उसी के भरोसे बच पायेगा. लिहाज़ा राष्ट्र-प्रेम का एक हैवी डोज डिस्कशन के प्रारंभ में दर्शकों को पिलाएगा और फिर खा जाने वाले भाव में विपक्ष के लोगों की और सवाल दागेगा.
ऐसी आवाज और ड्रामा पैदा करना वर्तमान संपादक-एडिटर की बौधिक क्षमता का पर्याय बन गया. एंकर को चूंकि एक घंटा इस विजुअल पर रहना है लिहाज़ा रिपोर्टर को कहा जाता है कि दो सांडों की लड़ाई का विसुअल सोशल मीडिया से मिल गया है तुम किसी गाय-भैंस वाले झुण्ड के पास खड़े हो जाओ और एंकर उससे सवाल करती है “——-, ये बताइए कि दोनों सांडों का किस बात पर झगडा हुआ था. अब रिपोर्टर अपनी कल्पना की “बुलंदपरवाजी” को रफ़्तार देता हुआ कारण बताता है —अपनी संस्कृति और ज्ञान के अनुसार.
खैर, यहाँ तक होता तो दर्शक को शायद कुछ मज़ा आता कम से कम रिपोर्टर -एंकर संवाद के ओझेपन को लेकर या फिर अपने सामान्य ज्ञान और बचपने में मां-बाप से नज़रें चुरा कर जो जानकारी हासिल की थी को इस्तेमाल करते हुए स्वयं सांडों के लड़ने के ‘असली” कारण बता कर कुछ मनोरंजन कर लेता है.
लेकिन हाल के दौर में पत्रकारिता के मानदंडों और व्यावहारिक शालीनता की सभी हदें पार कर एक नए चैनल के संपादक-एंकर ने शाम के स्टूडियो डिस्कशन में बताया — हमारे दाहिने हाथ की तरफ जो चार लोग बैठे हैं वे आज के मुद्दे पर हमारे साथ हैं और जो बाईं और हैं वे हमारे खिलाफ. थोड़ी देर में स्क्रीन पर भी यह लिख कर भी आने लगा जो पूरे आधे घंटे की चर्चा में लगातार दिखाया जाता रहा. विश्वास नहीं होता कि पतन की कौन सी सीमा है जहाँ यह सब कुछ जा कर रुकेगा –अगर रुका तो.
पूरी दुनिया के पत्रकारिता को किसी समुन्नत प्रजातंत्र का अपरिहार्य तत्व माना जाता है. लेकिन अगर एक एंकर-एडिटर यह बता कर मुद्दा शुरू करे कि वह किस पक्ष का है तो वह चैनल भी जन-विश्वास खोने लगता है. संभव है आज जिस तरह पूरा भारतीय समाज दो पक्षों में बंटा है, इस चैनल को ऊँची टीआरपी मिल जाये और उसकी मार्किट वैल्यू भी बढ़ जाये लेकिन आज से कुछ महीने या कुछ सालों बाद शायद में न्यूज -चैनलों को देखना लोग ख़त्म कर देंगे क्योंकि उसकी विश्वसनीयता स्वतः हीं ख़त्म हो जायेगी और दर्शकों को मनोरंजन के चैनल में ज्यादा मज़ा आयेगा और बौधिक खुराक के लिए वह किसी और विधा की ओर जाने लगेगा—शायद वापस समाचारपत्रों की ओर जहाँ उसे विस्तार से जनोपदेय विषय-वस्तु के बारे कम से कम जानकारी मिल सकेगी. उसे न्यूज़ चैनल की नीम-भांडगिरी से ज्यादा अच्छा लगेगा असली मनोरंजन चैनलों के कार्यक्रम देखना.
हाल के दौर में चैनल के कुछ संपादकों ने अपने कार्यक्रम में यह भी यह भी शुरू किया है कि दिल्ली के संभ्रान्तीय चरित्र वाले “अन्य संपादक” कैसे ड्राइंग रूम से पत्रकारिता करते हैं, इस पर अपने चैनल के जरिये दर्शकों को बताना. इनका यह भी दवा होता है कि केवल वह हीं फील्ड में जा कर जनता के दुखदर्द जानकार “तथ्यों” को दर्शकों के सामने परोसता है. कभी सब्जी बाज़ार में जाएँ और ठेले पर सामान सब्जी बेंचते हुए ठेलों के पास से गुजरें. वह अपने माल को दुनिया का सबसे बेहतरीन बताने के साथ हीं पड़ोसी ठेले के माल की बुरा भी बताता है. और ऐसा करने में उसकी आवाज बुलंद हो जाती है.
एंकर भी कुछ ऐसे हीं अपनी सामान्य आवाज को हाफ-टोन उपर ले जाकर कार्यक्रम की शुरुआत करता है –महिला एंकर को भी यही आदेश होता है कि वह सफल होने के लिए चीखे -चिल्लाये.
इसकी एक बानगी देखें. यह सभी जानते हैं कि राफेल डील ९१ करोड मतदाता वाले देश के आम चुनाव में एक बड़ा मुद्दा बनेगा. पत्रकारिता के मौलिक तकाजे के तहत यह जरूरी है कि खबरों की दुनिया का हर व्यक्ति खासकर संपादक सर्वोच्च न्यायलय के फैसले, कैग की रिपोर्ट हीं नहीं रक्षा सौदे के हर पहलू को आत्मसात करे लेकिन जिस दिन कैग की रिपोर्ट संसद के सदनों में रखी जा रहे थी, शायद हीं किसी टीवी संपादक ने इसे पढ़ा. इसकी जगह उसने नेताओं द्वारा अधकचरी और कुतर्क पर आधारित जानकारी पर चर्चा की और एडिटर अगर “राष्ट्रवादी” था तो उसने विपक्ष को राष्ट्रद्रोही करार दे दिया और अगर वह दूसरे खेमे का था तो उसने भी इसे भ्रष्टाचार का पर्याय बताया और देश की सुरक्षा के साथ वर्तमान सरकार का खिलवाड़ करार दिया.
एक ऐसे दौर में जहाँ हर संस्था जन-संदर्श में नीचे गिरी है , एक ऐसे समय में जब देश दो पारस्परिक विरोधी विचारधाराओं में इस कदर बंटा है कि स्पष्ट सोच के लोगों के लिए कोई जगह हीं नहीं बची है, घर-घर तक जाने वाले खबरिया चैनलों पर एक गुरुतर भार था समाज को निरपेक्ष भाव से सत्य बताने का –या कम से कम दो पक्षों के तथ्यों को बेबाकी से रखने का लेकिन संपादकों को अध्ययन से ज्यादा आसान ड्रामा या किसी पक्ष के साथ पूरी तरह बहना फायदेमंद लगता है.
लेखक एनके सिंह कई न्यूज़ चैनलों के संपादक रहे हैं और ब्रॉडकास्ट एडिटर्स एसोसिएशन के कर्ताधर्ताओं में से एक हैं।