क्या सुप्रीम कोर्ट ने ‘शादी’ नामक संस्था की ऐसी-तैसी कर दी?

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Prabhakar Mishra : आप जश्न मनाइये जीत का, मनपसंद सेक्स पार्टनर चुनने की आज़ादी का, पति-पत्नी के अधिकारों की बराबरी का …! लेकिन तैयार भी रहिये … विवाह जैसी पवित्र संस्था के लिए मर्सिया पढ़ने के लिए! क्योंकि ..बस एक कदम और …. शादी की ऐसी की तैसी!

सुप्रीम कोर्ट ने पहले समलैंगिकता को अपराध ठहराने वाले IPC की #धारा377 के प्रावधान को रदद् किया। जिससे सहमति से समलैंगिक संबंध बनाने को कानूनी मान्यता मिल गयी। मतलब अब दो महिलाएं साथ – साथ रह सकती हैं, लैंगिक संबंध बना सकती हैं। दो पुरूष भी पति पत्नी की तरह रह सकते हैं, समलैंगिक संबंध बना सकते हैं। इस फैसले से शादी की जो पारंपरिक परिभाषा थी कि पुरूष और स्त्री शादी करेंगे, वैवाहिक संबंध बनाएंगे, बच्चा पैदा होगा …आदि आदि! वह परिभाषा बदल गयी। शादी जैसी व्यवस्था खतरे में दिखने लगी!

दूसरा कदम आज का फैसला है। एडल्टरी की #धारा497 को असंवैधानिक करार देना। आज के बाद विवाहित महिला के सहमति से अगर कोई परपुरुष शारिरिक संबंध बनाता है तो वह अपराधी नहीं होगा। हां, इस आधार पर तलाक की मांग की जा सकती है। मतलब, पति किसी और लड़की या स्त्री से संबंध बना सकता है और पत्नी भी पति के अलावे अपनी ‘पसंद’ के पुरूष से सम्बंध बना सकती है.. जिसे भी ऐतराज हो तलाक मांग सकता है। खुद सोचिये, कितना मुश्किल होगा किसी ‘शादी’ का बचे रहना, अगर पति या पत्नी अपने पसंद के मुताबिक सेक्स पार्टनर बनाये। .. शादी का टूटना तय है।

बस, अब एक अदम और आगे बढ़ने की जरूरत है! और वह है मैरिटल रेप यानि ‘वैवाहिक बलात्कार’ को अपराध बना देना। फिलहाल ‘मैरिटल रेप’ कानून की नज़र में अपराध नहीं है। यानी अगर पति अपनी पत्नी की मर्ज़ी के बगैर उससे जबरन शारीरिक संबंध बनाता है तो उसे अपराध नहीं माना जाता। इसे अपराध बनाने की मांग चल रही है …. और वो दिन भी आएगा जब ‘मैरिटल रेप’ अपराध होगा।

और ऐसा हो गया तो सोचिए .. क्या होगा! पत्नी अपने पति के प्रणय निवेदन को अस्वीकार करती है और पति ‘आवेग’ में पत्नी की इच्छा के खिलाफ सेक्स करता है तो उसे जेल जाना होगा। .. अब जेल जाना भला किसको अच्छा लगता है ! तो ऐसे में, पति अपने पसंद के ऐसे सेक्स पार्टनर से प्रणय निवेदन करेगा जो अस्वीकार ना करे। .. ये बात जब पत्नी को पता चलेगी तो … तलाक! तलाक़ मिलना भी इतना आसान कहाँ, बड़ी मुश्किल कानूनी लड़ाई लड़ने के बाद मिलता है!

अब आप ही बताओ ! शादी करके जेल जाने का जब ख़तरा होगा या तलाक के लिए कोर्ट कचहरी के चक्कर काटने होंगे तो शादी करने की जहमत भला कौन उठाएगा! कौन खाना चाहेगा शादी का लड्डू? ..
फिर तो …

शादी जैसी संस्था की ऐसी की तैसी !!

सेक्शन 497 बहुत बुरा कानून था, पत्नी को पति की संपत्ति मानता था, गैरबराबरी का कानून था … इसमें बदलाव की जरूरत थी न कि इसे पूरी तरह रदद् करने की। इस कानून के रदद् होने से समाज को फायदा कम है नुकसान अधिक। क्योंकि ऐसे कितने पुरुष हैं समाज में जो अपनी पत्नी को दूसरे से संबंध बनाने की इजाजत देते थे। लेकिन जब कोर्ट ने ये कह दिया कि पति और पत्नी दोनों मनपसंद सेक्स पार्टनर चुन सकते हैं, यह अपराध नहीं होगा ! इस फैसले से शादी जैसी पवित्र संस्था को बहुत नुकसान होगा । इस तरह का पोस्ट लिखना बहुत जोखिम भरा काम है! पढ़ने वाले आपको regressive सोच वाला, महिला अधिकार विरोधी, … और पता नहीं क्या क्या सोचने लगते हैं!

#Section377, #Section497, #MaritalRape #Marriage

Dhruv Gupt : अंत का आरम्भ? आपसी सहमति से बनाया गया विवाहेतर यौन-संबंध अब अपराध नहीं रहा। न विवाहिता स्त्री के लिए, न विवाहित पुरुष के लिए। महिलाओं के हित में संशोधन की जगह भारतीय दंड विधान की धारा 497 की समाप्ति का सुप्रीम कोर्ट का आदेश वैयक्तिक स्वतंत्रता, लैंगिक समानता और समाज की सोच में आए बदलाव की दृष्टि से प्रगतिशील फैसला जरूर लगता है, लेकिन इस फैसले का एक ऐसा भी पक्ष है जिसके बारे में विचार करना न्यायालय को शायद जरुरी नहीं लगा।

क्या हमारा समाज सोच के उस स्तर तक पहुंच गया है जहां पत्नी पति के और पति पत्नी के विवाहेतर रिश्तों को सहजता से स्वीकार कर सके ? या हमारे बच्चे अपनी मां और पिता के ऐसे रिश्तों के साथ सहज रह सकें ? पश्चिमी देशों में ऐसी सोच बनने जरूर लगी है, लेकिन वहां भी यह आरंभिक अवस्था में ही है। हमारे यहां अभी ऐसी स्थिति आने में लंबा वक़्त लगेगा। मानव सभ्यता के इतिहास में परिवार की परिकल्पना शायद सबसे प्रगतिशील सोच रही थी। इसने समाज को यौन अराजक होने से भी बचाया, स्त्री और पुरुष दोनों को सुरक्षा और भावनात्मक स्थायित्व भी दिया और आने वाली संतानों की शारीरिक, मानसिक और भावनात्मक परवरिश की बेहतरीन व्यवस्था भी की।

परदे के पीछे विवाहेतर संबंध हर युग में बनते रहे हैं और भविष्य में भी बनते रहेंगे। छिटफुट अपवादों को छोड़ दें तो इससे परिवार नाम की संस्था पर अबतक कोई प्रतिकूल असर नहीं पड़ा था। अब शादी के बाहर सेक्स को कानूनी मान्यता के साथ समाज में यौन अराजकता, परिवारों की टूटन और बच्चों में अकेलेपन और अवसाद की शुरुआत तो नहीं होने जा रही है? विवाहेतर रिश्तों पर सुप्रीम कोर्ट का आज का फैसला कुछ ऐसे सवाल लेकर आया है, जिनका तत्काल जवाब नहीं खोजा गया तो परिवार नाम की संस्था शायद नहीं बचेगी। और अगर परिवार नहीं बचा तो क्या बचा रहेगा हमारे पास?

Ravindra Bajpai : विवाहेतर संबंध : व्यभिचार अधिकार नहीं हो सकता… सर्वोच्च न्यायालय में इन दिनों निर्णय सप्ताह चल रहा है। इसी श्रृंखला में गत दिवस एक बड़ा फैसला प्रधान न्यायाधीश की अध्यक्षता वाली पीठ ने दिया जिसमें विवाहेतर संबंधों में महिला के लिए पति की सहमति की आवश्यकता को खत्म करते हुए कह दिया गया कि वह चूँकि पति की संपत्ति नहीं है इसलिये उसे भी यौन स्वायत्तता मिलनी चाहिए। भारतीय दंड विधान संहिता की धारा 497 को असंवैधानिक करार देते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि यद्यपि विवाहेत्तर संबंध तलाक के लिए ठोस आधार बना रहेगा किन्तु पति की सहमति के बिना पत्नी को किसी परपुरुष के साथ शारीरिक संबंध बनाने पर व्यभिचार का दोषी नहीं माना जा सकेगा क्योंकि वह अपने शरीर की खुद मालिक है।

अभी तक जो व्यवस्था थी उसके अनुसार पति से अनुमति लिए बिना परपुरुष से संबंध रखने पर पति तो उस पर विवाहेतर संबंध रखने का मामला दर्ज करवा सकता था किंतु पति के वैसा ही करने पर पत्नी पति को आरोपी नहीं बना सकती थी। अदालत ने स्त्री-पुरुष समानता को आधार मानते हुए धारा 497 को असंवैधानिक, अमानवीय और अव्यवहारिक निरूपित करते हुए रद्द कर दिया। समाज की नजर में भले ही विवाहेतर संबंध अभी भी व्यभिचार माना जाए किन्तु कानून की नजर में अब स्थिति बदल गई है। उक्त निर्णय में भारत की परिवार नामक संस्था में महिलाओं की भूमिका को जिस नए ढंग से परिभाषित करने का प्रयास किया गया उसे समाज तो क्या खुद भारत की आम नारी कितना स्वीकार करेगी ये विचारणीय प्रश्न है। अदालत की ये भावना तो पूरी तरह स्वीकार्य है कि निजी संबंधों को लेकर पुरुष और स्त्री दोनों में भेदभाव कानून की नजर में नहीं होना चाहिए।

पत्नी द्वारा बिना अनुमति के किसी अन्य पुरुष के संग संबंध स्थापित करने पर पति उस पुरुष पर तो कानूनी कार्रवाई कर सकता था किन्तु उस पुरुष की पत्नी को ये अधिकार नहीं था। अब नई व्यवस्था में परपुरुष भी सजा से मुक्त रहेगा और पति के अलावा किसी अन्य से शारीरिक संबंध बनाने के लिए पत्नी को भी पति की अनुमति का बंधन नहीं रहेगा। इस तरह स्त्री-पुरुष की समानता के सिद्धांत को लागू करने के फेर में सर्वोच्च न्यायालय ने विवाहेतर संबंधों को व्यभिचार और अपराध की श्रेणी से हटाने का जो कदम उठाया उसने भारतीय समाज में एक विचित्र स्थिति को जन्म दे दिया है। खुद प्रधान न्यायाधीश दीपक मिश्रा ने माना कि विवाहेतर संबंध कानूनी तौर पर न सही लेकिन सामाजिक तौर पर गलत रहेंगे। तब सवाल ये उठता है कि क्या देश का कानून समाज की सोच और मान्यताओं से अलग रहना चाहिए। पत्नी का शरीर निश्चित रूप से पति की जागीर नहीं है लेकिन भारतीय समाज यौन स्वच्छन्दता को यदि पाप की श्रेणी में मानता रहा तो उसके पीछे सदियों का अध्ययन और अनुभव है।

परिवार का स्थायित्व सामाजिक व्यवस्था का आधार है। अदालत ने अनेक देशों का उदाहरण देते हुए विवाहेतर संबंधों को व्यभिचार नहीं मानने की बात कही लेकिन उन देशों की संस्कृति और संस्कार भारत से सर्वथा अलग हैं। सर्वोच्च न्यायालय की इस बात का हर समझदार व्यक्ति समर्थन करेगा कि पत्नी का शरीर पति की जागीर नहीं है इसलिए विवाहित स्त्री को भी उसकी वांछित स्वायत्तता हासिल होनी ही चाहिए लेकिन सजा पुरुष को ही क्यों स्त्री को भी मिले जैसी बातों के अलावा भी बहुत कुछ ऐसा है जो कानून की परिधि से बाहर अर्थात निजी संबंधों और सामंजस्य पर निर्भर है। क्या कोई न्यायाधीश इस बात को पसंद करेगा कि उसकी पत्नी या पति विवाहेतर संबंध से जुड़े। जहां तक बात तलाक की है तो वह भी आसानी से नहीं मिलती और फिर ऐसे संबंधों को साबित करना भी कठिन होगा।

कहने का आशय ये है कि धारा 497 का खात्मा भारतीय समाज में यौन स्वच्छन्दता को बढ़ावा देगा जिससे परिवारों के टूटने की स्थिति बनेगी और पति-पत्नी के बीच संदेह की दीवार खड़ी हो जाएगी। और फिर परिवार का अर्थ केवल यौन संबंध नहीं अपितु संतान का लालन-पालन जैसे दायित्वों का निर्वहन भी है। विवाह को पवित्र बंधन कहे जाने के पीछे भी गहरी सोच है क्योंकि पश्चिमी संस्कृति की तरह हमारे देश में विवाह केवल वयस्क स्त्री-पुरूष के साथ रहने का अनुबंध नहीं अपितु एक जिम्मेदारी है जिसमें सहयोग, समर्पण और स्नेह भाव की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। सर्वोच्च न्यायालय ने अपने फैसले में केवल पत्नी के शरीर पर पुरुष के अधिकार और यौन स्वायत्तता पर ही अधिकतम ध्यान दिया जबकि समाज और बहुसंख्यकों की धार्मिक मान्यताओं में परपुरुष और परस्त्री गमन दोनों को अनैतिक मानकर पाप की श्रेणी में रखा गया है।

अच्छा होता यदि सर्वोच्च न्यायालय पति-पत्नी दोनों के विवाहेतर संबंधों को दंडनीय अपराध मानकर समाज की परिवार नामक इकाई को टूटने से बचाने का प्रयास करता जो पश्चिमी संस्कृति के अतिक्रमण से धीरे-धीरे खतरे की ओर बढ़ रही है। माननीय न्यायाधीशों को इस तरह के फैसले करते समय ये भी ध्यान रखना चाहिए कि कानून समाज के व्यवस्थित संचालन के लिए बनाए जाते हैं। व्यक्तिगत स्वतंत्रता का अपना महत्व है किंतु वह समाज के लिए नुकसानदेह है तब वह अनावश्यक और अव्यवहारिक हो जाती है। सर्वोच्च न्यायालय में बैठे विद्वान न्यायाधीशों ने अनेक श्लोकों के माध्यम से नारी के सम्मान को अभिव्यक्त किया है किन्तु इन श्लोकों में जिस नारी का महिमामंडन है वह यौन स्वच्छन्दता की इच्छुक नहीं थी। न्यायपालिका की सर्वोच्चता और सम्मान को लेकर कोई किन्तु-परंतु नहीं लगना चाहिए लेकिन भारत को जबरन इंडिया बनाने का अधिकार भी किसी को नहीं है।

प्रभाकर मिश्रा, ध्रुव गुप्ता और रवींद्र बाजपेई की एफबी वॉल से.



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